Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

कश्मीरी पंडित, घाटी और भाजपा

“मुझे स्पष्ट तौर पर तारीख याद नहीं है, यह 1990 की सर्दी के आस-पास की बात है जब मैंने 24 साल पहले घाटी छोड़ी थी, तब से लेकर आज तक में वापस कश्मीर नहीं गया और समझता हूँ कि यह जल्दी होने भी नहीं वाला है”। दिल में दर्द लिए हुए उसकी आखें उसके घर में लगी डल झील की तस्वीर पर टिकी हुयी थी, उसे अभी भी वह सर्दी याद है जो उसकी रीढ़ को छू जाती थी। अब वह भारतीय राजधानी नयी दिल्ली में बस गए हैं, 68 वर्षीय बालजी कचरू, भारत द्वारा कब्ज़े वाले हिस्से के कश्मीरी पंडित हैं, जिन्होंने 1990 के भारी संख्या में पलायन के दौरान घाटी से रिश्ता तौड़ दिया था।

जम्मू-कश्मीर, गंभीर बाढ़ की चपेट में है, लेकिन पंडितों के लिए, इन वर्षों में आंसू की हर बूँद ने उनके दिल और दिमाग जैसे बाढ़ में बह गए उनके भीतर दर्द है, पीड़ा है और उन्हें, उन्ही की जमीन से बेदखल किये जाने के लिए उनके भीतर गुस्सा भरा है      

कश्मीरी पंडित ही केवल कश्मीर राज्य में हिंदू समुदाय के मूल निवासी हैं। उनके जैसे दिल्ली में पंजीकृत करीब 19,000 भारतीय कश्मीरी पंडितों हैं और दिसम्बर या जनवरी में होने वाले जम्मू-कश्मीर के चुनावों की संभावना को देखते हुए उनके वोट हासिल करने के लिए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) कश्मीरी प्रवासियों के पुनर्वास के लिए एक नए पैकेज को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया में है।

21 अगस्त को ग्रेटर कश्मीर अखबार में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, भाजपा पंडितों के बीच घर-घर अभियान कर रही है जहाँ भी उनकी अच्छी उपस्थिति है। भारत भूषण, जोकि भाजपा के प्रवासी प्रकोष्ठ के राज्य प्रभारी हैं ने कहा कि, "पार्टी का पहला लक्ष्य आगामी विधानसभा चुनाव के लिए सभी कश्मीरी पंडितों को प्रोत्साहित करने का है ताकि वे मतदान करने के लिए अपने आपको पंजीकृत कर सकें ताकि उनसे वोट करने का आग्रह किया जा सके। हमारा लक्ष्य पूरी कश्मीरी पंडित आबादी का विश्वास जीतने का है।"

हालांकि, कचरू, भाजपा द्वारा की गई घोषणा से उलझन में है, वे कहते हैं “ भाजपा के पास ऐसी कोई योजना नहीं है, और उनको पुनर्वास की प्रक्रिया की पूरी जानकारी भी नहीं है, मान लो हमें यहाँ से जाने के लिए बोलते हैं, मै कहाँ जाउंगा? वे हमें कहाँ घर देंगें और सबसे महत्त्वपूर्ण है कि हमें सुरक्षा कैसे प्रदान करेंगें?” उनका विश्वास है कि इस तरह के वायदे की कोई औकात नहीं है जब तक उनके इसे लागू करने की पर्याप्त योजना न हो।

कचरू ने जम्मू जाने से पहले अपने घर को औने-पौने दामों में बेच दिया और वहां से भी दिल्ली आ गए। यद्दपि इन सालों में राजनितिक पार्टियों की लापरवाही और अनिच्छा ने उसकी उम्मीदों पर कई बार पानी फेरा लेकिन अभी भी वह एक बार कश्मीर जाने और वहां अन्तिम सांस लेने की कड़ी इच्छा रखते हैं।

 

इसी तरह की चिंता अक्षिमा कल्ला की है, जो 22 वर्षीय छात्रा हैं, जो सोचती हैं कि पुनर्वास में काफी देर है और भाजापा कुछ नहीं कर रही है बल्कि हालात का फायदा उठा रही है।

