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मोदिनामा: लूट की छूट – लूट सके तो लूट

जिस भूमि के इर्द-गिर्द साहित्य जन्म लेता है और संस्कृति उभरती है आज वही भूमि खतरे में पड़ गयी है। हर फसल किसानों और ग्रामीण जनता के लिए नयी खुशहाली लाती है। यही वह समय होता है जब किसान, आदिवासी, मछुवारे या ज़मीन से जुड़े सभी लोग फसल से जुड़े त्योहारों को मनाते हैं। इसके इर्द-गिर्द लोक-संस्कृति, लोक संगीत, लोक चेतना और जन साहित्य का जन्म या प्रसार होता है। यानी भूमि हमारी सांस्कृतिक और साहित्यिक चेतना का आधार है।  आज उसी भूमि को पूंजीवादी मुनाफे की बली चढाने की तैयारी मोदी सरकार कर रही है। भूमि अधिग्रहण संसोधन कानून भूमि से जुड़े हर उस व्यक्ति उसका ज़मीन से जुड़े रहने का अधिकार छीनता है। सरकार विकास के नाम पर भूमि अधिग्रहण करना चाहती है ताकि वह उस ज़मीन को किसानों से औने-पौने दामों में खरीद कर बड़े पूंजीपतियों के लिए बेरोकटोक मुनाफा कमाने का रास्ता तैयार कर सके।

पूरे देश के किसान सरकार के इस प्रास्तावित संसोधन सकते में आ गए हैं। वे दिल्ली की सड़कों पर सरकार को चेतावनी देने के लिए उतरे और कहा कि अगर इस कानून को पूंजीपतियों के हित में बदला जाता है तो सरकार के खिलाफ जन आन्दोलन होगा। लेकिन सरकार के कानों पर इस चेतावनी से कुछ असर पड़ता नजर नहीं आ रहा है, इसलिए सरकार और उसके प्रबंधक विभिन्न सहयोगी गठबंधन की पार्टियों को मनाने में जुट गए हैं। विपक्ष, जिसमें कांग्रेस, वामपंथी और कुछ अन्य दल हैं तो विरोध कर ही रहे हैं, लेकिन कुछ भाजपा के सहयोगी भी इस विधेयक का विरोध कर रहे हैं। क्योंकि छोटी पार्टियाँ जानती हैं अगर यह विधेयक पारित हो गया तो देश की बेशकीमती ज़मीन को भारी मुनाफा कमाने के लिए भाजपा के सहयोगी पूंजीपतियों को ‘विकास’ के नाम पर भेंट में दे दी जायेगी।

भूमि अधिग्रहण कानून 2013 और प्रस्तावित 2014 के कानून में क्या फर्क है और क्यों यह देश के किसानों और आदिवासियों तथा दलितों के खिलाफ है इस पर नजर डालते हैं। 2013 के कानून के तहत यह प्रावधान रखा गया है कि अगर सार्वजनिक या निजी परियोजना के लिए भूमि के अधिग्रहण की जरूरत है तो इसे अधिग्रहण करने के लिए भूमि का स्वामित्व वाली आबादी का 80% हिस्से की अनुमति होनी चाहिए। अब नए कानून के तहत इस अनुमति की कोई जरूरत नहीं है, यानी सरकार बिना बताये भूमि का अधिग्रहण कर सकती है। इसके मुवावजे स्वरुप भूमि के मालिक को मौजूदा ज़मीन की कीमत का चार गुना दिया जाएगा। यानी अगर आपकी ज़मीन की कीमत कागज़ात में 1 लाख है तो आपको चार लाख रुपया देकर आपसे ज़मीन छीन ली जायेगी। अब उस ज़मीन पर परियोजना बने न बने इसकी भी कोई दरकार नहीं है और अगर बनती भी है तो उस ज़मीन से कमाए जाने वाले मुनाफे में भूमि मालिक का कोई हक नहीं होगा। न ही उनके लिए या उनके बच्चों को रोज़गार देने की कोई गारंटी दी जा रही है। इसका मतलब साफ़ है कि किसान नकद पैसा लेगा और चंद वर्षों में वह पैसा ख़त्म हो जाएगा  तब उस किसान या आदिवासी का परिवार बेरोजगार बन सड़क पर आ जाएगा।

