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मई दिवस एक ज़िन्दा विचार का नाम है

एक ऐसा अंतर्राष्ट्रीय पर्व जिसे सब धर्मों-पन्थों-ईश्वरीय और अनीश्वरीय आस्थाओं, मतों को मानने वाले एक साथ मनाते हैं। यह न तो आसमान से उतरा है, न किसी आभासीय अस्तित्वहीन मिथक से सृजित हुआ है। देखीभाली दुनिया के जीते-जागते इंसानों की जद्दोजहद और कुर्बानी का प्रतीक है।
सांकेतिक तस्वीर
Image Courtesy: athensforeveryone.com

भारत से कुछ घण्टे पहले पृथ्वी के सबसे पूर्वी कोने के न्यूजीलैंड के छोटे से टापू चैथम और उससे भी दो घण्टे पहले प्रशांत महासागर के कीर्तिमती द्वीप पर सूरज की किरणों के आगमन के साथ नयी तारीख का आगाज हो गया। 

नयी तारीख मतलब 1 मई।  एक मई मतलब दुनिया की ऐसी अकेली तिथि/दिनांक/डेट जो पूरी दुनिया को जोड़ती है। जो सारे राष्ट्रों, देशों और उनकी राष्ट्रीयताओं के ऊपर जाकर उन्हें एक साझी दुनिया के रूप में एकाकार करती है।
यह दिन -मई दिवस- का दिन है। 
मज़दूरों के अंतर्राष्ट्रीय त्योहार का दिन। एक ऐसा अंतर्राष्ट्रीय पर्व जिसे सब धर्मों-पन्थों-ईश्वरीय और अनीश्वरीय आस्थाओं, मतों को मानने वाले एक साथ मनाते हैं। एक दिन -दुनिया का इकलौता दिन- जिस दिन दुनिया में बोली जाने वाली हर भाषा-बोली में एक से नारे गूंजते, एक ही तरह के संकल्प दोहराये जाते हैं। अपने और पूरी दुनिया के साझे दुश्मन के खिलाफ एक सुर-तान के साथ उठती हैं आवाजें, तन कर हवा को चीरती उठती हैं हर रंग-जाति-नस्ल की जिद्दी मुट्ठियाँ ।

इस मायने में भी अनूठा है विश्व मानवता का यह त्योहार कि यह न तो आसमान से उतरा है न किसी आभासीय अस्तित्वहीन मिथक से सृजित हुआ है। देखीभाली दुनिया के जीते-जागते इंसानों की जद्दोजहद और कुर्बानी का प्रतीक है : श्रम और सर्जना इसका डीएनए है और खुद के रक्त में भिगोकर लाल किया झण्डा इसका प्रतीक चिह्न है।

महज 133 साल में मई दिवस का यह दर्जा हासिल कर लेना मानव इतिहास की अनोखी मिसाल है। कोई भी दिन, विशेषकर मजदूरों से जुड़ा दिन सहजता में इतना लोकप्रिय नहीं होता। सच कितना भी खुल्लम खुल्ला और स्थापित क्यों न हो, वह अपने आप लोगों के बीच नहीं पहुंचता। खासतौर से तब जब सत्ता प्रतिष्ठान के सारे अंग- पुलिस, न्याय पालिका और अखबार पूंजी के स्वामित्व के चाकरों की तरह काम कर रहे हों। अंतत: वहीं विचार जिंदा रहते हैं जिनके लिए लोग मरने को तैयार हों। 
मई दिवस इसी ज़िन्दा विचार का नाम है।

