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स्वच्छ भारत से सबक: सच बताना विकास के लिए ज़रूरी

सच बताना तब और ज़्यादा ज़रूरी हो जाता है जब प्रमुख सरकारी योजनाओं की वाहवाही और बड़े-बड़े आयोजन धरातल बिखर जाते हैं।
swachchta abhiyan

बोलने की आज़ादी और निष्कपट आलोचना को आमतौर पर राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों की तरह देखा जाता है। लेकिन विकास के लिए सच्चाई बताना भी ज़रूरी है। सच्चाई के बिना न केवल ख़राब नीतियां क़ायम रहती हैं बल्कि अच्छी नीतियों के परिणाम भी प्रभावित होते हैं।

यह इस तरह है। अगर धरातल पर काम करने वाले लोग कार्यान्वयन की गड़बड़ियों को बताने से डरते हैं यानी जो ग़लत हो रहा है तो बेहतर नीतियों और कार्यक्रमों के मामले में भी सुधार की संभावना कम होती है। यह अंततः आम लोगों को प्रभावित करता है।

सच बताना तब और ज़्यादा ज़रुरी हो जाता है जब प्रमुख सरकारी योजनाओं की वाहवाही और बड़े-बड़े आयोजन धरातल बिखर जाते हैं।

बहुप्रचारित स्वच्छ भारत को ही लें। यह इनके संदेश और ब्रांडिंग में बहुत सफल रहा है। एक प्रमुख कारण यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसके मुख्य प्रचारक रहे हैं और कई मंचों पर इस संदेश को फैलाने वाली एक विशाल समर्पित टीम है।

मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना स्वच्छ भारत के पांचवी वर्षगाठ और महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के मौके पर 2 अक्टूबर को मोदी ने अहमदाबाद में जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा कि “60 महीनों में 600 मिलियन लोगों को शौचालय मुहैया कराई गई है और 110 मिलियन से अधिक शौचालय बनाए गए हैं। यह सुनकर पूरी दुनिया चकित है।" इसी दिन मोदी ने ग्रामीण भारत को खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) घोषित किया था।

यहां ध्यान देने वाली बात है। हालांकि सभी लोग स्वीकार करते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने इस देश में नीति के उच्च स्तर तक शौचालय की चर्चा को बढ़ाने में बड़ी मात्रा में राजनीतिक ऊर्जा लगाया है और हाल के वर्षों में शौचालयों के बड़े पैमाने पर निर्माण से लाखों ग़रीब भारतीयों को लाभ हुआ है तो ऐसे में यह केवल इस कहानी का एक हिस्सा है। बड़े-बड़े दावे और लक्ष्य प्राप्ति की वाहवाही दीर्घकालिक लाभ नहीं देते हैं।

पहला, ग्रामीण भारत पूरी तरह से खुले में शौच मुक्त नहीं है। आपको दिल्ली से बाहर पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में जाना होगा ताकि उन लोगों से मिल सकें जिन्हें अभी तक शौचालय की सब्सिडी नहीं मिली है और जो अभी भी खुले खेतों में जा रहे हैं।

पिछले सप्ताह मुजफ्फरनगर के समासनगर गांव के दौरे के दौरान मेरी मुलाक़ात अधेड़ उम्र की महिला रानी (बदला हुआ नाम) से हुई जो नीले दुपट्टे के साथ लाल रंग का सलवार कुर्ता पहने थी। उसने कहा कि उसने पिछले साल ज़रूरी फॉर्म जमा कर दिया था लेकिन स्वच्छ भारत मिशन के तहत घर में शौचालय निर्माण के लिए 12,000 रुपये मिलना अभी बाकी है।

समासनगर पहुंचने में दिल्ली से बमुश्किल साढ़े चार घंटे का वक़्त लगता है। कई अन्य लोगों की तरह रानी भी शौच के लिए जंगल में जाती हैं। अंधेरा होने पर वह अपने साथ मोबाइल और टॉर्च ले जाती हैं। रानी के पति दिहाड़ी मज़दूर हैं जो काम करने के बाद देर से घर लौटते हैं और उनके पास स्थानीय अधिकारियों से बातचीत के लिए समय नहीं होता है। रानी ने मुझे बताया कि वह अंधेरे से उतना नहीं डरती थी जितना सांप के काटने से।

दलितों की बड़ी आबादी वाले इस गांव में रानी जैसी कई अशिक्षित महिलाएं थीं जिनका सरकारी संस्था से शायद ही कोई संपर्क हो। स्थानीय अधिकारियों का कहना है कि वे ऐसे घरों का सर्वे कर रहे हैं जो शौचालय निर्माण योजना से बाहर हो गए है और इस प्रक्रिया को जल्द ही किया जाएगा। लेकिन कितना जल्दी कोई अनुमान लगाता है।

