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क्यों सबरीमाला पर आए फ़ैसले से केरल की प्रगतिशील धारा पर प्रभाव नहीं पड़ेगा ?

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राज्य के लोकतंत्र के लिए नई चुनौती सामने उभरी है।  
sabrimala

4 नवंबर को आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने सबरीमाला मामले में मूल सवाल का खात्मा नहीं किया है। 5 सदस्यों वाली बेंच के सामने '10 से 50 साल की उम्र के बीच की महिलाओं' के सबरीमाला मंदिर में प्रवेश का मामला था। इनमें दो जजों की राय बहुमत से अलग थी। फ़ैसले से दो विध्वंसक नतीज़े निकल सकते हैं।

'माहवारी की उम्र में' महिलाओं के मंदिर में प्रवेश पर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ भी साफ-साफ नहीं कहा है। दूसरे शब्दों में पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के '28 सितंबर 2018' को दिए फैसले, जिसमें महिलाओं को मंदिर में प्रवेश दिया गया था, उस पर रोक न लगाकर इस मुद्दे पर अलग-अलग राय बनाने की जगह दे दी है। इससे अब कानून-व्यवस्था के ज़्यादा बिगड़ने की संभावना पैदा हो गई है। दूसरी बात, इससे दूसरे धर्मों में भी महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव का सवाल भी प्रभावित हुआ है।

14 नवंबर को आए फैसले से यह सवाल फिर से उभरकर सामने आया है कि क्या मासिक धर्म वाली महिलाएं 16 नवंबर से शुरू होने वाले सबरीमाला दर्शन में हिस्सा ले पाएंगी। इससे केरल में विपक्षी पार्टियों, खासकर बीजेपी दोबारा महिलाओं की एंट्री के खिलाफ हिंसक विरोध शुरू कर सकती है। यह अभियान बीच में अपना प्रभाव खो चुका था।

मीडिया रिपोर्टों में, मंदिर प्रशासन को संभालने वाले 'त्रावणकोर देवस्वॉम बोर्ड' के हवाले से कहा गया है कि 10 से 50 साल की उम्र के बीच की 65 महिलाओं ने इस साल दर्शन के लिए आवेदन किया है। उनकी आसानी से मंदिर में एंट्री भी हो जाती, लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले ने अनिश्चित्ता बढ़ा दी है। दर्शन की शुरूआत के पहले दिन 10 महिलाएं मंदिर में प्रवेश चाहती थीं। लेकिन पुलिस ने उन्हें वापस लौटने के लिए सहमत करवा लिया।
 
बीजेपी के स्टेट जनरल सेक्रेटरी एमटी रमेश ने राज्य की वामपंथी सरकार को चेतावनी दी है कि अगर महिलाओं को मंदिर में प्रवेश के लिए बढ़ावा दिया गया, तो पिछली बार की तरह इस बार भी गंभीर परिणाम होंगे। मुख्यमंत्री पिनराई विजयन ने फ़ैसले पर प्रतिक्रिया में सतर्कता बरतते हुए कहा कि किसी सरकारी निर्णय के पहले कानूनी स्थिति ज़्यादा स्पष्ट किए जाने की जरूरत है। तिरूवनंतपुरम में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में विजयन ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले में कई चीजों की व्याख्या नहीं की गई है। उदाहरण के लिए क्या सात सदस्यों वाली बेंच सबरीमाला मंदिर में महिलाओं की पूजा पर दोबारा विचार करेगी या वो 5 सदस्यों वाली बेंच को मामला वापस भेज देगी। 

केरल सरकार के पास पैसे की बहुत कमी है। मौजूदा सरकार के तीन साल के कार्यकाल में आईं तीन बड़ी प्राकृतिक आपदाओं से हुए सामाजिक और वित्तीय नुकसान से सरकार अभी भी जूझ रही है। ऊपर से केंद्र सरकार भी केरल सरकार को वित्त देने में आनाकानी करती है। इन सब कारणों के बीच अब सरकार के सामने एक बड़ी भीड़ से जूझने की चुनौती है, जिसे आस्था के नाम पर महिलाओं को अधिकारों को वंचित करने के पक्ष में दलील देने वालों ने खड़ा किया है।
धर्म-आस्था बनाम तर्क-न्याय के मुद्दे का आज़ादी से पहले और बाद के भारत में लंबा इतिहास रहा है। इनमें धार्मिक व्यवहार, प्रतिबंध से जुड़े कई फ़ैसले आए हैं। लेकिन इन सबने मिलाकर न्याय व्यवस्था में कई विरोधाभासी व्याख्याएं खड़ी कर दी हैं।  

