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नस्लीय हिंसा केवल दिमाग़ी फ़ितूर नहीं बल्कि घृणित आतंकवाद है

हमेशा की तरह अमेरिका अपने घर में हुए इस आतंकी वारदात को विक्षिप्त मानसिकता की करतूत का नाम दे कर इसकी विभत्सता को कम करने और इस नस्लीय आतंकवाद की रक्तरंजित पृष्ठभूमि को छुपाने की जुगत में लग गया है।
Racial violence
फोटो साभार : newindianexpress.com

इसी महीने के पहले सप्ताह में तीन और चार अगस्त के दरमियान चौबीस घंटों के अंदर अमेरिका में दो अलग-अलग आतंकवादी घटनाओं में 29 लोग मारे गए हैं। पहले टेक्सास प्रांत में वॉलमार्ट के एक शॉपिंग मॉल में शनिवार को हुई गोलीबारी में 20 लोग मारे गए। इसी घटना में 26 लोगों के घायल होने की खबर है। पुलिस ने पहले तीन हमलावरों के होने की बात कही थी, लेकिन बाद में इसे केवल एक सिरफिरे की करतूत बताया जिसने आत्मसमर्पण कर दिया।

टेक्सास में पिछले कुछ माह में गोलीबारी की कई घटनाएं हुई हैं। जून के आखिरी हफ्ते में भी टेक्सास में गोलीबारी की दो घटनाएं हुईं थीं। टेक्सास में ताज़ा हमला एल पासो शहर में शनिवार को सिएलो विस्टा मॉल के करीब वालमार्ट स्टोर में हुआ। यह जगह अमेरिका-मेक्सिको सीमा के करीब है। उसके कुछ ही घंटों के बाद अमेरिका के ओहायो प्रांत के डेटन सिटी के ओरेगॉव इलाके में एक शख्स ने दस लोगों को गोली मार दी और अन्य 16 लोग घायल हो गए। स्थानीय रिपोर्ट्स के मुताबिक गोलीबारी की ये दूसरी घटना ओहायो के सेंट्रल डेटॉन इलाके में हुई है जहां स्थानीय समय के मुताबिक देर रात करीब 1 बजे गोलीबारी हुई। नेड पैपर्स नामक एक नाईट क्लब और बार से बाहर निकल रहे लोगों को इस हमले के जरिए निशाना बनाया गया। यहाँ पुलिस ने हमलावर को मार गिराया। जबकि टेक्सास के वालमार्ट स्टोर गोलीबारी करने वाले ने आत्मसमर्पण कर दिया और उसके बारे में अमेरिकी मीडिया के हवाले से बताया गया है कि संदिग्ध बंदूकधारी की पहचान डलास क्षेत्र के निवासी पैट्रिक क्रूसियस के रूप में हुई है।

अमेरिका के वॉलमार्ट स्टोर में एक हफ्ते के भीतर गोलीबारी की यह दूसरी घटना हुई है। इससे पहले पिछले सप्ताह के अंत में कैलिफोर्निया में इसी तरह लोगों के समूह पर गोलियां चलाई गईं थी। विगत माह 29 जुलाई को कैलिफ़ोर्निया में गिलरॉय गार्लिक फेस्टिवल के दौरान अचानक रविवार दोपहर अचानक किसी ने फायरिंग शुरू कर दी। जिसके बाद अफरातफरी मच गई और लोग भागने लगे। फायरिंग में तीन लोगों की मौत हो गई थी तक़रीबन 12 लोग इसमें घायल बताये जा रहे हैं। एक स्थानीय अधिकारी के अनुसार एक सदिंग्ध को पुलिस ने हिरासत में ले लिया गया था। टेक्सास प्रांत में गोलीबारी की घटना के बाद वॉलमार्ट के सीईओ डोग मैकमिलन ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा है के “मुझे यकीन नहीं हो रहा कि मुझे एक ही हफ्ते के भीतर दूसरी बार संवेदना व्यक्त करने के संदेश भेजने पड़े हैं।”

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने घटना के बाद ट्वीट करते हुए कहा- टेक्सास में भयानक गोलीबारी हुई है। कई लोग मारे गए हैं। राज्य और स्थानीय अधिकारियों के साथ काम रहा हूं। भगवान आपके साथ हैं। 2020 राष्ट्रपति चुनाव के उम्मीदवार सीनेटर कोरी बुकर और स्टीव बुलॉक ने भी इसकी निंदा की और इसे हेट क्राइम करार दिया है।