स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) के तहत निर्मित शौचालयों को प्रतीकात्मक रूप से इज़्ज़त घर कहा गया है। ये उन लाखों महिलाओं को इज़्ज़त दिया जिनके पास पहले खुले में शौच करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था। लेकिन भारत में हर दूसरी कहानी की तरह यह भी ज़मीनी स्तर की चुनौती का सामना करता है। मुज़़फ्फरनगर में मैं ग्रामीण महिलाओं से मिला जिन्होंने कहा कि समाज के हाशिए पर मौजूद वर्ग के लोगों को शौचालय के लिए सब्सिडी मिलना बाकी था। इनमें कई दलित और ग़रीब मुसलमान थे।

दूसरा, यह केवल शौचालय निर्माण को लेकर नहीं है। यह इस बारे में भी है कि यह कैसे और कहां बनाया गया है और इसमें पानी है या नहीं। वर्तमान में केवल 56% ग्रामीण आबादी में सार्वजनिक केंद्रों के माध्यम से पीने योग्य पानी तक पहुंच है और ग्रामीण भारत में केवल 18% घरों में नल का कनेक्शन हैं। यह एक बड़ी चुनौती है।

शौचालय निर्माण में शौचालय प्रौद्योगिकियों और ठोस कचरे के सुरक्षित निपटान पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। अधिकारियों का कहना है कि भविष्य में इन मुद्दों यानी 'ओडीएफ प्लस' पर ध्यान केंद्रित किया जाएगा। लेकिन पहले से निर्मित शौचालयों का क्या होगा? 2017 में वाटर एड नामक एनजीओ ने शौचालयों की स्थिति पर एक सर्वेक्षण किया जिसमें आठ राज्यों के लगभग 1,000 घरों को शामिल किया गया था। क्वालिटी एंड सस्टेनेबिलिटी ऑफ टायलेटः ए रैपिट असेस्टमेंट ऑफ टेक्नॉलोजीज अंडर स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण नाम की रिपोर्ट तैयार की गई। इस रिपोर्ट में निर्माण किए 776 शौचालयों के एक तिहाई शौचालयों का सर्वेक्षण किया गया। इस्तेमाल में होने के बावजूद असुरक्षित थे।

इस रिपोर्ट ने सलाह दिया गया है कि सरकारों को शौचालय निर्माण करते समय पहली तकनीक के विकल्प के रूप में ट्वीन-लीच पिट को बढ़ावा देने पर विचार करने की जरूरत है। लोगों को इस प्रौद्योगिकी विकल्पों के बारे में अधिक जानने की ज़रूरत है। इसी वक़्त उन्हें अन्य प्रौद्योगिकी विकल्पों और संदर्भ के लिए उसकी तुलनात्मक उपयुक्तता के बारे में जानकारी और प्रशिक्षण प्रदान करने की आवश्यकता है।

राजमिस्त्री के ज्ञान के स्तर पर भी एक समस्या थी। रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है, 'अब तक राजमिस्त्री शौचालय प्रौद्योगिकियों के ज्ञान के मिश्रित स्तर का इस्तेमाल करते हैं। उदाहरण के लिए 52 राजमिस्त्री का साक्षात्कार किया गया जिसमें से 40% ने लीच पीट का निर्माण करते समय वेंट पाइप के इस्तेमाल को बताया और 42% उच्च जल स्तर वाले क्षेत्रों के लिए आवश्यक प्रौद्योगिकियों से अनजान थे। यह अपर्याप्त प्रशिक्षण से संबंधित हो सकता है: केवल 62% ने इस तरह के शौचालय प्रौद्योगिकियों का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। इनमें से लगभग सभी (91%) ने ट्वीन-लीच पीट के बारे में सीखा है, इनमें से आधे से अधिक (59%) ने सिंगल-लीच पीट और एक चौथाई ने (25%) सेप्टिक टैंक के बारे में सीखा है।'

यह भी कहा गया कि शौचालय प्रौद्योगिकी के बारे में जानकारी उन लोगों तक नहीं पहुंचती है जिन्हें इसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है क्योंकि बहुत से असुरक्षित घरों में जहां शौचालय का निर्माण किया जा रहा है उन्हें कोई सूचना नहीं मिली है।

