बिलक़ीस बानो अब तुम क्या कहोगी...

आज़ादी के अमृत महोत्सव में गुजरात सरकार ने देश की जनता को ऐसा तोहफ़ा दिया, जिसकी दूसरी मिसाल नहीं मिल सकती। एक तरफ़ प्रधानमंत्री लाल क़िले से महिलाओं के सम्मान का भाषण करते हैं, दूसरी तरफ़ उनके गृहराज्य गुजरात में उन्हीं की पार्टी की सरकार बिलक़ीस बानो मामले में उम्रकैद पाने वाले सभी 11 दोषियों को रिहा करती है। 2002 के गुजरात दंगों के दौरान पांच महीने की गर्भवती बिलक़ीस बानो के साथ गैंगरेप किया गया था। उनकी तीन साल की बेटी की भी बेरहमी से हत्या कर दी गई। इस हमले में बिलक़ीस बानो की माँ, छोटी बहन और अन्य रिश्तेदार समेत 14 लोग मारे गए थे।
बिलक़ीस या बिलकिस की याद आई तो याद आई शोभा सिंह की कविता— “मिसाल: बिलकिस बानो”। यह कविता बिलक़ीस पर हुई हिंसा के साथ उनके संघर्ष को रेखांकित करती है। जो इस नाउम्मीदी में भी हमें राह दिखाता है। लेकिन अब गुजरात सरकार के इस फ़ैसले के बाद कवि शोभा सिंह, बिलक़ीस से और हम बिलक़ीस और शोभा और ख़ुद से भी पूछें—अब तुम क्या कहोगी...क्या करोगी। क्या और इंतज़ार...और उम्मीद...
मिसाल: बिलकिस बानो
पिछले पंद्रह साल
तुमने इंतज़ार किया
बिलकिस बानो
न्याय का
पिछले पंद्रह साल
आसान नहीं था कुछ
कितनी बाधाएं
दुश्वारियां जटिल
और बेहद तल्ख़
विपरीत हालत के बीच
तुमने सिर्फ़
इंतज़ार किया
मिलने वाले इंसाफ का
उसके लिए
ढेर सारी दुआओं को
हर रोज़ समेट
अनथक लड़ती रहीं
उस हृदय विदारक
दुख को ज़िंदा रक्खा
उसे बार बार दोहराने की
दारुण यातना झेली
कोर्ट, जिरह, ज़िल्लत
बहुचर्चित हुआ तुम्हारा केस
गुजरात सांप्रदायिक दंगे में
सामूहिक बलात्कार की शिकार
ज़िंदा?
बिलकिस – पांच माह की गर्भवती
हां उस दिन बहुत कुछ हुआ
तुम्हारी नन्ही मासूम बच्ची
पत्थर पर पटक-पटक कर
मार दी गई
परिवार के सात लोग
गाजर मूली की तरह
काट दिये गए
हलाक
सब कुछ तहस नहस
बेदर्दी से कर दिया गया
बस चंद लोग
भाग कर बचे
लहूलुहान तुहारी देह को
मुर्दा समझा गया
बेकार की लाश
अंदर का ज्वालामुखी
शायद धधक रहा था
जिसने मौत को पीछे ढकेल दिया
तुम्हारा जज़्बा
तारीफ़ के क़ाबिल था
तुमने ज़ुल्म के ख़िलाफ़
लड़ने का संकल्प लिया
अपराधियों को सज़ा मिले
जाति धर्म के आधार पर विभाजित
नफ़रत की राजनीति की जकड़न से बंधे
25 मार्च 2003 का फ़ैसला
मजिस्ट्रेट कोर्ट ने सबूतों के अभाव में
केस बंद
फिर एक लम्बा सिलसिला
सुप्रीम कोर्ट
आदेश
सी.बी.आई. जांच
जहां पूरी व्यवस्था, तंत्र
सबूतों पर मिट्टी डाल रहा हो
लड़ना मुश्किल- रेत में नाव चलाना
बिलकिस ने मांग की
मामले की सुनवाई
गुजरात से बाहर हो
यूँ साल बिना पंख लगे भी
उड़ते गए
मुंबई हाईकोर्ट ने
उन पुलिस कर्मियों
डॉक्टरों को भी
दोषी ठहराया
जिनकी रिपोर्ट झूठी थी
अपराधियों को सज़ा
अलग तरह का फ़ैसला आया
दंगा पीड़ितों को राहत देने वाला
विलम्ब के, बहुत से
उतार चढ़ाव
बहुत सी धमकियों का
जवाब तुमने दिया—
मैं बिलकिस बानो
मैं नहीं हूं डर का शिकार
अब इससे आधिक बुरा क्या होगा
मैं भूल नहीं पाती
उस मंज़र के कोड़े
जो अब तक
मेरी आत्मा पर बरसते रहे
अपनों को यूं खोना
नींद में भी
नुकीले कांच चुभते हैं
मैं अपनी ही देह से
कांटे चुनती हूं
फिर भी
तुम्हारे लिए फांसी की सज़ा की
मांग नही करती
मेरे धधकते दुख से जुड़ी
मेरी लड़ाई को सही मुकाम तक ले जाने में
मेरी मददगार
साथियों ने भी समझाया
सज़ा-ए-मौत
समस्या का हल नहीं
नफ़रत के बदले, नफ़रत नहीं चाहिए
हां सबक मिले उन्हें
जो नफ़रत की राजनीति
करते-करवाते हैं
दुआ दिल की है
ख़ुश हाल घर, बस्ती
नफ़रत के ख़ौफ़नाक
मंज़र से न गुज़रे
उत्पीड़ित और अत्याचारी में फ़र्क़ रखें
भूमिकाओं की अदला बदली
हर्गिज़ नहीं करें
उसने कहा- मैंने नहीं छोड़ी
ज़ुबां की तहज़ीब
हां- एक ख़ला
ज़ाहिर है रहेगी एक ख़लिश
ख़ून से लथ पथ
ज़िन्दगी तो है
उसमें उम्मीदें-सांस ले रही
सपनों को जलाया नहीं जा -सका
घर ज़रूर फूंक गए
बस अब मेरे सपनों में
मानव घातियों के लिए
कोई जगह नहीं
उनसे कहना
मैं ग़लत नहीं थी
बयान मेरा आम हिन्दुस्तानी औरत का
धरती, हवा, पानी जैसे
सच थे
अपराधियों को बचाने के लिए
सत्ता ने कितने ही दरवाज़े
खोले थे
इस पर
अफ़सोस ज़रूर होता है|
- शोभा सिंह
(कवि-संस्कृतिकर्मी)
(कविता संग्रह "यह मिट्टी दस्तावेज़ हमारा" से साभार)
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