मई दिवस का आगाज 1 मई 1886 को हे मार्किट चौराहे शिकागो  पर इकट्ठा हुये मजदूरों से हुआ ।
वे कई दिनों से लड़ रहे थे; ब्रेड, सॉसेज, कपड़ा और न जाने किस किस तरह की फैक्ट्रियों के मजदूर थे वे।  सूरज उगने से पहले काम के लिए निकलते थे- डूबने के काफी देर बाद घर वापस लौटते थे। अपने बच्चों की उम्र बढ़ने का अंदाजा वे नाप से ही निकालते थे क्यूंकि उन्हें सोता हुआ छोड़ कर जाते थे- उनके सो जाने के बाद लौट पाते थे। 
उनकी मांग थी कि काम के घंटे 12-14 नहीं, आठ होने चाहिए। उनका नारा था आठ घंटे काम, आठ घंटे जीवन और बाकी मनोरंजन, आठ घंटे आराम। 
जब मालिकों ने नहीं सुनी तो इसी मांग को लेकर पहली मई को उन्होंने हड़ताल करके शिकागो के हे मार्किट चौराहे पर बड़ी सी सभा की।  सभा अच्छी खासी चल रही थे कि अचानक उसमें मालिकों के भेजे गुर्गों ने उत्पात मचाना शुरू कर दिया।  उन्हीं में से किसी ने भीड़ पर एक बम फेंका - पुलिस ने गोलीबारी शुरू कर दी जिसमे कई लोगों की मौत हो गयी।  

इसी हादसे में मारे गए एक मज़दूर की खून में भीगी कमीज को झंडे की तरह लहरा कर शिकागो के मजदूरों ने दुनिया के अपने भाई-बहिनो को उनके संघर्ष का झंडा -लाल झंडा- थमा दिया। 
इस दमन के खिलाफ  1886  की चार मई को रात 8:30 बजे शिकागो के हेमार्केट पर फिर मजदूर रैली हुई।  एक ट्रक के ऊपर खड़े होकर करीब 2500 लोगों की भीड़ को संबोधित करते हुए एक स्थानीय अखबार के संपादक आगस्त स्पाइज ने एक और तीन मई को हड़ताली  मजदूरों पर चलाई गोली का विरोध किया। उनके बाद मजदूर नेता अल्बर्ट पार्सन्स बोले। आखिर में एक मेथोडिस्ट उपदेशक सैमुअल फील्डेन ने भाषण दिया। 

रात के करीब 10:30 बजने को थे, फील्डेन का भाषण खत्म होने को ही था, सभा में मुश्किल से कुल जमा 200 लोग ही बचे थे। तभी अचानक 178 हथियार बंद पुलिस वालों ने इस मासूम सी भीड़ पर हमला बोल दिया। इस बीच किसी ने डायनामाइट बम फेंक दिया। बाद में पता चला कि कारखाना मालिको के किसी गुर्गे ने यह हरकत की थी। बम पुलिस के बीचों बीच गिरा। बदहवास पुलिस बल ने अंधाधुंध गोली चलाकर न सिर्फ चार मजदूरों को मार डाला बल्कि खुद अपने छह पुलिस वालों की जान ले ली।

इसके बाद शुरू हुआ अमेरिकी इतिहास का सबसे बर्बर दमन और पूंजीवादी सत्ता का नंगा नाच। आठ मजदूर नेताओं पर मुकदमे चलाए गए जिनमें से चार को 11 नवम्बर 1887 को फांसी पर लटका दिया गया। एक दिन पहले इनमें से एक लुईस किंग को उनकी जेल कोठरी में मृत पाया गया। 

4 मई के अगले सुनवाई और मुकद्दमों का नाटक (कुछ वर्षों बाद उसी अदालत ने कहा था कि फैसला गलत था) करके आठ घंटे काम के आंदोलनों के नेता ऑगस्ट स्पाइस, अल्बर्ट पार्सन्स, एडोल्फ फिशर, जॉर्ज एंगेल्स 11 नवम्बर 1887 को फांसी पर लटका दिए गए। एक और थे 23 साल के लुइस लिंग्ज जिन्हें एक रात पहले अपनी काल कोठरी में लटका हुआ पाया गया। 
ये चारों फांसी के लिए ले जाते समय उस समय का अंतर्राष्ट्रीय गान गाते हुए जा रहे थे।  फांसी का फंदा गले में डालते हुए ऑगस्ट स्पाइज ने चिल्ला कर कहा था ; "आज तुम जिस आवाज का गला घोंट रहे हो, एक दिन आएगा जब हमारी यह खामोशी सारी आवाजों से ज्यादा मुखर होगी।"
प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक़ फांसी से उतारे जाने के बाद भी उनका गला घोंटा गया क्योंकि वे मरे नहीं थे।  पार्सन्स को अंतिम विदाई देने ढाई लाख से ज्यादा नागरिक शिकागो की सडकों पर सड़क के दोनों ओर पंक्तिबद्द होकर खड़े रहे।  

