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क्यों भूल जाएँ बाबरी मस्जिद ध्वंस से गुजरात नरसंहार का मंज़र

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की मृत्यू पर स्मृति लेख, आखिर क्यों स्तुति लेख-गुणगान गाथा में तब्दील हो रहे हैंI
Atal Bihari Vajpayee

देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के निधन के बाद शोकसंवेदनाओं का आना, दुख व्यक्त करना, व्यथित होना, obituary लिखना...तो बहुत स्वाभाविक परिघटना है। वह देश के प्रधानमंत्री थे, लंबा संसदीय जीवन जिया, भाजपा को सत्ता में पहुँचाने में उनका करिशमायी योगदान था—सब कुछ स्वीकार, लेकिन क्या उनके राजनीतिक योगदान की आलोचनात्मक विवेचना करना, तथाकथित भारतीय परंपरा  के खिलाफ है। इस आलोचनातमक दृष्टि का अभूतपूर्व अकाल हिंदी–भाषाभाषी पट्टी में दिखायी दे रहा है। प्रगतिशील-मार्क्सवादी लेखक-चिंतक-विचारक उन्हें आजादी के बाद के महानतम नेता बनाने पर तुले हे हैं। आखिर क्यों? अखबारों-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की तो यहाँ बात करना बेमानी है, उस पर चढ़ा भगवा रंग दिनों-दिन पक्का होता जा रहा है। कुछ आलोचनात्मक लेख-टिप्पणियाँ, वेबसाइट्स पर बातें हो रही हैं, लेकिन वे अपवाद स्वरूप ही हैं।

क्या आज पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को याद करते समय बाबरी मस्जिद विध्वंस (1991-92) से गुजरात नरसंहार (2002)  को भूला जा सकता है। आज़ाद भारत के सबसे खौफनाक क्षण, जहाँ मुसलमानों के खिलाफ राज्य के संरक्षण में बर्बरतम हिंसा हुई। 1984 में सिखों के नरसंहार को मात देने की होड़ में पूरा तंत्र-पूरी बेशर्मी के साथ बाबरी मस्जिद के ध्वंस करने वालों के साथ खड़ा दिखाई दिया। क्या पाँच दिसंबर को बाबरी मस्जिद ध्वंस से बस एक दिन पहले दिये गए अटल बिहारी वाजपेयी के भाषण को बिसराया जा सकता है—जिसमें वह खुलेआम कारसेवा के जरिये बाबरी मस्जिद को ध्वस्त करने—नुकीले पत्थरों को हटाने, यज्ञ करने जैसी तमाम बातें बोलते हैं और कारसेवकों का मार्ग प्रशस्त करते हैं। उस भाषण में भी उनके भाषण की कला की खूबी लोगों को दिखायी देनी चाहिए थी!

