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कुल उत्पादन के एक तिहाई के लिए एमएसपी, बाकी का क्या?

सरकार चावल और गेहूँ के उत्पादन का केवल एक तिहाई हिस्सा खरीदती है और इसी के लिए एमएसपी का भुगतान किया जाता है।
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हाल भी में धान और कई मोटे अनाज सहित 14 खरीफ की फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा पर मोदी सरकार और भाजपा आत्ममुग्ध होते थक नहीं रही और एक शर्मनाक चापलूस मुख्यधारा मीडिया इसे और बढ़ावा दे रहा है। हालांकि कईयों ने इस और भी इशारा किया है कि यह स्वामीनाथन आयोग द्वारा प्रस्तावित एमएसपी इनपुट की कुल लागत जमा 50 प्रतिशत के फोर्मुले से कम बताया और जो भाजपा और मोदी का चुनावी वादे भी था।

लेकिन यह मामला कम एमएसपी से बड़ा है। खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग के मुहैया कराये गये पिछले वर्षों के आँकड़ों से पता चलता है कि केंद्रीय और राज्य सरकार की एजेंसियों द्वारा गेहूँ की खरीद लगभग 28-30 प्रतिशत तक ही सीमित रही। 2017-18 में, सरकार ने कुल उत्पादन का 30.8 मिलियन टन गेहूँ खरीदा जबकि कुल उत्पादन 98.61 मिलियन टन था। जो कुल उत्पादन की खरीद का 31 प्रतिशत है। 2016-17 में जब सूखे का फसलों पर असर हुआ और यह साल इस लहज़े से एक बुरा साल रहा तो खरीद केवल 23 प्रतिशत तक गिर गयी थी।

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तो, बाकी गेहूँ का क्या होता है? इसका काफी बड़ा हिस्सा का उपभोग खुद छोटे और सीमांत किसानों और यहाँ तक कि मध्यम किसानों द्वारा किया जाता है। इस तरह वे जीवित रह रहे हैं। सरकार के मुताबिक पंजाब और हरियाणा जैसे समृद्ध राज्यों के किसान बिहार जैसे गरीब राज्यों के किसानों की तुलना में अपने उत्पादन का बड़ा हिस्सा (जिसे बाज़ार में बेचे जा सकने वाला अतिरिक्त उत्पादन कहा जाता है) बेचते हैं। साथ ही, इन राज्यों में खरीद मशीनरी अधिक व्यापक है। पंजाब में साल 2014-15 और 2016-17 के दौरान सालाना जो औसत 15.7 मिलियन टन गेहूँ पैदा हुआ उसमें से 14 मिलियन टन बाज़ार में बेचा गया और 10.9 मिलियन टन ही सरकार ने एमएसपी पर खरीदाI लेकिन बिहार में सालाना 4.5 मिलियन टन उत्पादन किया गया, 3.7 मिलियन टन का बाज़ार में बिक्री के लिए गया और सरकार ने कुछ भी नहीं खरीदा। और बाज़ार में भी इसे घोषित एमएसपी से कम दाम पर बेचा गया!

यह सिर्फ गेहूँ की समस्या नहीं है। धान के किसानों की स्थिति भी ऐसी ही हैI औसत खरीद कुल उत्पादन के 30-35 प्रतिशत के बीच है। शेष एमएसपी के नीचे कीमतों पर खुले बाजार में बेच जाता है या स्वयं उपभोग किया जाता है। सरकार के अध्ययनों से पता चला है कि ओडिशा में, सीमांत किसान अपने धान का सिर्फ 5 प्रतिशत सरकार को बेच पाते हैं। जबकि बड़े किसान सरकार को 36 प्रतिशत से ज़्यादा बेचते हैं। जाहिर है, एमएसपी का लाभ बड़े किसानों को मिलता है।

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मोटे अनाज (बाजरा, ज्वार, रागी इत्यादि) के मामले में, स्थिति बेहद दयनीय है। 2017-18 में, लगभग 45 मिलियन टन मोटे अनाज का उत्पादन किया गया था, लेकिन सरकार द्वारा केवल 86,000 टन खरीदा गया। कुल उत्पादन का यह 0.2 प्रतिशत है। याद रखें - मोटे अनाज मुख्य रूप से वर्षा वाले इलाकों में छोटे किसानों द्वारा उत्पादित होते हैं। उन्हें सबसे अधिक मूल्य समर्थन की आवश्यकता है और लेकिन उन्हें मिलता सबसे कम हैI

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एमएसपी के लिए वास्तव में पूरे खेती समुदाय को लाभ पहुंचाने के लिए सरकार द्वारा खरीद को ज़बरदस्त बढ़ावा देने की ज़रूरत है। लेकिन मोदी सरकार की ऐसा करने की कोई योजना नहीं है। यहाँ तक कि खरीफ की फसलों के लिए नए एमएसपी की घोषणा की जा रही है, लेकिन उसने खरीद प्रणाली के मामले को स्थगित कर दिया और दावा किया कि यह काम बाद में किया जाएगा।

सरकार का इरादा भंडारण क्षमता से स्पष्ट है। यदि आप अनाज खरीदते हैं, तो आपको उचित कवर स्टोरेज स्पेस की आवश्यकता होगी। भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के आँकड़ों के अनुसार, 36.2 मिलियन टन अनाज के लिए भंडारण क्षमता उपलब्ध है, जिसमें 2.6 मिलियन टन सीएपी (कवर और प्लिंथ) है, जो खुला भंडारण है। लगभग 21 मिलियन टन भंडारण क्षमता का - कुल 60 प्रतिशत है - जिसे निजी पार्टियों से किराए पर ली जाती है, जिसके लिए एफसीआई ने 834 करोड़ रुपये का किराया दिया है। यहाँ तक कि अगर किसी एक मौसम में खाद्यान्न के कुल उत्पादन का आधा हिस्सा किसानों द्वारा सरकार को बेचा जाता है तो गोदामों में अनाज़ बहने लगेग और बहुमूल्य अनाज को सड़ने के लिये छोड़ दिया जाएगा। स्टील सिलो बनाने की योजना, कुछ समय पहले शुरू हुई थी, जिसके परिणामस्वरूप केवल 60,000 टन की क्षमता ही बन पायी।

जाहिर है, एमएसपी अभ्यास एक गड़बड़ है, इस साल की घोषणा चुनाव में राजनीतिक लाभ को नजर रख कर की गयी। सरकार को बहुत अच्छी तरह से पता है कि ज्यादतर किसानों को थोक खरीद द्वारा कवर नहीं किया जा रहा है। दरअसल यह एक डबल धोखाधड़ी है - न ही एमएसपी कुल लागत से 50 प्रतिशत अधिक है, न ही यह किसानों के बहुमत को कवर करने जा रहा है। लेकिन फिर, यह सरकार इस तरह से ही काम करती है।

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