मीलॉर्ड! क्या आदिवासियों के बिना ज़िंदा रह सकेंगे जंगल?
बहुत सारी ख़बरों में सबसे ज़रूरी ख़बर वे होती हैं जिनका जुड़ाव सबसे कमज़ोर लोगों से होता है। उन लोगों से जिनकी आवाज नहीं सुनी जाती है। और अगर सुनी भी जाती है तो अनसुनी कर दी जाती है। ऐसा ही हुआ है सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले में जिसका जुड़ाव आदिवासियों से है। जिसमें तकरीबन 10 लाख आदिवासियों को जंगल से बाहर जाने का आदेश दिया गया है। अपनी चलताऊ भाषा में कहें तो यह कह सकते हैं की देश के सर्वोच्च न्यायालय ने आदिवासियों को जंगल से खदेड़ने का फैसला सुनाया है। बिजनेस स्टैंडर्ड में छपी रिपोर्ट कहती है कि इस फैसले से 36 राज्यों (29 राज्य और 7 केंद्रशासित प्रदेश) के 18 लाख से भी अधिक आदिवासियों को जंगल से बाहर निकाला जा सकता है।
20 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि तय समय-सीमा के भीतर उन आदिवासी परिवारों को जंगल से बाहर निकाला जाए जिनके भूमि अधिकार प्रमाण पत्र के दावे को वन अधिकार कानून के तहत काम करने वाली प्राधिकरणों ने ख़ारिज कर दिया है। इस आदेश के बाद तकरीबन 16 राज्यों के मुख्य सचिव ने एफिडेविट फाइल करते हुए कहा कि इससे तकरीबन 11 लाख आदिवासी परिवार प्रभावित होंगे। लेकिन बिजनेस स्टैंडर्ड में छपी रिपोर्ट कहती है कि इस फैसले को सभी राज्यों को मानना है इसलिए यह संख्या इससे अधिक करीब 18 लाख हो सकती है।
इस पूरे फैसले को सही से समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि वन अधिकार कानून क्या है ? और जब यह जान लेंगे तो सारी बातें साफ़ होने लगेंगी।
वन अधिकार कानून
देश की संसद ने 18 दिसम्बर, 2006 को अनुसूचित जाति एवं अन्य पारम्परिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) कानून, 2006पारित किया था। इस कानून को सही से समझने के लिए इसका इतिहास समझना जरूरी है। एक सदी से अधिक समय से भारत के वनों की शासन व्यवस्था उन भारतीय वन कानूनों के प्रावधानों के अनुसार की जाती रही है जो 1876 से 1927 तक पारित किए गए थे। उसके बाद 1927 का कानून भारत का केन्द्रीय वन कानून बना रहा। इन कानूनों का पर्यावरण संरक्षण से कोई लेना-देना नहीं था। कारण यह था कि अंग्रेज जंगलों के संसाधन का हक अपने हाथ में लेना चाहती थे, जिसके लिए जरूरी था कि सरकार वनों पर अपना अधिकार जमाए। और उन पारम्परिक सामुदायिक वन प्रबन्धन की प्रणालियों को दबा दे जो देश के अधिकतर हिस्सों में लागू थीं। इन कानूनों ने सरकार को वनों के किसी भी क्षेत्र को रिजर्व और संरक्षित करने का अधिकार दे दिया। जिसके बाद वन बन्दोबस्त अधिकारी को भूमि, वनोत्पाद, चरागाह आदि सम्बन्धी अधिकार दावों की जाँच करने का अधिकार मिला। चूँकि इन कानूनों का मकसद वन भूमि पर कब्जा लेना तथा वन समुदायों को उनके अधिकारों से बेदखल करना था इसलिए इन कानूनों का अंग्रेजों ने जमकर फायदा उठाया। आजादी के बाद यह सारी जमीनें वन विभाग को दे दी गयी। इसके बाद यह परेशानी खुलकर सामने आने लगी कि वनों में रहने वाले आदिवासियों और वनों के संरक्षण से जुडी चिंताओं के साथ कैसे तालमेल बिठाया जाए। इनके बीच ताल-मेल बिठाने के लिए बहुत सारे संघर्ष हुए। इन संघर्षों का ही नतीजा रहा कि साल 2006 में वन अधिकार कानून पास हुआ। यह कानून पास होने के बाद यह विरोध भी दर्ज होने लगा कि सरकार अपने हाथों से वन अधिकार को गंवा रही है। इससे वन संसाधन की निजी हाथों में खरीद बिक्री होगी और वन संरक्षण से जुड़े सारे अभियान बर्बाद हो जायँगे। लेकिन इस कानून में ही इस विरोध का जवाब भी दर्ज था और अब भी है।
वन अधिकार कानून के वन भूमि अधिकार प्रमाण पत्र पाने के दो चरण हैं। पहला किसी भी दावेदार को यह साबित करना है कि वह मुख्यतः वनों के बाशिंदें है और अपनी जिंदगी चलाने के लिए वनों तथा वन-भूमि पर निर्भर हैं। दूसरा दावेदारों को यह साबित भी करना है कि इस तरह से वे तकरीबन पिछले 75 साल से अपनी जिंदगी चलाते आए रहे हैं।
यहीं पर यह भी सवाल उठता है जो लोग 75 साल पहले यानी आज़ादी के पहले वनों से बेदखल कर दिए गए और जो वनों के आसपास रहते हैं, उनका क्या?