क्या 2002 में गुजरात में चल रहे नरसंहार पर तत्कालीन प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी की खामोशी को भुलाया जा सकता है? तत्कालीन सांसद एहसान जाफरी को हत्यारी भीड़ ज़िन्दा जला रही थी, देश के प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी 7 रेसकोर्स से यह मंजर देख रहे थे। स्वर्गीय एहसान जाफ़री की पत्नी ज़किया जाफ़री आज भी उस वाकये को पूरे ग़म के साथ बताती है कि कैसे दिल्ली (केंद्र) को इतने फोन करने के बावजूद किसी ने कुछ नहीं किया। नरसंहार होने के बाद में राजधर्म पालन की बात अटल बिहारी वाजपेयी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी से कही (जिसे इस समय तमाम लोग खूब याद करते हुए उनकी महानता के गुण गा रहे हैं) लेकिन उसके जवाब में तत्कालीन नरेंद्र मोदी जो कहते हैं, वह लोग नहीं याद कर रहे, नरेंद्र मोदी ने माइक पर ही कहा था, `वही तो कर रहे हैं’, और इस तरह से पूरे दृश्य का पटाक्षेप होता है।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को भारतीय राजनीतक पटल पर स्वीकार्योक्ति दिलाना जरूर दिवंगत अटल बिहारी वाजपेयी के सबसे बड़े योगदान के रूप में याद किया जाना चाहिए। इसमें कोई संदेह नहीं कि वह राजनीति के मंझे हुये खिलाड़ी थे। भाजपा गठबंधन के साथ सत्ता कैसे हासिल कर सकती है, इसमें जो योगदान अटल बिहारी वाजपेयी ने दिया, वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के इतिहास में उन्हें सबसे बड़े नेता के रूप में प्रतिस्थापित होते हैं। इस लक्ष्य को हासिल करने में अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी तमाम खूबियों का भरपूर इस्तेमाल किया। उन्होंने ऐसे तमाम लोगों को साथ लिया-जो किसी कट्टर राष्ट्रीय स्वयंसेवक के साथ नहीं आते। वैसे, जो लोग संघ की कार्यप्रणाली से वाकिफ हैं, वे जानते हैं कि सामाजिक व्यवहार-भेंट-मुलाकात में संघ के कार्य़कर्ता सबसे मृदु-सबसे हार्दिक-सबसे मिलनसार होते हैं। इसी के जरिये वह अपनी गहरी पैठ बनाते हैं।  पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी संघ इसी परंपरा के ध्वजवाहक रहे। संघ की विचारधारा-हिंदू राष्ट्र के प्रति उसकी प्रतिबद्धता के लिये पूरी तरह से समर्पित। उनके हस्तक्षेप की परिणिति ही 2014 में भाजपा को इतने वोट-इतनी सीटों का मिलना है। एक अहम बात जो हमें ध्यान रखनी चाहिए, जिसपर कई वाम चिंतक जबर्दस्ती का भ्रमित होते दीख रहे हैं, वह है कश्मीर को लेकर उनकी पहल। अगर कश्मीर में भाजपा का दखल इस हद तक बढ़ा कि वह महबूबा मुफ्ती के साथ सरकार बनाने तक पहुंची तो इसमें अटल बिहारी के समय उठाये गये कदमों की जबर्दस्त भूमिका है, इसे नजरंदाज करना बहुत सोची-समझी मासूसियत है। जो लोग अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी की राजनीति में अंतर देख रहे हैं, वे क्या यह भूल गये की दिल्ली की सत्ता संभालने के बाद प्रधानमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान नें नवाज शरीफ से मुलाकात करके, उन्हें जन्मदिन पर बधाई देकर सबको चमत्कृत कर दिया था।

आवरण चढ़ाने के लिए हम सब भारतीय संस्कृति की दुहाई दे रहे हैं। सवाल सीधा सा है क्या obituary  का मतलब स्तुति गान है, critical evaluation  नहीं। यह जो दौर शुरू हुआ, लेख-टिप्पणियों में महानता को नमन करने की जो अश्रुधार बह रही है, वह आने वाले खौफनाक दौर की आहट दे रही है।

ऐसे में सहसा वरिष्ठ कवि अजय सिंह की वर्ष 2002 में लिखी कविता खिलखिल को देखते हुए गुजरात (कविता संग्रह--राष्ट्रपति भवन में सूअर) की कुछ पंक्तियां याद आती हैं---

...टेलीफ़ोन पर दिल्ली से पूछता है

कोई वाजपेयी  कोई आडवाणी

मोदी,

तुम्हें 72 घंटे दिये गये

उन्हें 72 दिनों में बदल दिया गया

अब तक कितने मारे

अरे, बहुत कम   और मारो मारो मारो

जब तक 58 के बदले 5800 न मारे जायें

अपना राजधर्म निभाते रहना प्यारे......

...

आज गुजरात कल समूचा भारत

7 रेसकोर्स रोड से देखता हूँ

अहा यह अति मोहक दृश्य

यही है हमारी नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि

मैं गीत नहीं गाता हूँ

बस कर्म किया करता हूँ

म्लेच्छों की गर्दन काट-काट

भारत को महान बनाता हूँ...

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