एक साइज सबके लिए फ़िट नहीं होता है। यह शौचालय के लिए भी सच है। शौचालय तकनीकें हैं जिसे विशिष्ट स्थलाकृतियों में बदला जा सकता है। उदाहरण के लिए 'इकोसैन' शौचालय, एसबीएम के दिशानिर्देशों में सूचीबद्ध हैं। ये एक उभरे हुए स्थान पर बने शुष्क शौचालय हैं और ये पानी की कम आपूर्ति वाले सूखे क्षेत्र के साथ तटीय और उच्च जल स्तर वाले बाढ़-ग्रस्त क्षेत्र और साथ ही चट्टानी क्षेत्र के लिए भी उपयुक्त है।

उदाहरण के लिए 'इकोसैन’ शौचालय उच्च जल स्तर वाले बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों और चट्टानी क्षेत्रों के लिए एसबीएम के दिशानिर्देशों में सूचीबद्ध हैं। इकोसन एक सूखा शौचालय है जो उभरे हुए स्थल पर बनता है।

राजस्थान के उदयपुर और राजसमंद ज़िलों में काम करने वाली एक एनजीओ सेवा मंदिर ने इस मॉडल को अपनाया है क्योंकि यह कम पानी की उपलब्धता के साथ अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में काम करता है। लेकिन एक इकोसैन टॉयलेट की लागत 20,000 रुपये से 30,000 रुपये के बीच होती है जो स्थान, परिवहन की लागत और आवश्यक परिवर्तन पर निर्भर करता है। इसे देखते हुए शौचालय बनाने के लिए दी जाने वाली सब्सिडी में और अधिक लचीलापन होना चाहिए और स्वच्छता के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए शौचालय प्रौद्योगिकी विकल्पों के बारे में अधिक से अधिक जागरूकता होनी चाहिए।

तीसरा, यह पता लगाना बेहद महत्वपूर्ण है कि स्वास्थ्य, हाइजीन, स्वच्छता और शौचालय निर्माण में काफी अंतर है। शौचालय निर्माण महज एक पहला कदम है। मोदी सरकार ने शौचालय निर्माण और शौचालय पर चर्चा को काफी ज़ोर दिया लेकिन यह कोई पहली सरकार नहीं है जिसने स्वच्छता को बढ़ावा दिया है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने निर्मल ग्राम पुरस्कार (एनजीपी) लाई जो पंचायतों के लिए एक लक्ष्य- आधारित कार्यक्रम था। वास्तव में, पिछले कुछ दशकों में स्वच्छता की सुविधा की पहुंच के साथ घरों की प्रतिशतता में भारत में तेजी से वृद्धि हुई है।

लेकिन पहले के कार्यक्रमों की एक खास सीमा यह भी थी कि स्वच्छता कवरेज के डेटा में केवल उन घरों की संख्या होती है जिनमें शौचालय हैं। यह शौचालय या इसके इस्तेमाल की वर्तमान स्थिति पर ध्यान नहीं देता था। हमारे पास अभी भी सार्वजनिक डोमेन में व्यक्तिगत शौचालय इस्तेमाल को लेकर अलग-अलग डेटा नहीं है। जहां तक भारत की बात है घर में शौचालय होने का मतलब यह नहीं है कि हर कोई इसका इस्तेमाल कर रहा है।

यह याद रखना ज़रूरी है कि सुरक्षित स्वच्छता तभी सार्थक और प्रभावी होती है जब पूरा समाज इसे अपनाता है। अगर कुछ लोग खुले में शौच करते हैं तो सभी बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं। और यह सिर्फ शौचालय का इस्तेमाल करने के साथ समाप्त नहीं होता है।

संवेदनशीलता और जागरूकता बढ़ाने व बेहतर स्वच्छता के लाभों के महत्व में खुले में शौच मुक्त, हाथ धोने के साथ-साथ ठोस और गीले कचरे का सुरक्षित निपटान जैसे महत्वपूर्ण स्वच्छता कार्य शामिल हैं। लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि ख़राब स्वच्छता ज़िंदगी ले सकती है जो कि यह बच्चों, लड़कियों और महिलाओं को सबसे ज़्यादा प्रभावित करती है।

मोदी सरकार की योजनाओं को अगर अच्छी तरह से लागू किए जाते हैं तो वास्तव में स्वास्थ्य और स्वच्छता के क्षेत्रों में महत्वपूर्ण बदलाव की शुरुआत कर सकते हैं। लेकिन धरातल पर चुनौतियों के इर्द-गिर्द शोर को दबाना योजना के विपरीत है।

पत्रलेखा चटर्जी दिल्ली की एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Lessons from Swachh Bharat: Truth-telling is Vital for Development

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