यह विरोधाभासी कानूनी इतिहास, खासतौर पर सबरीमाला मामले में आए दो फ़ैसलों से यह साफ भी हो जाता है। पहला फैसला सबरीमाला में पूजा को लेकर सितंबर, 2018 में पांच सदस्यों वाली संवैधानिक पीठ का है। इस फ़ैसले में मासिक धर्म के दायरे में आने वाली महिलाओं को मंदिर में प्रवेश दिया गया था। पीठ ने कहा था कि अगर महिलाओं को मंदिर में प्रवेश से रोका जाता है तो संविधान की धारा 14, 25 और 26 का उल्लंघन होता है। 

दूसरा 5 नवंबर को अयोध्या मामले में आया फैसला है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा आस्था और विश्वास पर दिए गए विरोधाभासी फैसले के बाद ऐसा लगता है कि धार्मिक विश्वास, कानून से ऊपर हो चुके हैं। इस तर्क की वकालत करने वालों में एक नया विश्वास आया है, भले ही इसका मतलब सबरीमाला में तय उम्र की महिलाओं को पूजा करने के अधिकार से रोकना हो।

14 नवंबर को आए फैसले में उन 60 याचिकाओं का जिक्र तक नहीं किया गया, जिन्हें सिंतबर, 2018 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर पुनर्विचार के संबंध में लगाया गया था। अपने फैसले के पैराग्राफ नंबर तीन में कोर्ट इस सवाल को पूरी तरह छोड़ देता है और एक नए पहलू की तरफ बढ़ता है, जिसका याचिकाओं में कोई जिक्र ही नहीं था। यहां अतीत में लगाई गई उन याचिकाओं का जिक्र किया जाता है जो किन्हीं दूसरे मामलों में लगाई गईं थीं। इनमें शामिल हैं A) 2019 में लगाई गई रिट पेटिशन नंबर 472, जो दरगाहों और मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश से संबंधित थी B) 2017 की रिट पेटिशन नंबर 286 जो दाउदी बोहरा समुदाय में महिलाओं के खतने से संबंधित थी C) स्पेशल लीव पेटिशन नंबर 18,889 जो 2012 में पारसी महिलाओं के समाज से बाहर शादी करने से संबंधित थी। फैसले में कहा गया कि इन सभी याचिकाओं को एक साथ रखने पर कानून व्यवस्था का एक बड़ा सवाल खड़ा होता है।। ''इसमें धर्म के अधिकार के संवैधानिक पहलुओं की व्याख्या है, इसे पांच नहीं, सात सदस्यों वाली संवैधानिक पीठ द्वारा सुना जाना चाहिए।"

फैसला लिखने और सुनाने वाले, मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने ऐसे सात मुद्दों की पहचान की, जिन पर नई पीठ विचार कर सकती है। इनमें से ''...आर्टिकल 25 और 26 में दिए धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की तीसरे भाग में दिए प्रावधानों, खासकर आर्टिकल 14 के साथ परस्पर क्रिया'' पर सितंबर, 2018 के फैसले में पहले ही निर्णय सुना दिया गया था। इसमें महिलाओं के मंदिर में प्रवेश को रोकने को महिलाओं के आर्टिकल 25 और 26 में निहित धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन माना गया था।

बड़ी पीठ के सामने जो एक और सवाल रखा गया है वो ''संवैधानिक नैतिकता'' को परिभाषित करना। इससे आगे क्या यह संविधान की प्रस्तावना के संदर्भ में व्यापक नैतिकता है या केवल धार्मिक और आस्था तक ही सीमित है। इस मुद्दे को भी सितंबर,2018 के फैसले में साफ कर दिया गया था। उस फैसले के सेक्शन,144(v) में नैतिकता को इस तरह परिभाषित किया गया:

आर्टिकल 25(1) की ''नैतिकता'' को एक व्यक्ति, वर्ग या धार्मिक पंथ की धारणाओं के हिसाब से संकीर्ण अर्थों में नहीं देखा जा सकता। चूंकि इस देश का संविधान लोगों ने खुद को अर्पित किया था, इसलिए आर्टिकल 25 में बताई गई सार्वजनिक नैतिकता को समुचित रूप से संवैधानिक नैतिकता के पर्यायवाची के तौर पर समझा जाना चाहिए। 