यह कानून अंग्रेजों द्वारा बनाए गए भूमि अधिग्रहण कानून 1894 से भी भयानक है। अंग्रेजों ने जिस तरह से ज़मीनों पर कब्ज़ा किया और अपने मुनाफे के लिए आदिवासियों और किसानों को उनकी ज़मीनों से बेदखल किया अब मोदी सरकार भी झूठे विकास के नाम पर अपने सहयोगी पूंजीपतियों के लिए ज़मीन हड़पना चाहती है ताकि वे भरपूर मुनाफा बटोर सके। अभी हाल ही में एक तथ्य सामने आय है कि जबसे मोदी सरकार सत्ता में आई है अदानी की संपत्ति में 25,000 करोड़ का इजाफा हुआ है। यह नहीं मोदी सरकार ने पिछले वित्तीय वर्ष में देश के बड़े पूंजीपतियों को 5 लाख करोड़ की कर रियायतें दी हैं और आने वाले वित्तीय वर्ष में ये रियायतें 6 लाख करोड़ को पार कर जायेगी। यानी पूंजीपति जिनकी पूँजी लगातार बढ़ रही है उन्हें लूट की छूट बाकी जनता ठन-ठन गोपाल। अगर सरकार जनता की हितैषी होती तो वह कभी भी यह रियायत पूंजीपतियों को नहीं देती और इस पूँजी का इस्तेमाल जनता की तरक्की के लिए किया जाता।

कैसे? आओ देखें। हमारे देश में मंरेगा नामक ग्रामीण रोज़गार कानून है। इस कानून के तहत अगर कोई मंरेगा का कार्ड लेकर पंचायत के पास जाता है तो उसे काम देना कानूनी तौर पर अनिवार्य है। इस कानून से पिछले कुछ सालों में ग्रामीण स्तर पर रोज़गार में काफी इजाफा हुआ था। इसलिए सफलता को देखते हुए यह मांग उठी की कार्य दिवस बढाने और बहुमत ग्रामीण जनता को इस कानून के तहत रोज़गार मुहैया कराने के लिए इसके बजट में अब्धोत्री की जाए। सभी संगठनों, वामपंथी पार्टियों और किसान व खेतिहर मजदूर संगठनों ने इसके लिए 84,000 करोड़ रूपए के बजट का प्रावधान करने के लिए कहा। लेकिन मोदी सरकार ने कुल 33,000 हज़ार करोड़ दिया और इस कानून को सिमित 250 जिलों तक सिमित कर दिया। यानी देश की आधी जनता को उन्होंने रोज़गार के अधिकार से अलग कर दिया। अगर सरकार चाहते तो पूंजीपतियों को यह राहत न देकर इस 5 लाख करोड़ रूपए पूरे देश के ग्रामीणों को 6 साल तक रोज़गार मुहैया कराया जा सकता था। ऐसा करने से देश में रोज़गार बढ़ता, पंचायतों के तहत विकास की दर बढ़ती और आम गरीब के हाथों में खरीदने की शक्ति बढ़ती।

लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया। इससे यह समझा जाए की जब गरीब के रोज़गार की बात आएगी तो सरकार के पास पैसा नहीं है लेकिन अगर पूंजीपतियों की झोली भरने का सवाल आएगा तो दिल खोलकर उन्हें वित्तीय रियायतें भी दी जायेगी, उन्हें बैंकों से क़र्ज़ भी सस्ती दरों पर दिलाया जाएगा और अंधा मुनाफा कमाने के लिए गरीब लोगों से छिनकर देश के बेशकीमती खजाने यानी ज़मीन को भी उनकी झोली में डाल दिया जाएगा। तो मोदी सरकार किसका विकास चाहते है, अब तक तो आप समझ ही गए होंगे। आगे आप समझदार है।

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

 

 

 

               

 

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