“मैं नफ़रत के ख़िलाफ़ लड़ने वाले हर व्यक्ति से नफ़रत करता हूं”
जब से मैं राइट विंग का सपोर्टर बना हूँ तब से मुझे लोगों से प्यार ही प्यार हो रहा है। पहले मोदी जी को चाहने लगा और फिर प्रज्ञा ठाकुर, नाथूराम गोडसे, पूजा शगुन पांडेय, और न जाने किन किन का फैन हो गया हूँ। लेकिन तब से मुझे कुछ लोगों से नफ़रत भी हो गई है। मुझे कमल हासन से भी नफ़रत हो गई है। अब कमल हासन कहते हैं, "गोडसे स्वतंत्र भारत के पहले आतंकवादी थे"। अरे भाई, आपका नाम भी कमल और गोडसे की सोच वाले, विश्व के सबसे बड़े राजनैतिक दल का चुनाव चिह्न भी कमल। कमल हासन जी, आप तो भाजपा की, आरएसएस की सोच का ही विरोध करने लगे। आप तो हिंदू हैं और उस पर भी सवर्ण, आपको गोडसे से क्यों घृणा है। वह भी तो हिन्दू था, सवर्ण ब्राह्मण और साथ ही हिंदू राष्ट्र भी बनाना चाहता था। पर मैं कमल हासन को समझ सकता हूँ, उनकी घृणा का कारण जान सकता हूँ। मैंने कमल हासन की फिल्म "हे राम" देखी है। भले ही फिल्म में ही सही, कमल हासन गोडसे से पहले स्वयं ही गांधी को मार डालना चाहते थे। लेकिन क्योंकि गोडसे ने पहले मार दिया तो उससे घृणा करने लगे, उसे आतंकवादी बताने लगे। अरे कमल हासन शर्म करो। गोडसे से माफी मांगो। नहीं तो व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी तुम्हें कमल हासन से कमाल हसन बना देगी। अंग्रेजी भाषा में, रोमन लिपि में कमल हासन और कमाल हसन की एक ही स्पैलिंग होती है।
ऐसा नहीं है कि मुझे सिर्फ कमल हासन से ही नफ़रत हुई है। मुझे उन सारे लोगों से नफ़रत हो गई है जो यह कहते हैं कि इस सरकार के शासन काल में देश में नफ़रत फैलाई जा रही है। जो यह कहते हैं कि गाय के नाम पर, जय श्री राम के नारे पर मॉब लिंचिंग हो रही है। जो यह कहते हैं कि औरतों के खिलाफ अपराध बढ़ गये हैं। उन चालीस-पैंतालीस कलाकारों से मुझे सख्त नफ़रत है जो इस बारे में प्रधानमंत्री जी को चिट्ठी लिखते हैं। क्या उन्हें पता नहीं है कि देश का नाम विभिन्न कौमों के बीच नफ़रत फैलाने से बदनाम नहीं होता है। देश का नाम मॉब लिंचिंग से बदनाम नहीं होता है। देश का नाम महिलाओं पर बलात्कार से बदनाम नहीं होता है। देश का नाम उन लोगों के द्वारा चिट्ठी लिखने से बदनाम हुआ है। इसलिए मैं उन चालीस-पैंतालीस कलाकारों, लेखकों से, जिन्होंने प्रधानमंत्री जी को चिट्ठी लिखी, नफ़रत करता हूँ। उन्होंने देश का नाम बदनाम किया है, वे नफ़रत के ही काबिल हैं।
नफ़रत तो मुझे 2016 में पुरस्कारों को वापस करने वाले गैंग से भी हुई थी। उन लेखकों-कलाकारों ने क्या यह सोचा था कि सरकार उनके सामने झुक जायेगी। वे पुरस्कार वापस करेंगे और सरकार अखलाक को, पहलू खान को न्याय दिला देगी। ये सरकार अब तो तब से भी अधिक ताकतवर हो चुकी है। ये सरकार, कितनी भी भीड़ हत्यायें हो जायें, कितने भी बलात्कार हो जायें, नहीं झुकेगी। कभी नहीं झुकेगी। और बिल्कुल नहीं झुकेगी। और वैसे भी ये जो पुरस्कार वापस किये जा रहे थे उन लोगों द्वारा, पिछली सरकार ने दिये थे। अब पिछली सरकार के द्वारा दिये गये पुरस्कार वापस करोगे तो यह सरकार क्यों झुकेगी। वैसे भी यह सरकार निश्चय कर चुकी है कि पुरस्कार ऐसे लोगों को ही दिये जायें जो पुरस्कार वापसी न करें, भले ही देश में कुछ भी हो जाये। जमीर वाले लोग या तो अपना जमीर रख लें या पुरस्कार रख लें।
नफ़रत तो मुझे खान कलाकारों से भी हो गई है। कभी मैं शाहरुख खान की फिल्में बडे़ शौक से देखता था। "बाजीगर" और "डर" से लेकर 'कुछ कुछ होता है" और "माई नेम इज खान" तक। बीच में 'चक दे इंडिया" भी पसंद आई। शाहरुख से मन हटा तो आमिर पर आ गया। "लगान' से लेकर "तारे जमीन पर" और "दंगल' तक। और सलमान तो सदाबहार हैं ही। उधर नसीर की अदाकारी का तो जवाब ही नहीं है। पर आप प्रसिद्ध क्या हो गये, सफलता आपके सिर पर चढ़कर बोलने लगी। कभी बच्चों का बहाना बनाकर तो कभी पत्नी को ढाल बनाकर देश की असहिष्णुता पर बात करने लगे। अरे भाई, देश पसंद नहीं है तो पाकिस्तान चले जाओ।
लगता है कि इन सबसे नफ़रत करते करते मुझे सबसे ज्यादा नफ़रत मोहनदास करमचंद गांधी नाम के आदमी से हो गई है। मैं उस आदमी से नफ़रत करने लगा हूँ, जो आदमी दक्षिण अफ्रीका में भी और वहां से लौट कर भारत में भी नफ़रत के खिलाफ लड़ता रहा। मैं उस आदमी से नफ़रत करने लगा हूँ, जिस आदमी की नफ़रत के खिलाफ लड़ाई 1947 में भी, जब नफ़रत अपने चरम पर थी, जारी रही। मुझे अफसोस है कि मैं अब उस आदमी से नफ़रत करने लगा हूँ, जिसकी हत्या नफ़रत के खिलाफ जंग लडने के कारण ही की गई। क्योंकि आप आरएसएस के हों, भाजपाई हों और इस आदमी से नफ़रत न करें, ऐसा हो ही नहीं सकता है।
(लेखक पेशे से चिकित्सक हैं।)
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