कन्नड़ को लेकर कर्नाटक सरकार का अध्यादेश और उत्तर-दक्षिण भाषा विवाद पर एक नज़र!
केंद्र सरकार यह सुनिश्चित करने की पूरी कोशिश कर रही है कि हिंदी भारत के हर कोने में पहुंच जाए, लेकिन विशेष रूप से दक्षिणी राज्यों से इसका विरोध हो रहा है, जैसा कि हाल ही में आए कन्नड़ भाषा व्यापक विकास (संशोधन) अध्यादेश से पता चलता है।
—
5 जनवरी को, कर्नाटक मंत्रीमंडल ने कन्नड़ भाषा व्यापक विकास (संशोधन) अध्यादेश को मंजूरी दे दी, जिसमें कहा गया कि राज्य के सभी साइनबोर्ड में 60 प्रतिशत कन्नड़ भाषा का इस्तेमाल होना चाहिए।
नए नियम के मुताबिक राज्य में दुकानों, उद्यमों और संस्थानों के साइनबोर्ड के लिए कन्नड भाषा का इस्तेमाल अनिवार्य होगा।
यह अध्यादेश कन्नड़ समर्थक समूह, कर्नाटक रक्षणा वेदिके के विरोध के परिणामस्वरूप आया है। विरोध प्रदर्शन के चलते उन संपत्तियों और साइनबोर्डों के साथ तोड़फोड़ की गई, जिनमें अधिकांश टेक्स्ट कन्नड़ के अलावा अन्य भाषाओं में थे।
चूंकि राज्य विधानसभा का सत्र नहीं चल रहा है, इसलिए मंत्रीमंडल ने कन्नड़ भाषा की अनिवार्यता को तत्काल प्रभाव से लागू करने के लिए एक अध्यादेश लेकर आई है।
लेकिन दुकानों और प्रतिष्ठानों को नए नियमों का पालन करने का समय देते हुए अध्यादेश को 28 फरवरी से लागू किया जाएगा।
क्या है नियम?
कन्नड़ भाषा व्यापक विकास अधिनियम, 2022 के 'उद्देश्यों और कारणों के विवरण' के अनुसार, कर्नाटक की आधिकारिक भाषा यानी कन्नड़ के उचित कार्यान्वयन की कमी है।
यह अधिनियम कार्यालयों, उद्योगों, दुकानों और प्रतिष्ठानों में कन्नड़ भाषा के "व्यापक इस्तेमाल और प्रचार" की जरूरत पर जोर देता है।
भाषा के ऐसे व्यापक इस्तेमाल और प्रसार को सुनिश्चित करने के सामान्य उपायों के मद्देनज़र, अधिनियम की धारा 17(6) में कहा गया है कि बोर्ड के ऊपरी आधे हिस्से में वाणिज्यिक, औद्योगिक और व्यावसायिक उपक्रमों, ट्रस्टों, परामर्श केंद्रों, अस्पतालों, प्रयोगशालाओं, मनोरंजन केंद्र और होटल और अन्य प्रतिष्ठान जो सरकार या स्थानीय अधिकारियों की मंजूरी के साथ काम करते हैं, वे कन्नड़ में होने चाहिए और निचला आधा से कम हिस्सा किसी अन्य भाषा में हो सकता है।
संशोधन में, साइनबोर्ड में कन्नड़ का अन्य भाषाओं का अनुपात 60:40 होना अनिवार्य है।
अधिनियम की धारा 23 किसी भी उद्योग, दुकान, फर्म और वाणिज्यिक प्रतिष्ठान के मालिक या प्रभारी व्यक्ति पर जुर्माना लगाने का प्रावधान करती है जो अधिनियम के प्रावधानों का पालन करने में विफल रहता है।
बेंगलुरु स्थित मानवाधिकार कार्यकर्ता विनय श्रीनिवास ने द लीफलेट को बताया कि, “भाषा हमारी पहचान का हिस्सा है और हमारे लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। [ब्रुहत बेंगलुरु महानगर पालिका] बीबीएमपी का नियम है कि 60 प्रतिशत साइनेज कन्नड़ में होना चाहिए, जो अन्य भाषाओं से अपरिचित स्थानीय कामकाजी वर्ग की आबादी को लाभान्वित करने के लिए आवश्यक है।
