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ये घातक कृषि सुधार पूंजी के लिए बस एक मौक़ा है!

मोदी सरकार के ये क़ानून एक नये तरह के बिचौलिए यानी फ़ायदा की तलाश करते कुलीन वर्ग के सीईओ के छल-प्रपंच को किसानों के सामने बेनकाब कर देंगे।
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ब्रेख़्त ने पूछा था, "जब कोई कोतवाल को काम पर रख सकता है तो भला वह क़ातिल को क्यों भेजे ?" और नीत्शे के लिए तो पूंजीवादी स्टेट के न्यायिक आदेशों के जल्लाद होने के नाते ये कोतवाल सभी क्रूर लोगों में सबसे क्रूर शख़्स होता है,जो क़ानूनी रूप से स्वीकृत क्रूरता के साथ जनसमूह को निपटा देता है। अगर कोतवाल ही सांसद बन जायें, तब तो इसका कार्यान्वयन संवैधानिक हो ही जाता है।

भारत में निर्वाचित इन कोतवालों के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ते हुए कामगार और किसान नव-उदारवादी राष्ट्र की तरफ़ से शुरू किये गये बेदखली के ज़रिये हड़प लेने की प्रक्रिया को टालने की कोशिश कर रहे हैं। कोविड-19 की आपदा और संसद में भारी बहुमत ने सरकार को कॉर्पोरेट जगत के लिए कृषि क्षेत्र के दरवाज़े को खोल देने का एक दुर्लभ अवसर मुहैया करा दिया है। इस हक़ीक़त से सब लोग वाकिफ़ हैं कि कॉरपोरेटाइजेशन के ज़रिये विकास के प्रमुख मंत्र को चुनौती दे पाना तो आसान नहीं रह गया है, लेकिन किसानों ने भी अपनी पैदावार के न्यूनतम समर्थन मूल्य को अपना मुख्य नारा ज़रूर बना लिया है।

सामंती व्यवस्था के लिए ज़मीन हमेशा से ही स्वामित्व और वर्चस्व का स्रोत रही है, लेकिन छोटे भू-स्वामी किसानों के लिए तो भूमि गर्व का प्रतीक रहा है, आत्मसम्मान की अभिव्यक्ति रही है। ग्रामीण पंजाब में ग़ैर-वाणिज्यिक घरेलू उत्पादन और छोटी-छोटी इस्तेमाल की चीज़ों का उत्पादन लंबे समय तक साथ-साथ होता रहा है। ग्रामीण समुदायों में मौसम के आख़िर में वस्तु विनिमय प्रणाली और फ़सल के रूप में भुगतान 1970 के दशक तक विनिमय का एक प्रमुख माध्यम बना रहा था। तब तक बहुत सारे गांवों का विद्युतीकरण नहीं हुआ था जब तक बारिश के अलावा, पुराने नहर आधारित सिंचाई प्रणाली ही भूमि को पानी उपलब्ध कराने का एकमात्र साधन था। किसानों के बीच पानी के विवाद के चलते होने वाले जान माल के नुकसान और स्थायी दुश्मनी असामान्य नहीं थे।

मगर, जैसे ही ग्रामीण क्षेत्रों का विद्युतीकरण होना शुरू हुआ, वैसे ही मामूली तकनीकी बदलावों से अमीर किसानों को काफ़ी लाभ होना भी शुरु हो गया। नलकूपों, ट्रैक्टरों और हार्वेस्टर के इस्तेमाल ने श्रम को उत्पादन के साधनों से मुक्त कर दिया। नये शहरों के निर्माण ने इन ख़ाली बैठे श्रमिकों को उन शहरों में आकर्षित किया जहां सस्ते श्रम मुहैया कराते हुए इन श्रमिकों ने औद्योगिकीकरण की पूर्व शर्तों को पूरा कर दिया।