हालांकि उसकी कश्मीरियत कचरू से अलहदा है, क्योंकि वह दिल्ली में पैदा हुयी और पली-बड़ी है, उसके लिए वापस कश्मीर जाना कोई मायने नहीं रखता है क्योंकि उसका करियर दिल्ली में ही है। इनके विपरीत एक 50 वर्षीय व्यवसायी संजय खेर है जिन्होंने भाजपा के फैसले का स्वागत किया है, “मेरे विचार में पहली बार कोई राजनितिक पार्टी है जो हमें पुनर्स्थापित करने के मामले में गंभीर है, हम सिर्फ अपनी पहचान चाहते हैं और कश्मीरी पंडितों को वापस कश्मीर जाना चाहिए ताकि हम सब कश्मीरी साथ मिलकर रह सकें।”

खेर इस बात पर अपना गुस्सा जाहीर करते हैं कि कश्मीरी पंडित शरणार्थियों से भी बदतर स्थिति में हैं, वे और उनके वंश के लोग जानते हैं कि आंतरिक विस्थापन क्या होता है,1990 से अपने ही देश में शरणार्थियों की तरह रह रहे हैं

कश्मीरी कहावा के साथ सूखे मेवे मेज पर लाइन से लगे हैं। इन्हें देख कर वे सोचते हैं कि इनका सेवन करना  सभी कश्मीरियों में मौजूद है। भले उन्होंने घाटी छोड़ दी हो, संस्कृति, परंपरा और मूल्य उनमे अभी जीवित हैं।

कश्मीर से बाहर एक शरणार्थी का जीवन जीने के लिए एक अनुमान के अनुसार 1990 में करीब 3 लाख पंडितों ने घाटी को छोड़ा। जल्दबाज़ी में उन्होंने वह सब वहीँ छोड़ दिया जिस पर उनका जीवन आधारित था, उनके साथ रह गयी थी तो सिर्फ उनकी यादें, वे यादें जिनमे अपनी जमीन से बेदखल होने का दर्द और पीड़ा थी।  

पलायन के बाद, ज्यादातर कश्मीरी पंडितों को उम्मीद थी कि वे एक-दिन घाटी में वापस आ जायेंगें, लेकिन उन्होंने इंतज़ार किया और आजतक इंतज़ार करते रहे, दिन महीनों में बदलते रहे, महीने सालों में और साल दशकों की बेदखली में तब्दील होते चले गए और आज भी इसका अंत नज़र नहीं आ रहा है। 

“यह चिनारबाग़ है और डल झील के पास है", 80 वर्षीय बी।एल। गंजू जोकि कश्मीर विश्वविधालय से गणीत के सेवानिरवत प्राध्यापक हैं, अक्सर अपनी पुरानी फोटो को देखतें हैं और उन सभी यादों को याद करने की कोशिश करते हैं जिन्हें वे पीछे छोड़ आये थे।

श्री गंजू उन कश्मीरी पंडितों से एक हैं जिन्होंने 1990 के जन पलायान के दौरान घाटी छोड़ी थी। “ यह 14-15 अप्रैल की रात थी जब मेरे घर की पास की एक मस्जिद से अलार्म की आवाज़ आ रही थी और उसके बाद एक घोषणा हुयी जोकि कश्मीरी पंडितों की ओर मुखातिब थी और कहा जा रहा था कि हमें एक दम घाटी छोड़ देनी चाहिए।” वह घबरा गया और कश्मीर छोड़ दिया यद्दपि उसके भाई ने वहीँ रहने का फैसला लिया। 

गंजू के लिए कश्मीर वापस जाने के लिए उम्र बड़ा मुद्दा है और वे दिल्ली में स्थापित हो चुके है, और अपने कैरियर के आख़री पड़ाव में वे अपने दोस्तों को नहीं छोड़ना चाहते हैं। हालांकि अपने घर वापस जाने की तड़प अभी भी उनके ख्वाब में है और उनकी तरह ही अन्य लोग भी चिनार के पेड़ों और सेब बागों को देखना चाहते हैं।

वे रात के खाने के लिए खाने की मेज पर नहीं बेठें हैं; कश्मीरी शैली खाना खाने के लिए कश्मीरी पटल पर पैरों को एक दुसरे के आर-पार किये बैठे हैं, गंजू खाने के लिए मटन मांगते हैं और मुस्कुराते हुए कहते हैं कि दुनिया में केवल कश्मीरी पंडित ही हैं जो मांसाहारी हैं।

 

(उजैर हसन रिज़वी एक फ्रीलान्स पत्रकार है और ए.जे.ए मॉस कम्युनिकेशन रिसर्च सेन्टर, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नयी दिल्ली में जर्नालिस्मके छात्र हैं, उनका  tweets @rizviuzair है।)

(अनुवाद- महेश कुमार)

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

 

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest