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नफ़रत के शिकार लोग ही जानते हैं कि भारत में (न्याय के लिए) लड़ाई कितनी बड़ी है: निशरीन जाफ़री

2002 के गुजरात सांप्रदायिक दंगों के दौरान ज़िंदा जलाए गए एहसान जाफ़री की बेटी ने पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट की पत्नी श्वेता को एक खुला पत्र लिखा है। अंग्रेजी में लिखे इस पत्र का हिन्दी अनुवाद यहां दिया जा रहा है। ज्ञात हो कि संजीव भट्ट ने 2002 की हिंसा में मुख्यमंत्री के रूप में मोदी की भूमिका पर सवाल उठाया था। भट्ट को हाल ही में कथित हिरासत में मौत के 30 साल पुराने एक मामले में उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई गई है।
Shweta

वर्ष 2002 में गोधरा कांड के बाद गुजरात में हुए दंगों के दौरान मारे गए कांग्रेस नेता एहसान जाफ़री की बेटी निशरीन जाफ़री ने पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट की पत्नी स्वेता संजीव भट्ट को एक खुला ख़त लिखा है। ज्ञात हो कि हाल ही में संजीव भट्ट को जामनगर कोर्ट ने हिरासत में कथित मौत के तीस साल पुराने एक मामले में उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई है। बता दें कि गुजरात दंगे के दौरान 28 फ़रवरी को कांग्रेस नेता एहसान जाफ़री को भीड़ द्वारा अहमदाबाद में ज़िंदा जला दिया गया था।

फ़ेसबुक पर पोस्ट किए गए पत्र में निशरीन श्वेता से कहती हैं कि लोगों से ज़्यादा सहानुभूति या एकजुटता की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। वह आगे लिखती हैं यह भारत है और लड़ाई अकेले लड़नी होगी।

फ़ेसबुक पर अंग्रेजी में पोस्ट किए इस खुले ख़त का हिन्दी अनुवाद :

प्रिय श्वेता संजीव भट्ट,

भारत में न्याय तथा मानव अधिकारों के लिए लड़ना एक लंबी और अकेली लड़ाई है।

एक बार तीस्ता सीतलवाड़ ने एक इंटरव्यू में इसका उल्लेख किया था और कई दिनों तक मैं उनके वाक्य को गहराई से समझने की कोशिश करती रही। मुझे यह अकेलापन पहले दिन से ही महसूस हो रहा था लेकिन मुझे नहीं पता था कि मुझे ख़ुद को कैसे व्यक्त रखना है। इसलिए मैं आपको बताती हूँ कि इस मामले में आपके पति ने जो रास्ता अपनाया है वह कितना अकेला है और आपके लिए, आपके बच्चों और परिवार के लिए कितना लंबा, अकेला और मुश्किल भरा है जिसका आंकलन शायद अभी तक आप नहीं कर पाए हैं।

मेरी मां 23 साल की थीं जब वह 1960 में अहमदाबाद आई थीं और फिर 2002 में 60 साल की उम्र में उस रात उसी साड़ी में वह घर से बाहर सड़क पर निकल गईं जिसे उन्होंने 28 फ़रवरी की सुबह में पहना था। वह उसी सड़क पर चल रहीं थीं जिस पर वह 40 वर्षों से ज़्यादा समय तक चलती रहीं लेकिन चमनपुरा के उनके घर से लेकर गांधीनगर तक के रास्ते तक कोई एक दरवाज़ा नहीं था जो उनके लिए खुला हो। आख़िर में एक पारिवारिक मित्र के घर का दरवाज़ा उनके लिए खुला हुआ था और उन्होंने उनका खुली बांहों से स्वागत किया।

आप सोचती हैं कि वह शहर जिसे आप अपना घर कहती हैं और वे लोग जिन्हें आप मेरे देशवासी कहकर बुलाती हैं, क्या वो आपके उन हालात की परवाह करते हैं जिससे आप गुज़र रही हैं?

अहमदाबाद में रहने वाले बड़े लोग और मेरे पिता के लंबे समय तक रहे मित्रों में से कोई भी उनके लिए आगे नहीं आया। यहाँ तक कि वे लोग जो किचेन में बैठ कर मेरे पिता के साथ मीट करी और बिरयानी खाते थे, अहमदाबाद के लाखों लोग जिनके साथ मेरे पिता ने काम किया था, चुनाव लड़े, कोर्ट में मुक़दमे लड़े, रैलियां निकालीं, विरोध प्रदर्शन किए, होली खेली, ईद और दीवाली मनायी और ढेर सारी चीज़ें उन्होंने एक साथ कीं, वे भी मदद को नहीं आए। वह भी उस समय जब वह गांधीनगर में थीं और मेरे पिता समेत उनके समुदाय के सैकड़ों लोगों की क्रूर हत्या की ख़बर फैल चुकी थी। आप सोचती हैं क्योंकि आपके पति का काम इस राज्य और शहर में रहा है, आपके पति की शिक्षा और सेवा, देश के प्रति सेवा के उनके सपने, ईमानदारी और समर्पण पर यहां सोचा जा रहा है और ये लोग क्या आपकी लड़ाई में शामिल होंगे?

