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मिशन यूपी: मुज़फ़्फ़रनगर किसान महापंचायत का संदर्भ और आगे का रास्ता

‘मिशन यूपी’ को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है कि किसान आंदोलन अब हर गांव के स्तर पर विस्तार करे और जातीय-सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की जगह किसान-मज़दूर वर्ग की एकता को और मज़बूती से स्थापित करे।
किसान महापंचायत

पांच सितंबर को उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में हुई किसान महापंचायत प्रत्यक्ष रूप से भारत के इतिहास में सबसे विशाल जमावड़ा था। सारे अनुमानों को ध्वस्त करते हुए बीस लाख से अधिक किसान मुज़फ़्फ़रनगर पहुंचे। दिल्ली से मुज़फ़्फ़रनगर को जोड़ने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग पर सुबह से ही बीस किलोमीटर लंबा जाम लग गया था। मुज़फ़्फ़रनगर शहर में चारों तरफ, जहां नज़र दौड़ सकती थी सिर्फ किसानों के जत्थे ही दिख रहे थे। नौ महीने से चल रहे किसान आंदोलन के लिए यकीनन यह महापंचायत मील का पत्थर है। 

मुज़फ़्फ़रनगर किसान महापंचायत के महत्त्व को समझने के लिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सामाजिक रिश्तों और राजनैतिक संरचना का बोध आवश्यक है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के समकालीन इतिहास में कई सांप्रदायिक दंगे हुए, अपितु कराये गए। परंतु सांप्रदायिक दंगे और ध्रुवीकरण का असर ग्रामीण क्षेत्रों में न के बराबर रहा और वे शहरी क्षेत्रों में ही सिमट कर रह जाते थे। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी हिन्दू, मुसलमान दो अलग अलग कौमें नहीं, बल्कि जाट-मुले जाट, राजपूत-राव मुसलमान, इत्यादि जैसे जातीय खून का रिश्ता है – जिनके पूर्वज, संस्कृति और किसानी एक हैं। 

सांप्रदायिकता के सामने ये भाईचारा एक दीवार की तरह खड़ा रहता है। इसी सामाजिक भाईचारे को आधार बनाते हुए महेंद्र सिंह टिकैत अपने भारतीय किसान यूनियन के मंच से ‘अल्लाह हू अकबर, हर हर महादेव’ का नारा लगाते थे। कई दशक बाद इसी नारे को उनके पुत्र राकेश टिकैत ने पांच सितंबर की किसान महापंचायत के मंच से दोहराया। 

सन् 2013 में मुज़फ़्फ़रनगर और आस-पास के जिलों में जो हिंदुत्ववादी संगठनों और सत्ताधारियों द्वारा जो प्रायोजित दंगे कराए गए और सांप्रदायिक ज़हर घोला गया, उसकी चपेट में पुश्तों से चला आ रहा यह भाईचारा भी मिट गया था। यहां तक कि स्वयं टिकैत के भाई भी सांप्रदायिक राजनीति का हिस्सा बन बैठे थे। इसके चलते उनके भारतीय किसान यूनियन में विघटन और क्षेत्र में किसान आंदोलन की राजनीति का पतन भी हुआ था। इसी साल 29 जनवरी को मुज़फ़्फ़रनगर में हुई एक और विशाल किसान महापंचयत में कई साल बाद किसान नेता नरेश टिकैत और ग़ुलाम मोहम्मद जौला गले मिले और 2013 के सांप्रदायिक दंगों की गलती स्वीकार की। 

नौ महीने के किसान आंदोलन ने नौ साल की सांप्रदायिक दूरी को मिटाने का काम किया है। खतौली से किसान महापंचायत में शरीक होने आए एक युवक ने बताया कि कैसे कुछ जाट ट्राली ले कर जा रहे थे तो रास्ते में बजरंग दल वालों ने गाय के नाम पर चेकिंग करने के लिए रोका। गुस्साये जाटों ने इन असामाजिक तत्वों को इलाके में तनाव और भय की राजनीति करने के लिए आड़े हाथों लिया। खतौली के युवक ने इस बात पर ज़ोर देते हुए कहा कि 2013 के बाद से बनी दुश्मनी अब न सिर्फ़ खत्म हुई है, बल्कि भाईचारा और बढ़ गया है। युवक मुला जाट था और हिन्दू जाटों द्वारा बजरंग दल के असामाजिक तत्वों को आड़े हाथों लिए जाने को मुसलमानों के प्रति आश्वासन के रूप में देखता है। 