इस उपमहाद्वीप के इतिहास में इस तकनीकी बदलाव की आमद सुस्त रफ़्तार से धीरे-धीरे हुई थी, लेकिन इन बदालवों ने ग्रामीण-शहरी विभाजन में एक महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय परिवर्तन ला दिया। प्रवासन की अपेक्षाकृत इस धीमी प्रक्रिया ने उन शहरों में औद्योगीकरण की सुस्ती को प्रतिबिंबित किया जिनमें ज़रूरी बुनियादी ढांचे और औद्योगिक आधार की कमी थी। यूरोप, ख़ास तौर पर इंग्लैंड, और संयुक्त राज्य अमेरिका के उलट, व्यापक रूप से भू-स्वामित्व वाले इस उपमहाद्वीप में विभाजन के तुरंत बाद तेज़ी से औद्योगिकीकरण के चरण में प्रवेश करने की परिस्थितियों का अभाव था और इसलिए यहां आयरिश या अश्वेत ग़ुलामों की ज़रूरत नहीं थी। ग़रीबी और आबादी काफी ज्यादा थी लेकिन अंग्रेज़ों की धन-दौलत हड़प लेने के पुराने रवैये ने कुछ ही संसाधनों को बख़्शा और शासक वर्ग के बीच मुश्किल से कुछ बचा रह पाया।

पूर्व सोवियत संघ ने भारत को बेहद ज़रूरी भारी उद्योग मुहैया कराये थे। इस मदद में किसी आधिपत्य का ठप्पा नहीं था और इसमें आईएमएफ और विश्व बैंक की लुटेरी शर्तें भी नहीं थीं। हालांकि,विभाजित पंजाब की राज्य संरचना काफ़ी हद तक सामंती ही रही। सामंतवाद के लिए एकदम उपयुक्त पश्चिमी पंजाब इसकी ज़बरदस्त जकड़ में फंसा रहा, जबकि तीन प्रांतों में विभाजित पंजाब का पूर्वी भाग कृषि प्रधान और उतना ही पिछड़ा भी रहा, जितना कि इसका मुसलमान बाहुल्य वाला आधा भाग रहा।

भूमि सुधारों को लेकर क़ानून बनाने और उन क़ानूनों को लागू करने के लिए 1949 के भारतीय संविधान ने राज्यों को आवश्यक शक्तियां प्रदान कीं, लेकिन असरदार वर्गों के हित तब भी प्रबल रहे। उत्तर प्रदेश, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्य जहां शक्ति का संतुलन श्रमिकों के पक्ष में था उन राज्यों ने भूमि सुधारों में सक्रिय रूप से भाग लिया, लेकिन, पंजाब और राजस्थान में नाममात्र के लिए बदलाव हुए (हेमंत सिंह, 2015)।

विभिन्न राज्यों के आधे-अधूरे प्रयासों के अलावा विरासत के चलते होने वाले ज़मीन के बटवारे और वितरण की समानांतर प्रक्रिया ने प्रभावी रूप से मध्य पंजाब के बड़े भू-भाग के आकार को कम कर दिया। उपयोगिता के क़ानून का प्रभुत्व स्थापित किया गया था लेकिन इन शहरी क्षेत्रों के विपरीत कृषि क्षेत्र के आक्रामक निगमीकरण को अमल में नहीं लाया जा सका।

कॉरपोरेट के लिए एक या तीनों पूर्व शर्तें-अपने साधनों और उत्पादन के साधनों से श्रम को मुक्त कर देना, तीव्र शोषण के ज़रिये श्रम की उत्पादकता में वृद्धि और/या प्रौद्योगिकी की शुरुआत और श्रम शक्ति के विनिर्देश (specification) और विशेषज्ञता को पूरा नहीं किया गया।

संसद में अपने प्रचंड बहुमत के ज़रिये मोदी शासन ने इन बदलावों को लागू करने के लिए नये क़ानून पेश कर दिये हैं। सवाल है कि इन क़ानूनों के क्या-क्या असर होंगे? पहले से ही पीड़ित किसानों को इन क़ाननों से और कितनी परेशानियां होंगी? क्या सरकार का इन क़ानूनों को लागू करना न्यायसंगत है? ये कुछ तात्कालिक प्रश्न हैं।