हमेशा की तरह अमेरिका अपने घर में हुए इस आतंकी वारदात को विक्षिप्त मानसिकता की करतूत का नाम दे कर इसकी विभत्स्ता को कम करने और इस नस्लीय आतंकवाद की रक्तरंजित पृष्ठभूमि को छुपाने की जुगत में लग गया है। इस सिलसिले में घटना के संबंध में ट्रम्प के 9 अगस्त को जारी किये गए ताज़ा बयान को संज्ञान में रखा जा सकता है जिसमें उन्होंने कहा है "स्पष्ट रूप से, हमें उनकी मानसिक जांच और उनके बारे में पूरी जानकारी इकट्ठा करने की आवश्यकता है। ताकि यह पता चल सके की वे बंदूक क्यों खरीद रहे हैं। यह एनआरए (नेशनल राइफल एसोसिएशन), रिपब्लिकन या डेमोक्रेट का सवाल नहीं है। 'इन नरसंहारों को अंजाम देने वाले बंदूकधारी मानसिक समस्याओं' से ग्रसित हैं।

 ट्रंप ने ये भी कहा है कि उन्होंने सीनेट में बहुसंख्यक नेता मिच मैककोनेल और अल्पसंख्यक नेता चार्ल्स शूमर और स्पीकर नैंसी पलोसी के साथ बंदूक को लेकर कानून पर बात की है और मुझे लगता है कि हम ऐसा करके वास्तव में कुछ बेहतर कर सकते हैं। भारतीय मीडिया भी इस आतंकवादी हमले को शूटआउट, गोलीबारी और मानसिक अपंग किसी एक व्यक्ति का काम कह कर आतंकवाद के प्रति अपने सेलेक्टिव नज़रिये को प्रस्तुत कर रहा है। लेकिन पूरी दुनिया के समाजिक और वैचारिक चिंतक और ख़ुद अमेरिका में विपक्षी डेमोक्रेटिक पार्टी के नेतागण ये बयान दे रहे हैं कि ऐसी घटनाओं को केवल मानसिक विक्षिप्तता या किसी एक व्यक्ति का काम कह कह कर इसको और प्रोत्साहित किया जा रहा है। ये वास्तव में नस्लीय आतंकवाद का वीभत्स रूप है जिसे अमेरिका ने सबसे अधिक प्रोत्साहित किया है और आज वो ख़ुद उसके अपने नागरिकों की मौत का कारण बन रहा है।

अमेरिका में केवल इस साल 2019 में गोलीबारी की 250 से ज्यादा घटनाएं हुई हैं। इन घटनाओं में 522 लोग अपनी जान गंवा चुके हैं और दो हजार से ज्यादा घायल हुए हैं। इस साल अमेरिका में औसतन रोजाना इस तरह की एक से ज्यादा घटना हुई हैं और ऐसी अधिकतर घटनाओं में श्वेत मूल के अमेरिकी संलिप्त हैं और पीड़ित कोई अश्वेत, भारतीय, नीग्रो या कोई अन्य धर्मावलंबी हैं। आज इससे शायद ही कोई संवेदनशील व्यक्ति इंकार कर सकता है कि जिस तरह भारत में मोदी के आने के बाद धार्मिक और जातिवादी हिंसा में वृद्धि हुई है और हिन्दू राष्ट्रवाद का उभार हो रहा है ठीक उसी तरह अमेरिका में ट्रम्प के आने के बाद दक्षिणपंथी उग्र श्वेत राष्ट्रवाद की भावना ने उभार हासिल किया है। वास्तव में दक्षिणपंथी श्वेत राष्ट्रवाद के उभार की शुरुआत द्वितीय विश्वयुद्ध के होने से पहले ही एक आंदोलन के रूप में शुरू हुई थी जो के.के.के कहलाती थी। इसका संस्थापक विलियम जोज़ेफ़ था जो एक श्वेत अमेरिकी नागरिक था। 

के. के. के का पूरा उच्चारण कू क्लक्स कलान ( Ku Klux Klan )  है और ये संगठन अमेरिका के अश्वेत नागरिकों को श्वेत नागरिकों के समान मौलिक अधिकार दिए जाने का कट्टर विरोधी था और श्वेत नस्ल की सत्ता और वर्चस्व इसका मूल उद्देश्य थी। इस विचारधारा के कारण हज़ारों अश्वेत अमेरिकी नागरिक आतंकवाद का शिकार हुए लेकिन 1950 और 1960 के दशक में अश्वेत अमेरिकी पादरी मार्टिन लूथर ने एक अहिंसा आंदोलन शुरू किया। पहले इस आंदोलन को श्वेत अमेरिकियों ने उतनी गंभीरता से नहीं लिया लेकिन मार्टिन लूथर की निर्मम हत्या के बाद अमेरिका में जागरूकता आई और के.के.केजैसे कटटरवादी संगठन का अंत तो हो गया लेकिन उसकी विध्वंसकारी विचारधारा का ज़हर आज भी वहाँ समाजिक रूप से लोगों को प्रभावित कर रहा है और अमेरिका में 9 /11 की घटना के बाद उसमें इस्लामोफ़ोबिया का तत्व भी समाहित कर चुका है जो धीरे धीरे विकराल रूप धरता चला जा रहा है।

1960 के दशक में ब्रिटेन में एनिक पावेल का उदय हुआ था जो श्वेत दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद का हिमायती था और उसने ब्रिटेन से तमाम एशियाइयों और अफ़्रीक़ीयों को निकालने की मुहिम छेड़ रखी थी और बाद में उसे भी मुसलमानों की तरफ़ मोड़ दिया था। आज सिर्फ अमेरिका ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में धुर प्रतिक्रियावादी और दक्षिणपंथी राजनीति का उभार हो रहा है और कई देशों ऐसी ताक़तें सत्ता में भी आ रही हैं। कहीं उसका आधार धार्मिक है, कहीं रंगभेद और कहीं नस्लभेद।

28 मार्च,1963 को ऐतिहासिक वाशिंगटन रैली में सुधारवादी मार्टिन लूथर ने कहा था- 'मेरा एक सपना है कि एक दिन ऐसा आएगा जब अमेरिका की धरती पर नस्लवाद और रंगभेद की सारी खाइयां पाट दी जाएंगी, मुश्किलों के पहाड़ मिट जाएंगे, ऊबड़-खाबड़ रास्ते समतल हो जाएंगे और इस दिव्य दृश्य को अमेरिका का हर बाशिंदा, चाहे वह किसी भी रंग या नस्ल का हो, साथ-साथ देखेगा।

' बराक ओबामा का राष्ट्रपति निर्वाचित होना इस बात की ज़मानत थी के अमेरिका की जनता ने मार्टिन लूथर के सुधारवादी आंदोलन को जीवंत रूप दिया है और अब ये देश अपने अतीत की रंगभेदी और नस्लभेदी खाई को पाटने की दिशा में क़दम बढ़ा चुका है लेकिन बराक ओबामा जिस तरह वार ऑन टेरर के नाम पर पानी की तरह पैसे बहाए जाने के कारण अमेरिका की जर्जर हो चुकी अर्थव्यवस्था को संभालने में असफ़ल रहे बल्कि ओबामा के दो कार्यकाल पूरा होने पर भी अमेरिकी अर्थव्यवस्था मन्दी के भँवरजाल से बाहर नहीं निकल पायी और इसका नतीजा अमेरिकी समाज में आर्थिक असमानता की खाई के चौड़ा होने के रूप में सामने आया और वहाँ की श्वेत आबादी ने अपनी हर समस्या के लिए अश्वेतों और प्रवासियों को समझा जिसका प्रत्यक्ष लाभ ट्रम्प ने अपने चुनावी रणनीति के लिए उठाया और उनका पूरा चुनावी कैम्पेन निहायत बेहूदा नारी-विरोधी बातों, प्रवासी-विरोधी, इस्लाम-विरोधी नारों के आधार पर डिज़ाइन किया गया जिसमें वो सफ़ल रहे।

वैसे तो अमेरिका में नस्लवादी और रंगभेदी हिंसा की घटनाओं का इतिहास काफ़ी पुराना है लेकिन 9/11 के आतंकवादी हमलों के बाद वहां इसमें अप्रत्याशित वृद्धि हुई है। इसका एक मुख्य कारण ये भी रहा है कि अमेरिका ने वॉर ऑन टेरर के नाम पर इराक़ अफ़गानिस्तान लीबिया शाम यमन जैसे देशों में घुसपैठ कर वहां तबाही बरपा की और इस मुहिम के उसने पानी की तरह पैसा बहाया जिस कारण वहां की अर्थव्यवस्था बुरी तरह जर्जर हो चुकी है और वहां आर्थिक असमानताओं ने पैर पसारने शुरू किए।