नए साइनेज नियम का व्यवहारिक पक्ष, ऑल इंडिया लॉयर्स एसोसिएशन फॉर जस्टिस के राष्ट्रीय संयोजक क्लिफ्टन डी'रोज़ारियो ने साझा किया और कहा कि, “यदि आपके पास ऐसे बहुसंख्यक लोग हैं जो एक खास भाषा बोलते हैं और यदि आप सार्वजनिक स्थानों पर इसे नष्ट कर रहे हैं, तो इससे कुछ असंतोष पैदा होना तय है।”
हालांकि, श्रीनिवास और डी'रोज़ारियो दोनों ने अध्यादेश पारित होने से पहले हुई हिंसा की निंदा की है।
डी'रोज़ारियो ने इस बात पर जोर देने की कोशिश की कि इसमें अन्य गहरे और अंतर्निहित मुद्दे जुड़े हुए हैं - जैसे कि सरकार की निजीकरण नीतियां और कार्यबल का केजुयालाइजेशन - जिन्हें राज्य सरकार द्वारा संबोधित करने की जरूरत है।
हिंदी भाषा को थोपना?
डी'रोज़ारियो ने कहा कि केंद्र सरकार हिंदी थोपने और एकात्मक राज्य पर जोर दे रही है। उनके मुताबिक, "केंद्र सरकार द्वारा थोपी गई भाषा संविधान के संघीय ढांचे के खिलाफ है।"
डी'रोज़ारियो ने अपने कथन को स्पष्ट करते हुए बताया कि जब केंद्र सरकार ने पिछले साल अगस्त में तीन नए आपराधिक कानून विधेयक पेश किए थे, तो विधेयकों का शीर्षक हिंदी में चुनने के खिलाफ दक्षिणी राज्यों में कई संगठनों ने निंदा की थी। तर्क यह था कि दक्षिणी राज्यों में अधिकांश लोग शीर्षकों का उच्चारण नहीं कर पाएंगे उनका अर्थ नहीं समझ सकते हैं।
11 अगस्त, 2023 को केंद्र सरकार ने देश की आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार लाने के मक़सद से तीन नए विधेयक संसद में पेश किए थे। ये तीन विधेयक: भारतीय न्याय संहिता विधेयक, 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता विधेयक, 2023, और भारतीय दंड संहिता, 1860, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 और भारतीय दंड संहिता, 1973 को बदलकर भारतीय साक्ष्य विधेयक, 2023 और साक्ष्य अधिनियम, 1872 लाए गए थे।
डी'रोज़ारियो ने बताया कि केंद्र सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी भाषा को थोपने का एक ओर प्रयास और उदाहरण है।
त्रि-भाषा फॉर्मूले पर आधारित 2019 के एनईपी के मसौदे ने गैर-हिंदी भाषी राज्यों में कक्षा 8 तक के स्कूलों में हिंदी भाषा का अध्ययन अनिवार्य कर दिया था। तमिलनाडु के प्रमुख और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों, अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (एआईएडीएमके) और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) के विरोध के बाद, एनईपी मसौदे को संशोधित किया गया, जिससे छात्रों को हिंदी के बजाय अपनी तीसरी भाषा के रूप में किसी अन्य भाषा को चुनने की अनुमति दी थी।
डी'रोज़ारियो के अनुसार, कानूनों के नामकरण से लेकर राष्ट्रीय शिक्षा नीति तक, केंद्र सरकार "हिंदी का आधिपत्य सुनिश्चित कर रही है", जो "एक ऐसी विचारधारा का प्रतीक है जो देश के भीतर विविधता के खिलाफ है"।
डी'रोज़ारियो ने बताया कि राज्यों के पुनर्गठन (राज्य पुनर्गठन अधिनियम, 1956) के माध्यम से, भारतीय राज्यों की सीमाएँ भाषाई रूप से खींची गईं थीं। उन्होंने कहा कि, "यह कहने में बहुत देर हो चुकी है कि भाषा के प्रति पूरे देश में एक समान मानसिकता अपनाई जानी चाहिए।"