जस्टिस गोगोई के फैसले से साफ समझ में आता है कि यह सबरीमाला मामले की न्यायिक अवस्था को शुरू से दोबारा शुरू करवाना चाह रहे हैं।  इसमें कहा गया है, ''ऊपर बताए हुए प्रश्नों पर विमर्श करने के दौरान बड़ी संवैधानिक पीठ हर मुद्दे पर विचार कर सकती है, जिसमें यह भी शामिल है कि क्या 'केरल हिंदू प्लेसेज़ ऑफ पब्लिक वर्शिप रूल्स 1965' के नियम संबंधित मंदिर में प्रवेश पर लागू होते हैं या नहीं?  क्या इस विमर्श पर विचार करने के लिए सभी पक्षों को नए सिरे से मौका दिया जाए या नहीं, इस पर भी विचार किया जा सकता है।''

दूसरे शब्दों में सितंबर 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया था, वह अब सात न्यायाधीशों वाली बेंच द्वारा दोबारा देखे जा सकते हैं। 

अपने कड़ी असहमति जताते हुए जस्टिस आएएफ नरीमन और डी वाय चंद्रचूड़ ने उन पैमानों और न्यायिक प्रतिबंधों को इंगित किया जो किसी कोर्ट के सामने लगाई गई रिव्यू पेटिशन से संबंधित थे। एक रिव्यू पेटिशन केवल इन स्थितियों का प्रबंध करती है, '' अगर याचिकाकर्ता द्वारा कोई नया सबूत या अहम तथ्य खोज लिया गया हो। या फैसले में कोई गलती हो जाए। अगर रिव्यू पेटिशन में पुराने तर्क ही पेश किए गए हों, तो संबंधित मामले में सिर्फ दो मतों के होने के आधार पर यह मान्य नहीं हो सकती।''

असहमति वाले फैसलों में रिव्यू पेटिशन में दिए गए तर्कों को बिंदुवार तरीके से शामिल कर उनका खंडन किया गया है। ज्यादातर का आधार यही है कि याचिकाकर्ता पुराने तर्कों का ही इस्तेमाल कर रहा है।

असहमत फैसले का बड़ा हिस्सा ''कानून का राज'' अवधारणा को परिभाषित करता है। यह एक बेहद जरूरी और अर्थपूर्ण शब्दावली है जिसका ऊचित पालन भारत के हर नागरिक पर लागू होता है। अमेरिका और ब्रिटेन के मुक़दमों से नज़ीर लेते हुए यह हिस्सा गहराई में जाकर इस अवधारणा को बताता है। फैसले में जनप्रतिनिधियों और राज्य को 'कानून का राज' बनाए रखने के लिए कड़ी नसीहत दी गई है। आर्टिकल 144 का जिक्र करते हुए फैसला कहता है, 'भारतीय सीमा में न्यायिक और नागरिक सभी अधिकारी सुप्रीम कोर्ट की मदद करेंगे।'

महिलाओं के मंदिर में प्रवेश को रोकने वाली राजनीतिक ताकतों का जिक्र करते हुए इसमें कहा गया, ''उच्च संवैधानिक मूल्यों से कोई भी भटकाव मंत्री और विधायकों की शपथ के विरोध में जाती है। अगर यह साफ तौर पर समझ लिया जाए तो कानून का राज स्थापित होता है, वहीं सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए आदेशों पर भीड़ द्वारा हो रही हिंसा को वोटों के पीछे भागती राजनीतिक पार्टियां द्वारा बढ़ावा देती हैं या सहन करती हैं, तो यह इसके विरोध में जाता है।''

केरल सरकार ने सितंबर,2018 में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को लागू करने के लिए सबरीमाला मंदिर में पूजा करने की इच्छुक महिलाओं को पूरी सुरक्षा दी। लेकिन हाल के फ़ैसले के बाद उसके हाथ बंध गए हैं। क्या यह समता के लिए महिला अधिकारों को बड़ा धक्का है? हालांकि यह सबरीमाला मंदिर में पूजा करने की इच्छुक महिला श्रद्धालुओं के लिए अहम है, लेकिन सबरीमाला का यह मुद्दा केरल में महिला समता की पहचान का अंतिम पैमाना नहीं है। इस मंदिर में लैंगिक भेदभाव पर पहला प्रहार कानूनी हस्तक्षेप और लोकतांत्रिक जनकार्रवाई के मिले-जुले प्रयास से हुआ है। यह प्रगतिशील सामाजिक सुधारों के इतिहास का एक नया हिस्सा है।

(लेखक पत्रकार हैं और वे पहले द हिंदू से जुड़े रहे हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
 

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