अमेरिका समाज मे असन्तोष पनप रहा है और ट्रंप ने अपनी चुनावी मुहिम में अमेरिका फ़र्स्ट के नारे के साथ अमेरिका की जनता को फिर से महान बनाने के सब्ज़बाग़ दिखाए और जनता को ये विश्वास दिलाया कि उनकी समस्याओं की वजह बाहर से आ रहे प्रवासी मज़दूर हैं और वो राष्ट्रपति बनने के बाद आप्रवासन रोकने की दिशा में उचित क़दम उठाएंगे। इस्लामोफोबिया से ग्रस्त जनता की चेतना की संतुष्टि के लिए ट्रम्प ने ये कहा था के मुसलमानों के अमेरिका आने पर प्रतिबंध लगाएंगे। उनका पूरा चुनावी अभियान इसी तरह की निम्नस्तरीय घृणित बातों पर आधारित रहा और जनता ने ऐसे ही खोखले नारों की चमक से धोखा खा कर उन्हें कामयाब कर दिया। फ़िलहाल कुछ ऐसी ही बातों के ज़रिये नरेन्‍द्र मोदी भी भारत के बहुत से ग़रीबों और मज़दूरों का वोट पाने में कामयाब हो रहे हैं।

ट्रम्प के उदय के बाद अमेरिका में दशकों से पैर जमाये इस दक्षिणपंथी उग्र श्वेत राष्ट्रवाद की भावना में आक्रामक वृद्धि हुई है जिसे स्वयं ट्रंप प्रवासी विरोधी, नारी विरोधी, और इस्लाम विरोधी बयानों और नीतियों के द्वारा प्रोत्साहित कर रहे हैं। ट्रम्प के सत्ता में आते ही 40 प्रतिशत घृणा अपराध बढ़े हैं और अमेरिका की फ़ेडरल ब्यूरो ऑफ़ इन्वेस्टिगेशन की वर्ष 2017 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार 7,175 धार्मिक और रंग नस्ल आधारित हिसंक घटनाएं हुई हैं और तक़रीबन 8,493 लोग इस का शिकार हुए लेकिन अमेरिका इसे आतंकवाद नहीं मानता है बल्कि इन तमाम आतंकवादी घटनाओं को Hate Crime की श्रेणी में इन घटनाओं की वीभत्सता को कम कर के इसके सामान्यीकरण का प्रयास किया जाता रहा है।

नस्लीय घृणा की जड़ें अमेरिका जैसे तथाकथित उदारवादी देश में इतनी गहरी हैं कि इसका शिकार केवल अमेरिकी और ग़ैर अमेरिकी मूल के अश्वेत ही नही बल्कि एशियाई मूल के हर सांवले गेहुएं रंग के व्यक्ति को शक और हिक़ारत से देखने की प्रवृत्ति वहाँ हाल के कुछ वर्षों में इतनी बढ़ी है के इस वक़्त अमेरिका में 60 प्रतिशत से अधिक अपराध केवल नस्लीय रंगभेदी सोच की वजह से हो रहे हैं। और वहां के लोग सार्वजनिक रूप से ये चिल्लाते हैं कि हमारे देश से वापस जाओ।

इस सोच का शिकार भारतीय सिख और हिन्दू भी हो रहे हैं और मुसलमान तो हैं ही। अमेरिका में कभी गुरुद्वारे पर हमला हो रहा है तो कभी मंदिर पर और कभी मस्जिद पर। कभी किसी सिख की पगड़ी देख कर उसपर हमला हो रहा है तो कभी किसी और धर्म की धार्मिक वेशभूषा देख कर उसे निशाना बनाया जा रहा है। 28 अप्रैल 2019 को कैलिफोर्निया के एक यहूदी इबादतगाह पर हमला होता है और एक व्यक्ति की मौत होती है जबके 3 घायल होते हैं। विगत वर्ष अक्टूबर में पिट्सबर्ग में ऐसे ही हमले में 11 यहूदियों की मौत होती है और वहां हमलावर गोली चलाते वक्त ये चिल्लाता है के दुनिया के तमाम यहूदियों को मर जाना चाहिए। धार्मिक आतंकवाद का ये सबसे बेशर्म और घृणित रूप है लेकिन दुनिया का तथाकथित चौधरी अमेरिका इसे आतंकवाद नहीं मानता है। बल्कि उसके लिए ये सभी घटनाएं एक सिरफिरे की करतूत तक ही सीमित रहती है।