इस निर्मम दमन और पूंजीवाद के अमानवीय चेहरे के खिलाफ दुनिया भर में विरोध कार्रवाइयां आयोजित की गई और कुछ ही वर्ष में इसने पूंजीवाद के विरूद्ध मजदूर वर्ग के अंतर्राष्ट्रीय दिवस-मई दिवस- का रूप धारण कर लिया।

वे साधारण से मजदूर, एक्टिविस्ट, अख़बारनवीस कितने सही थे।  वे फांसी से उतारे जाने के बाद गला घोंटने के धतकर्मों के बाद भी आज तक जीवित है और आज सूरज के उगने से सूरज के डूबने तक धरती के सुदूर पूरब से दूर की पश्चिम तक हर देश में करोड़ों की तादाद में मुट्ठी ताने निकल रहे होंगे लोग; उनकी खामोशी आज उनके मौन से कहीं ज्यादा मुखर है। 

भारत में मई दिवस और आठ घण्टे काम की लड़ाई

भारत में आठ घण्टे काम की पहली लड़ाई हावड़ा रेलवे स्टेशन पर काम करने वाले मजदूरों ने 1862 में लड़ी थी। 10 घण्टे के काम को घटाकर 8 घण्टे करने की मांग पर इन 1200 मजदूरों ने कुछ दिन की हड़ताल की थी, जिसकी खबर तब के बांग्ला अखबार सोमप्रकाश ने न केवल छापी थी बल्कि उसका समर्थन भी किया था।

पहला मई दिवस 1923 में मना। इसे मद्रास में मनाया गया। इसके मुख्य आयोजक और कर्ताधर्ता थे एम सिंगारवेलु चेट्टियार। अगले दिन के मद्रास के अखबार द हिन्दू में छपी खबर के मुताबिक इस दिन मद्रास में दो जगह मई दिवस मनाया गया। एक में स्वयं एम सिनगारवेलु चेट्टियार ने भाषण दिया। यह सभा समन्दर किनारे हाईकोर्ट बिल्डिंग के सामने हुयी। दूसरी सभा ट्रिप्लिकेन बीच पर हुयी जिसे मुख्य रूप से एस कृष्णास्वामी सरमा ने संबोधित किया। इस सभा में भी एम सिंगारवेलु चेट्टियार के तमिल में लिखे घोषणापत्र को पढ़ा गया।
इसी दिन सिंगारवेलु ने समन्दर किनारे की सभा में लाल झण्डा फहराया।
इसी अखबार में उसी दिन सिंगारवेलु द्वारा कोलकता में मई दिवस के लिए वहां की लेबर एंड किसान पार्टी हिन्दुस्तान को भेजे गए टेलीग्राम की खबर भी है।
1920 में भारतीय मजदूरों का संगठन एटक बन चुका था। 1927 नवम्बर कानपुर में हुये इसके सम्मेलन से देश भर में मई दिवस मनाने का आह्वान किया। मगर मई दिवस इस आह्वान से पहले ही शुरू हो गए।
ब्रिटिश गुप्तचर रिपोर्ट्स के मुताबिक़ मुम्बई (तब बॉम्बे) में 1927 को मई दिवस मना जिसमे फिलिप स्प्रैट के अलावा ठेंगडी, मिरजकर, घाटे, झाबवाला, निम्बकर, जोगलेकर ने अगुआई की। इसी रिपोर्ट में मद्रास का जिक्र है। जमशेदपुर के टाटा स्टील के मजदूरों की रैली का जिक्र है। कोलकाता के शहीद मीनार मैदान में कामरेड मुज़फ़्फ़र अहमद की अगुआई में हुयी सभा सहित 3 सभाओं, लाहौर में मोचीगेट पर सभा आदि का उल्लेख है।
उसके बाद भारत का शायद ही कोई इलाका हो जहां मई दिवस पर मेहनतकशों की रैली न निकली हो। शिकागो से चमकी चिंगारी भारत सहित दुनिया भर में मशाल बन कर धधक रही है। 
आज 1 मई को दुनिया के 80 देशों में आधिकारिक रूप से अनिवार्य तथा  40 देशों मे ऑप्शनल छुट्टी है।

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