पिछले साल अक्टूबर में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने आधिकारिक भाषाओं पर संसदीय समिति की रिपोर्ट की आलोचना की थी।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की अध्यक्षता वाली समिति ने कथित तौर पर सिफारिश की है कि हिंदी को पूरे भारत में आम भाषा बनाया जाए। इसने सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षा के माध्यम के रूप में हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी को शामिल करने की भी सिफारिश की है।
रिपोर्ट के जवाब में, स्टालिन ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार संविधान की अवहेलना करते हुए "हिंदी थोप रही है", जो आठवीं अनुसूची के तहत 22 भाषाओं को मान्यता देता है।
पिछले साल सितंबर में, शाह ने टिप्पणी की थी कि, "हिंदी दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में भाषाओं की विविधता को एकजुट करती है।"
जवाब में, अन्नाद्रमुक ने चेतावनी दी थी कि यदि केंद्र सरकार एकतरफा हिंदी थोपती है, तो न केवल तमिलनाडु में बल्कि बंगाल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में भी प्रतिकूल प्रतिक्रिया होगी।
फिल्म उद्योग में भी भाषा युद्ध तब छिड़ गया था जब पिछले साल अप्रैल में, अभिनेता अजय देवगन ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ट्विटर (अब एक्स) पर हिंदी में पोस्ट किया कि, "हिंदी हमारी मातृभाषा और राष्ट्रीय भाषा है और हमेशा रहेगी।"
इस पर कन्नड़ फिल्म स्टार किच्चा सुदीप की प्रतिक्रिया आई, जिन्होंने मंच पर अपनी पोस्ट में स्पष्ट किया कि हिंदी राष्ट्रीय भाषा नहीं है। सुदीप ने यह भी टिप्पणी की कि उन्हें देवगन की हिंदी में पोस्ट समझ में आई, क्योंकि हिंदी को व्यापक रूप से "सम्मानित, पसंद किया जाता है और सीखा जाता है"।
सुदीप ने कहा कि, बुरा न मानो सर, लेकिन सोच रहा था कि अगर मेरा जवाब कन्नड़ में टाइप किया गया तो क्या स्थिति होती। क्या हम भी भारत के नहीं हैं सर।”
क्षेत्रीय भाषाओं को प्रधानता
दिल्ली स्थित एक वकील मयूरा प्रियन ने द लीफलेट के साथ 1937 से पूरे देश में हिंदी भाषा को "थोपने" के खिलाफ तमिलनाडु के प्रतिरोध को साझा किया।
प्रियन ने बताया कि केंद्र सरकार की त्रिभाषा नीति, जहां हिंदी को अनिवार्य भाषा बनाया गया था, के खिलाफ तमिलनाडु में दो आंदोलन हुए थे।
दूसरे हिंदी विरोधी आंदोलन के दौरान, डीएमके के नेतृत्व में तमिलनाडु ने दो-भाषा नीति बनाई और केंद्र सरकार द्वारा राज्य में तीसरी भाषा लागू करने के फैसले को खत्म कर दिया था।
डी'रोज़ारियो ने कहा कि, "देश में विविधता को देखते हुए, राज्य भाषाओं का सम्मान करना महत्वपूर्ण है।"
वर्तमान घटनाओं के संदर्भ में, कर्नाटक में साइनेज नियम के अलावा, पिछले साल 13 जनवरी को तमिलनाडु ने राज्य सरकार की सेवाओं में तमिल भाषा को अनिवार्य कर दिया था।
राज्य विधानसभा ने तमिलनाडु सरकारी सेवक (सेवा की शर्तें) अधिनियम, 2016 में संशोधन किया, जिससे सरकारी सेवाओं में भर्ती के लिए तमिल भाषा के पेपर में उत्तीर्ण ग्रेड हासिल करना अनिवार्य हो गया था।