ये महज़ इत्तेफ़ाक़ नहीं है कि न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च में मस्जिदों पर हमला करने वाला आतंकवादी श्वेत आतंकवादी ब्रेंटन टैरेंट ने आतंकी हमलों से पहले अपना एक घोषणापत्र 'दि ग्रेट रिप्लेसमेंट' तैयार किया था जिसमें उसने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को श्वेत पहचान का प्रतीक बताया था। बिल्कुल इसी शैली में टेक्सास के वॉलमार्ट में गोलीबारी करने वाले श्वेत आतंकी पैट्रिक क्रुसियस ने भी हमलों से पहले एक घोषणापत्र जारी किया और इसमें इस हमले को “टेक्सास में लातिन अमेरिकियों के आक्रमण” का जवाब बताया गया है। आपको ये बताता चलूं के अल् पासो की6,80,000 की आबादी में 83 प्रतिशत लोग हिस्पेनिक मूल के हैं। यह घोषणापत्र श्वेतों को सर्वश्रेष्ठ दिखाने वाली भाषा एवं आप्रवासियों एवं लातिन अमेरिकियों के खिलाफ नस्ली घृणा और नफ़रत से भरा हुआ है।

पिट्सबर्ग में भी श्वेत आतंकी रॉबर्ट बोवर्स ऐसा ही घोषणापत्र लिखता है। लगभग हर जगह ऐसे हमलों में पैटर्न एक समान है कि श्वेत आतंकी, हमले से पहले घोषणापत्र लिखते हैं और ट्रम्प को श्वेत अस्मिता का प्रतीक मानते हैं।शायद यही वजह रही होगी के जब दुनिया भर के लगभग सभी उदारवादी, मानवतावादी, देश, वहाँ के सम्वेदनशील अवाम और सत्ता ऐसी घटनाओं को आतंकवादी हमला कहते हैं और दुनिया की एक बड़ी आबादी ये मानती है कि अमेरिका में निरंतर इस तरह की हिसंक घटनाओं में वृद्धि श्वेत दक्षिणपंथी उग्र राष्ट्रवाद का उभार है तो अमेरकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इस दुनिया भर में बन रही इस धारणा को ख़ारिज करते हैं कि ये नरसंहार ये साबित नहीं करते कि विश्व में श्वेत अतिवाद एक बढ़ती समस्या है।

बिल्कुल यही सूरत ए हाल इस वक़्त अपने देश मे भी है कि विगत 5-6 सालों में हिन्दू राष्ट्रवाद का उभार हुआ है और नरेंद्र मोदी इस हिन्दू राष्ट्रवाद के प्रतीक के तौर पर स्थापित हुए हैं। धार्मिक जातीय हिंसा में बढ़ोतरी हुई है और ऐसी हिसंक घटनाओं को सत्ता का संरक्षण मिल रहा है। यही कारण है के भारत में दक्षिणपंथी राजनीति में ट्रंप एक नायक के तौर पर स्वीकार किये गए हैं और यहां तक के मोदी और संघ के पैरोकारों द्वारा उनकी सफ़लता के लिए यहां भारत मे अब धार्मिक अनुष्ठान तक आयोजित किये जा रहे हैं। ट्रम्प और मोदी के बीच की एक समानता ये भी है कि माना जाता है कि दोनों ही झूठ बहुत बोलते हैं और जनता को लोकलुभावन वादों और नारों के फ़रेब में उलझा कर रखने में महारत रखते हैं। अंतर बस ये है के अमेरिका का मीडिया ट्रम्प के झूठ पर सवाल खड़े करता है और भारत मे मीडिया मोदी के झूठ को सच के तौर पर प्रचारित करते हुए ये धारणा स्थापित करने की कोशिश करता है के अंतिम सत्य यही है।