मानव श्रम शक्ति एक ऐसी अविभाज्य गतिविधि है, जो हर मनुष्य में निहित है,लेकिन पूंजी इसे एक ऐसी वस्तु के तौर पर देखती है, जिसे बाज़ार में बेचा जा सकता है। प्रकृति का हिस्सा होने के नाते ज़मीन आम संपत्ति है, लेकिन निजी हितों ने प्रकृति को निजी संपत्ति के तौर पर अपने कब्ज़े में ले लिया है। निजी संपत्ति के रूप में सामाजिक धन का विनियोजन और उत्पादक को उनकी गतिविधि से अलग कर देना उस पूंजीवाद का बड़ा विरोधाभास है, जो स्वतंत्रता की तो वक़ालत करता है, लेकिन व्यवहार में ग़ुलाम बनाने का काम करता है।

भारत सरकार और विपक्ष, दोनों ही खुल्लमखुल्ला नव-उदारवादी हैं, और वे इसे लेकर कोई शब्द भी नहीं बोलते हैं। दुनिया की सबसे बड़ी आबादी में से एक को कॉरपोरेट क्षेत्र के ज़रिये वैकल्पिक भोजन प्रदान करने की आड़ में उन्होंने इन किसानों को बाज़ार के बर्बर क़ानूनों के हवाले करने का फ़ैसला कर लिया है। इससे उस नैतिकता के सवाल के बिना बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी और पहले से ही आबादी के भार में दबे शहरों में जबरन पलायन को बढ़ावा मिलेगा, जो विनिमय-मूल्य प्रणाली में कभी नहीं था।

मज़दूर वर्ग पर एक साथ होने वाला यह हमला कोई संयोग नहीं है। काम का लंबा समय, पूंजीपतियों का कामगारों को काम पर रखने और निकाल देने की मनमानी और कामकाज के बड़े पैमाने पर अमानवीय माहौल को बनाये रखना असल में उत्पादकों से अधिकतम अधिशेष मूल्य को निचोड़ने का जांचे-परखे और आज़माये हुए उपाय हैं। रोज़गार पैदा करने का पूंजीवादी नारा जितना झूठा है, उतना ही फ़रेबी नारा धन पैदा करने वाला नारा है। अगर यह सच होता, तो पूंजीपतियों ने श्रमिकों की भागीदारी के बिना ही अपनी क़िस्मत का निर्माण कर लिया होता। दरअस्ल, पूंजीपति नहीं, बल्कि यह मानव श्रम ही है, जो धन का सृजन करता है।

पूंजीवाद तब तक रोज़गार पैदा नहीं करता, जब तक कि ऐसा करना उसके हित के लिए ज़रूरी न हो। यह श्रमिकों को उत्पादन के उसके साधनों, यानी कारखाने, ज़मीन, खेतों आदि से अलग कर देता है और पूंजी-सघन क्षेत्रों में बेरोज़गार श्रमिकों की एक ऐसी फ़ौज तैयार करता है, जिससे मज़दूरी और भी कम हो जाती है। अपने ख़ून-पसीने से दुनिया का निर्माण करते हुए मानव श्रम खुद को निरर्थक बना लेता है। इन सुधारों की शुरुआत करके मोदी सरकार अब इसी चीज़ को अंजाम देने जा रही है।

न्यूनतम समर्थन मूल्य के ख़त्म हो जाने से किसान एक ऐसे बिचौलिए के छल-प्रपंच के हवाले कर दिये जायेंगे, जो दरअस्ल इस कुलीन वर्ग के सीओई हैं; यह एक ऐसा अभिशाप है, जिसका मतलब है- किसानों के सर से 1949 के भारतीय संविधान के साये का हट जाना। सवाल है कि क्या कॉरपोरेट क्षेत्र ने तकनीकी बदलाव की इस प्रक्रिया को शुरू कर दिया है, इस पर बहस अब भी चल रही है। पूंजीपति उत्पादकता में बढ़ोत्तरी तो चाहता है, लेकिन अपनी स्थायी पूंजी को नहीं बढ़ाना चाहता। अगर किसी श्रमिक का श्रम प्रौद्योगिकी के मुक़ाबले कम खर्चीला साबित होता है, तो पूंजीपति अपनी स्थायी पूंजी में इज़ाफ़ा करना पसंद नहीं करेगा, क्योंकि कुछ ही वर्षों में इसके पुराने होने की संभावना रहती है।