यदि कनाडा में ऐसी घटना हुई होती और पूर्व सांसद को उनके घर में इतनी क्रूरता से जलाया गया होता और 169 अन्य लोगों के साथ हत्या कर दी गई होती तो जस्टिन ट्रूडो और उनकी पूरी कैबिनेट संसद को बंद कर चुकी होती और हर कोई पीड़ित की मदद करने के लिए खड़े हो गए होता।

अधिकांश बड़े व्यवसायी गुलबर्ग सोसाइटी और दूसरे इलाक़ों में काम शुरू कर देते और घरों का फिर से निर्माण करने और बेघरों को फिर से बसाने के काम में लग जाते। वर्ष 2002 में और अभी भी भारत के तीन सबसे बड़े व्यवसायी का संबंध गुजरात से है तब पर भी उन परिवारों की महिलाएं जो परोपकार पर गर्व करती हैं वो भी सहायता के लिए आगे नहीं आयीं या फिर एकता व प्रेम दिखाने के लिए दूसरी धनी तथा विख्यात महिलाओं को भी एकजुट नहीं कर सकीं। आप सोचती हैं क्योंकि आप साड़ी पहनती हैं और अपने माथे पर एक सुंदर बिंदी लगाती हैं इसलिए वो आपको एक इंसान समझेंगे और एक मां, एक पत्नी और एक बेटी के रूप में आप पर जो गुज़र रही हैं, उसके बारे में सोचेंगे और आपकी लड़ाई में शामिल हो जाएंगे?

हमारे शहरों, नगरों तथा गांवों में लाख से ज़्यादा भारतीय महिलाएं रोज़ाना सुबह मंदिरों में जाती हैं लेकिन उनमें से किसी ने उस दिन नहीं सोचा कि वह शहर जिसमें वे एक दूसरे के साथ रहते हैं उसका एक समुदाय सड़कों पर है और युवा, बच्चे और बुजुर्ग माता-पिता के साथ सोने और आराम करने के लिए जगह की तलाश कर रहे हैं।

जब एक समुदाय को न केवल उनके घरों से निकाल दिया गया था बल्कि उनमें से कुछ अपने घायल बच्चों या माता-पिता को उन्हीं कपड़ों में कई दिनों तक लिए भटकते रहे, हज़ारों की संख्या में जले पड़े शवों में अपनों लोगों के शव की तलाश करते रहे और कुछ मुस्लिम इलाकों के स्कूलों के ज़मीन पर बैठे हुए थे और सोने की कोशिश कर रहे थे जिन्हें अब शरणार्थी शिविरों में तब्दील कर दिया गया था और या फिर कुछ ऐसे लोग जो जगह की तलाश कर रह थे, क़ब्रिस्तान के कोने में जगह बना रहे थे ठीक उसी समय शिक्षकों से भरे गुजरात के स्कूल, महिला प्रोफेसरों से भरे कॉलेज और विश्वविद्यालय, काम करने वाली महिलाओं से भरे व्यवसाय में ये सभी अपने रोज़मर्रा के काम पर चले गए।

आप सोचती हैं कि जब आपके पति फ़ासिवादियों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ते हुए जेल में हैं तब यही लोग आपके उन हालात पर चिंता करेंगे जिससे आप गुज़र रही हैं?

किसी दूसरे काल या देश में न केवल आईपीएस अधिकारी बल्कि सभी सरकारी अधिकारी और वह भी न केवल गुजरात बल्कि पूरे भारत के अधिकारी हड़ताल पर चले गए होते और मांग करते कि उस उत्पीड़न पर तत्काल रोक लगाए जिससे संजीव जी झेल रहे हैं।

लेकिन मेरी दोस्त आप भारत में हैं; यहां हम कई चीज़ों को लेकर नफ़रत के रोज़ाना के खुराक के साथ बड़े होते हैं जो हमें विभाजित करने का काम करते हैं। और अगर आपदा का हम पर हमला होता है तो हम प्रार्थना करते हैं कि यह एक प्राकृतिक आपदा है न कि धार्मिक या राजनीतिक आधारित नफ़रत की आपदा है। केवल वही लोग जो इस नफ़रत से पीड़ित हैं सच में वहीं जानते हैं कि यह रास्ता कितना अकेला है। दिल की गहराई से आप और आपके दृढ़ संकल्प पति संजीव भट्ट के लिए प्रार्थना करती हूँ।

आपकी,

निशरीन जाफ़री हुसैन

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