शायद इसी लिए अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प भले ही इन तमाम हिंसक वारदातों को दक्षिणपंथी उग्र श्वेत राष्ट्रवाद का विभत्स और हिंसक मानने से इनकार करते हों लेकिन अब स्थानीय मीडिया का एक बड़ा तबक़ा ये मानने लगा है कि अगर इस पर अविलम्ब लगाम नहीं लगाया और आत्ममंथन नहीं किया गया तो ये केवल अमेरिका की आन्तरिक सुरक्षा के लिए बहुत घातक सिद्ध होगा। न्यूयार्क टाइम्स ने अपने एक संपादकीय में जिसका शीर्षक We Have A White Nationalist Terrorist Problem है में लिखा है के " समय आ गया है अमेरिकी नेतृत्वकर्ता और अवाम दोनों इस बात की स्वीकारोक्ति कर लें कि श्वेत अमेरिकी नागरिक भी आतंकवादी हो सकते हैं। अख़बार आगे लिखता है के टेक्सास और ओहायो के हमलावर अगर मुसलमान होते तो अमेरिका की सत्ता और इसके अंतराष्ट्रीय सहयोगी ने उनके ख़िलाफ़ मोर्चाबंदी में ज़रा भी देर नहीं की होती।

अंधाधुंध गिरफ़्तारी, हथियारों की उपलब्धता को रोकने और धार्मिक पूजा स्थलों की निगरानी और कई मुस्लिम देशों पर पाबंदी लगाने में अपनी पूरी ताक़त झोंक देते। लेकिन अमेरिका को इन श्वेतआतंकवादियों के विरुद्ध भी उसी तरह सख़्ती से पेश आना होगा क्योंकि ये देश की आंतरिक सुरक्षा से जुड़ा मामला है। दुनिया का इतिहास रहा है के जब भी किसी भी देश मे दक्षिणपंथी विचार सत्ता मे आता हैं और उसके झंडाबरदार जनसरोकार के मुद्दों पर विफ़ल होते हैं तो इसी धार्मिक जातिगत नस्लीय हिंसा का सहारा ले कर अपना वोट बैंक बना कर रखना चाहते हैं। जर्मनी में हिटलर और इटली में मुसोलिनी ने भी यही किया था लेकिन इतिहास के पन्नों में तानाशाह के तौर पर दर्ज हुए लेकिन आज उसी फासिस्ट नाजीवादी विचारधारा के अनुयायी अपने अपने राष्ट्रों में राष्ट्रवादी कहला रहे हैं। हलांकि कुछ सामाजिक राजनीतिक चिंतक ट्रम्प को फ़ासिस्ट नहीं मानते हैं लेकिन ये एक दूसरा विषय है। पूंजीवादी सम्राज्यवादी शक्तियां और उसके प्रचारक फ़ासिस्ट ही कहलाएंगे।

वैश्विक आतंकवाद के संदर्भ में अगर हम बात करें तो इतिहास ये बताता है कि नस्लभेदी और रंगभेदी हिंसा का इतिहास किसी भी तरह के अन्य आतंकवाद से कहीं अधिक पुराना है लेकिन प्रचलित अर्थ में दुनिया मे उसे आतंकवाद की श्रेणी में नहीं रखा जाता बल्कि इस्लामोफोबिया से ग्रस्त पश्चिमी मीडिया और पूंजीवादी सम्राज्यवादी सत्ता का कॉकटेल आतंकवाद को केवल इस्लाम से जोड़ कर प्रचारित करता है। समय रहते इस नस्लीय आतंकवाद पर लगाम नहीं लगाई गई तो ये वैश्विक शांति के लिए चुनौती बनता जा रहा है। अमेरिका जैसा सम्राज्यवादी पूंजीवादी देश भले ही अपने आप को लोकतंत्र मानवाधिकार और समाजिक न्याय का झंडाबरदार कहता है लेकिन उसका इतिहास पूरी दुनिया में सबसे ज़्यादा रक्तरंजित रहा है। आज स्वयं उसे अपने गिरेबां में झांकने की ज़रूरत है। सम्राज्यवादी और पूंजीवादी सत्ता के नशे में गन कल्चर को बढ़ावा देते देते अमेरिका आज ख़ुद अपने नागरिकों की सुरक्षा नहीं कर पा रहा है लेकिन अंकल सैम की दादागिरी है कि कम होती नहीं।

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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