आदिवासियों के बीच ऐसी स्थिति मुश्किल से होती है। उनमें से अधिकतर लोगों के स्थायी घर वन के आसपास भू-राजस्व वाली जमीन में होते हैं, वन में नहीं। जो वास्तव में वन-भूमि में रहते भी थे, उनमें से अधिकतर को पहले ही वहाँ से जबरन हटा दिया गया है अथवा वन विभाग ने उनके घर को छोड़कर अपनी चारदीवारी बना ली है ताकि उनसे सीधा संघर्ष टाला जा सके।
वन अधिकार कानून के तहत वन में रहने वाले किसी आदिवासी को तीन तरह के अधिकार मिलते हैं
- 13 दिसम्बर, 2005 से पहले किसी आदिवासी का वन भूमि पर कब्जा है और वह उसे जोत रहा है और अगर कोई आदिवासी इस स्थिति को दस्तावेज से साबित नहीं कर पा रहा हो तो प्रति परिवार 4 हेक्टेयर की भू-हदबन्दी लागू होगी।
2. पारम्परिक रूप से लघु वन उत्पाद जैसे कि जंगल की लकड़ी, पत्ते, वार्निश, प्राकृतिक वार्निश, महुआ, छाल के साथ जल निकायों,चरागाहों आदि का उपयोग करना
3. वनों एवं वन्य-जीवों की रक्षा एवं संरक्षण- यह वह अधिकार है जो इस कानून का सबसे जरूरी पक्ष है। यह उन हजारों आदिवासी समुदायों के लिए अहमियत रखता है जो वन माफियाओं, उद्योगों तथा जमीन पर कब्जा करने वालों के खतरों से अपने वनों तथा वन्य जीवों की रक्षा में लगे हुए हैं। इनमें से अधिकतर वन विभाग की साँठगाँठ से इस काम को अंजाम देते हैं। पहली बार यह जमीनी तौर पर लोकतान्त्रिक वन प्रबन्धन का द्वार खोलता है और इसकी सम्भावना पैदा करता है।
इसके अलावा वन अधिकार कानून 2006 की धारा 6 में तीन चरण वाली एक प्रक्रिया है जिसके आधार पर यह तय किया जाता है कि किस आदिवासी या वनवासी को भूमि अधिकार मिलेगा और किसे नहीं मिलेगा।
पहला, ग्राम सभा यानी कि पूरी ग्राम सभा न कि ग्राम पंचायत तय करेगी कि कितने अरसे से कौन ज़मीन जोत रहा है और किस तरह के वनोउत्पाद का लाभ वह लेता रहा है। यह जांच ग्राम सभा की वनाधिकार समिति करेगी, जिसके निष्कर्ष को पूरी ग्रामसभा स्वीकार करेगी।
इसके बाद ग्रामसभा की सिफारिश को दो चरणों से गुजरना होगा। ब्लॉक स्तर की छानबीन और जिलास्तर की छानबीन। जिला स्तर की छानबीन जिलास्तरीय समिति करती है। अंत में, जिलास्तरीय समिति का फैसला अंतिम माना जाएगा कि किसे भूमि अधिकार मिलेगा और किसे नहीं। इस समिति में 6 सदस्य होते हैं। 3 सरकारी और 3 चुने हुए। इनकी नज़र में अगर किसी का भूमि अधिकार संबंधी दावा गलत है तो उसे यह समिति खारिज कर सकती है। अन्तिम बात, इस कानून के तहत दी गयी जमीन न बेची जा सकेगी और न उसका अधिकार दूसरे को हस्तान्तरित किया जा सकेगा। यही प्रावधान उस विरोध का जवाब देती है, जिसके तहत यह कहा जाता था और सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले संगठनों का दावा है कि जंगलों में मानवीय बसावट के चलते वनों का संरक्षण नहीं हो पाएगा। वन भी गाँव से होते हुए शहर और शहर से होते हुए उद्योग धंधों के केंद्र में बदल जायेंगे।
सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करने वाले संगठन का कहना है कि जंगलों में मानवीय बसावट से जंगल तो धीरे-धीरे बर्बाद होता है ही साथ में बहुत बड़े पैमाने में जंगलों में आदिवासियों की रहने से जंगल में जंगली जीवों के आवास भी बर्बाद होता रहता है। जिसका अंतिम नतीजा जंगल के पूरी जैव-विवधता की बर्बादी में देखा जा सकता है। इसलिए वन अधिकार कानून का अंत करना जरूरी है और उन आदिवासियों को जंगल से बाहर निकालना जरूरी है जिनके दावे वन अधिकार कानून के तहत खारिज किये जा चुके हैं।