पिछले साल मार्च में, तमिलनाडु में निजी स्कूलों के निदेशक ने निजी स्कूलों में कक्षा 9 और 10 के छात्रों के लिए तमिल भाषा अनिवार्य कर दी थी।
एकीकृत भाषा पर विवाद
अप्रैल 2022 में संसदीय राजभाषा समिति की एक बैठक के दौरान, रिपोर्ट में शाह ने टिप्पणी की थी कि, “प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फैसला किया है कि सरकार चलाने का माध्यम या आधिकारिक भाषा हिंदी होगी, और इससे निश्चित रूप से हिंदी का महत्व बढ़ेगा।”
“अब समय आ गया है कि राजभाषा को देश की एकता का अहम हिस्सा बनाया जाए। जब अन्य भाषाएँ बोलने वाले राज्यों के नागरिक एक-दूसरे से संवाद करते हैं, तो यह भारत की भाषा में होना चाहिए।”
इसके साथ ही शाह ने कहा कि कैबिनेट का 70 फीसदी एजेंडा अब हिंदी में तैयार होता है। उन्होंने संकेत दिया कि हिंदी को अंग्रेजी के विकल्प के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
प्रियन के अनुसार, दो-भाषा नीति पर डीएमएक का तर्क दोहरा था। सबसे पहले, उन्होंने दक्षिणी और उत्तरी राज्यों के बीच समानता के पहलू पर जोर दिया था।
प्रियन ने बताया कि उत्तरी राज्यों के विपरीत, गैर-हिंदी भाषी राज्यों में हिंदी एक विदेशी भाषा है।
प्रियन ने कहा कि, इसलिए, यदि त्रि-भाषा नीति लागू की जाती है, तो उत्तरी राज्यों को एक नई भाषा सीखने में अतिरिक्त प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होगी।
दूसरे, प्रियन ने कहा कि भले ही दक्षिणी राज्य एक नई भाषा सीखने में अतिरिक्त प्रयास करें, डीएमके ने तर्क दिया कि इससे कोई उद्देश्य पूरा नहीं होगा और दो भाषाओं का ज्ञान ही पर्याप्त है।
प्रियन ने आगे टिप्पणी की कि चूंकि अंग्रेजी वह भाषा है जो भारतीयों को दुनिया के अन्य हिस्सों से जोड़ती है, तो देश के भीतर लोग एक-दूसरे के साथ अंग्रेजी में बातचीत क्यों नहीं कर सकते - उन्हें दूसरी भाषा सीखने की आवश्यकता क्यों है?
तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री सी.एन. अन्नादुरई ने कहा था कि, ''चूंकि भारत में हर स्कूल अंग्रेजी पढ़ाता है, तो यह हमारी संपर्क भाषा क्यों नहीं हो सकती? तमिलों को दुनिया के साथ बातचीत के लिए अंग्रेजी और भारत के भीतर बातचीत के लिए हिंदी क्यों सीखनी पड़ती है?”
प्रियन ने बताया कि, "दक्षिणी राज्यों में भावना हिंदी भाषा के खिलाफ नहीं बल्कि इसे थोपे जाने के खिलाफ है।"
प्रियन ने कहा कि कर्नाटक और अन्य दक्षिणी राज्य अब तमिलनाडु के नक्शेकदम पर चल रहे हैं, जहां 'क्षेत्रीय भाषा' तमिल अपनी दो-भाषा नीति के कारण फल-फूल रही है।
अंग्रेजी भाषा की सुविधा के बारे में बताते हुए, डी'रोज़ारियो ने इस बात पर प्रकाश डाला कि अंग्रेजी, जिसे संविधान द्वारा अनुमोदित किया गया है, का इस्तेमाल अदालती कार्यवाही सहित विभिन्न आधिकारिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है।
सारा थानावाला द लीफ़लेट में एक स्टाफ लेखिका हैं
सौजन्य: द लीफ़लेट
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।