इसी प्रकार के अनेक किस्से हर गांव नुक्कड़ पर प्रचलित हो रहे हैं। जहां एक तरफ़ मुज़फ़्फ़रनगर आए लाखों किसानों को मुसलमान युवकों ने पानी पिलाया खाना खिलाया, वहीं दूसरी तरफ़ किसानों ने ‘अल्लाह हू अकबर, हर हर महादेव’ का नारा लगा कर सांप्रदायिक ताकतों को खुली चुनौती दी। दंगे कराने वाली और किसान-मज़दूर वर्ग पर काले कानून थोपने वाली भारतीय जनता पार्टी को अगले साल के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में सबक सिखाने के लिए ‘मिशन यू.पी.’ का आह्वान भी किया गया। किसान संगठनों की स्पष्ट समझ है कि लड़ाई हर क्षेत्र में कॉर्पोरेट लूट को बढ़ावा देने वाली सरकारी नीतियों के खिलाफ़ है, जिनको लागू करने के लिए भारतीय जनता पार्टी किसान बिरादरी को जाति-धर्म में बांट के लड़ाने का काम कर रही है। 

किसान आंदोलन में शामिल और उसका समर्थन करने वाले हर वर्ग-जाति के लोग अब कृषि, बेरोज़गारी, महंगाई और स्थानीय मुद्दों पर राजनैतिक विकल्प तलाश रहे हैं। खास तौर पर जाट समुदाय से बड़ी संख्या में आक्रोशित किसान और युवक भारतीय जनता पार्टी से नाता तोड़ कर वापस राष्ट्रीय लोक दल से जुड़ रहे हैं। योगी सरकार की रोज़गार, भ्रष्टाचार और महंगाई पर विफलताओं से नाराज़ शहरी-ग्रामीण परिवेश से विभिन्न शिक्षित छात्र-युवा भी अगले साल के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को सत्ता से बाहर फेंकने का संकल्प ले रहे हैं। 

युवा नेतृत्व, पिछली सरकार के अनुभव और ज़मीनी कार्यकर्ता सक्रिय होने की वजह से समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल का गठबंधन मज़बूत राजनैतिक विकल्प के तौर पर दिखाई पड़ रहा है। बहुजन समाज पार्टी के नेत्रत्व की लगातार चुप्पी एवं निष्क्रियता, और कांग्रेस पार्टी के ढांचे का कमज़ोर होना, उन्हें जनता के बीच मज़बूत राजनैतिक विकल्प के तौर पर स्थापित नहीं कर पाया है। जातीय-सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति करने वाली असदुद्दीन ओवैसी और चंद्रशेखर आज़ाद की पार्टियां जातीय-सांप्रदायिक गोलबंदी में व्यस्त हैं, लेकिन मुसलमान-जाटव समाज से ही तीव्र विरोध झेल रही हैं। जहां ज़्यादातर मुसलमान समाजवादी पार्टी के समर्थन में हैं, वहीं अधिकांश जाटव भी बहुजन समाज पार्टी या समाजवादी पार्टी को ही विकल्प मान रहे हैं। इन दोनों पार्टियों का जातीय-सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति पर सिमटना व असदुद्दीन ओवैसी और चंद्रशेखर आज़ाद का किसान आंदोलन से दूरी बनाए रखना स्थानीय लोगों को रास नहीं आ रहा है। स्थानीय लोगों को यह बात धीरे-धीरे समझ आने लगी है कि मुसलमान-दलित-पिछड़े भी तो  किसान-मज़दूर ही हैं। 

इस प्रबल होते किसान आंदोलन और उभरते राजनैतिक विकल्पों का तात्पर्य यह बिल्कुल नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी एवं संघ परिवार की सांप्रदायिक और जातीय गोलबंदी ध्वस्त हो गई है, भले ही पहले से कमज़ोर हुई हो। सवर्ण जातियों के साथ-साथ अनेक पिछड़ी एवं अनुसूचित जातियां, जैसे कि गुर्जर, कश्यप, वाल्मीकि, इत्यादि, आज भी बड़ी संख्या में भारतीय जनता पार्टी के साथ जुड़ी हुई हैं। भारतीय जनता पार्टी द्वारा इन पिछड़ी एवं अनुसूचित जातियों को लामबंद कर पाना इसलिए सफल हो पाया था क्योंकि समाजवादी पार्टी में यादवों का और बहुजन समाज पार्टी में जाटवों का प्रभुत्व कायम था, और है। भारतीय जनता पार्टी भी हरसंभव कोशिश कर रही है कि किसान आंदोलन को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों के आंदोलन के रूप में प्रस्तुत किया जाए ताकि बाकी किसानी जातियों को अपनी तरफ़ रख सके।

किसान आंदोलन ने पहल करते हुए हर जिले के स्तर पर संयुक्त किसान मोर्चा बनाने का फ़ैसला किया है। इन संयुक्त किसान मोर्चों में भारतीय किसान यूनियन के अनेक गुटों के साथ साथ वामपंथी किसान संगठन, जैसे कि अखिल भारतीय किसान सभा, भी शामिल होंगे। ‘मिशन यूपी’ को सफल बनाने के लिए यह आवश्यक है कि किसान आंदोलन अब हर गांव के स्तर पर विस्तार करे और जातीय-सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की जगह किसान-मज़दूर वर्ग की एकता को और मज़बूती से स्थापित करे। 

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