आदिवासी समूह के लिए काम करने वाले संगठनों का कहना है कि राज्य सरकार द्वारा आदिवासियों के दावे को खारिज करने वाले जो आंकड़ें दिए जा रहे हैं, वे सभी बोगस हैं। सभी गैरकानूनी है। आदिवासिओं को आपने दावे जाहिर करने के लिए जिन दस्तावेजों को देना पड़ता है और जिस तरह के नौकरशाही से गुजरना पड़ता है वह इतनी जटिल और लूट से भरी हुई है कि आदिवासी अपना दावा हासिल करने से पहले ही दम तोड़ देते हैं।
साल 2018 में छपी डाउन टू अर्थ पत्रिका की एक रिपोर्ट कहती है कि एक दशक के दौरान वन अधिकार के तहत तकरीबन 42 लाख दावे किये गए लेकिन 40 फीसदी दावे को ही मंजूरी मिली।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला कई सवाल खड़े कर रहा है। ऐसा लगता है कि सुप्रीम कोर्ट ने खुद ही न्याय तक पहुँचने के लिए जरूरी मानक नहीं अपनाए। वन अधिकार कानून से जुड़ी बहस में सरकार की तरफ से कोई भी सरकारी वकील पेश नहीं हुआ और सुप्रीम कोर्ट ने आदेश सुना दिया। सरकार ने लापरवाही दिखाई मगर सुप्रीम कोर्ट की तरफ से यह न्यायिक कार्रवाई का सबसे अहम हिस्सा होता है कि वह दूसरा पक्ष सुनकर ही अपना फैसला दे। इस फैसले पर आदिवासियों के बीच काम करने वाले वकील मधुरेश कहते हैं कि यह पूरी तरह से पश्चिमी सोच है कि जंगलों से मानवीय बसावट हटाकर ही जंगल बचाये जा सकते हैं। हमारे यहाँ आदिवासी जंगल का अभिन्न हिस्सा रहे हैं और ऐसा भी है कि इनके रहने की वजह से जंगलों और जंगली जीवों का संरक्षण अच्छी तरह से हो पाता है। इसके साथ यह भी है कि भूमि अधिकार प्रमाण पत्र ख़ारिज करने का अधिकार ग्राम सभा का है। यानी कानून के तहत ग्राम सभा फैसला करेगी कि जंगल में कौन रहेगा और कौन नहीं। इसपर सुप्रीम कोर्ट कैसे फैसला ले सकता है। यह सुप्रीम कोर्ट द्वारा कानून का उल्लंघन भी है। हालाँकि इस पर अगली सुनवाई 27 जुलाई को होनी है।
इस तरह से सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला इस तरफ इशारा करता है कि दबे-कुचले लोगों का कोई माई-बाप नहीं है, भले ही उनकी संख्या कितनी भी क्यों नहीं हो। न तो वे अपने अधिकार के लिए खड़े होने में काबिल होते हैं और न ही उनके लिए सरकारें खड़ी होती हैं। याचिकर्ताओं की याचिका पर भी शक उठता है। अगर वे सचमुच में जंगल संरक्षण के हितैषी होते तो वन अधिकार कानून के मंशा को समझते। यह भी समझते कि जंगल के साथ तालमेल बिठाकर जीवन जीने वाली जिंदगी जंगल को नुकसान नहीं पहुंचा सकती है। इसलिए यहां पर थोड़ा षड्यंत्रकारी थ्योरी की तरफ भी देखने की कोशिश होनी चाहिए। सरकार ने वकील नहीं दिए। सरकार आदिवासियों को मुख्यधारा की तरफ लाने की बात करती है। मुख्यधारा की तरफ लाने के लिए विकास की बात की जाती है। और विकास के नाम पर जंगल के संसाधन के दोहन को सरकारों खुली छूट दी जाती है। इस छूट में अड़ंगा डालने का काम वन अधिकार कानून करता है। जिसके तहत बिना ग्राम सभा की अनुमति के कोई भी जंगल की जमीन का इस्तेमाल नहीं कर सकता। इसलिए इस आशंका को बल मिलता है कि सरकार द्वारा ही वन अधिकार कानून को वन संरक्षण के नाम पर कमजोर कर पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाने की कोशिश की जा रही है।
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