कॉरपोरेट क्षेत्र का यह हमला अनिवार्य रूप से ज़मीन की क़ीमतों में अटकलबाज़ी को जन्म देता है।एक वस्तु होने के नाते ज़मीन का मूल्यांकन कृषि से जुड़ी किसी वस्तु या किसी गृह निर्माण बाज़ार के तौर पर फ़ायदेमंद बनाने के लिए किया जाता है। वैकल्पिक और "समृद्ध कृषि" के रूप में भारत की बढ़ती आबादी को आत्मनिर्भर बनाने के इस विचार का अंत किसी गृह-निर्माण के बुलबुले में हो सकता है। राज्य की तरफ़ से मिलने वाले वित्तीय समर्थन के ख़त्म हो जाने के बाद किसानों को पूंजी के साथ समझौता करना होगा और उसके अनुकूल होने के लिए ऋण को लेकर बैंकों पर निर्भर रहना होगा। दोनों ही स्थितियों में उन्हें बाज़ार की अंधी ताक़तों के हवाले कर दिया जायेगा।

द वायर के साथ अपने एक साक्षात्कार में भारत में चल रहे सुधारों को लेकर प्रो अशोक गुलाटी ने इन सुधारों के पीछे काम कर रही असली ताकतों, यानी इसमें कॉरपोरेट के हाथ होने की न सिर्फ़ पुष्टि की है, बल्कि इन दो विरोधी ताक़तों के बीच शक्ति और संतुलन की भी बात कही है। सुधारों के कट्टर समर्थक होने के नाते वह सरकार से इस प्रक्रिया को लागू करने की मांग करते हुए उनका ज़ोर इस संतुलन को आपूर्ति पक्ष से मांग पक्ष की तरफ़ झुकाने को लेकर है, अगर उनकी ही बातों पर ग़ौर किया जाय, तो इससे एक दिलचस्प विरोधाभासी स्थिति सामने आती है। वह पंजाब और हरियाणा के किसानों को इस आख़िरी हक़ीक़त को स्वीकार करने की तैयारी के लिए छह महीने का समय देने को लेकर न सिर्फ़ सरकार पर दबाव डालते हैं, बल्कि एक क़दम आगे बढ़ते हुए वह सरकार से अप्रचलित हो चुके फ़सलों को छोड़कर फ़ायदेमंद फ़सलों को पैदा करने की ख़ातिर किसानों की आय को सुरक्षित करने के लिहाज़ से बतौर प्रोत्साहन राशि 20,000 करोड़ रुपये (200 बिलियन रुपये) का पैकेज देने की बात भी करते हैं।

इन बातों में मार्क्स से ली गयी एक अवधारणा कींसवाद की तरह लगती है। मोटे तौर पर मार्क्स की किताब के दूसरे खंड की तरह ही यह “कींसवादी मांग प्रबंधन 1960के दशक में आर्थिक सोच पर हावी था, जबकि मुख्य रूप से पहले खंड का विश्लेषण मौद्रिकवादी आपूर्ति-पक्ष सिद्धांत 1980 या उसके बाद की आर्थिक सोच पर हावी हो गया” (हार्वे, 2014)। मार्क्स ने इन दो खंडों में उत्पादन और प्राप्ति की विरोधाभासी समग्रता को उजागर किया है, और नवउदारवादी पूंजीवाद के तहत ये दोनों ही प्रक्रियायें समान रूप से अहम हो गयी हैं।

किसानों को दी जाने वाली प्रोत्साहन को लेकर सरकार को दिये गये गुलाटी के सुझाव को "सोची-समझी बुर्जुआ लूट" के रूप में खारिज तो नहीं किया जा सकता है; इसके पीछे एक खास तर्क भी काम कर रहा है। किसानों को प्रोत्साहन राशि देकर वह न सिर्फ़ उत्पादन के स्तर पर, बल्कि उपभोग के समय पैदा होने वाले संकट को भी दूर करने का प्रयास कर रहे हैं। असल में स्पष्ट समझ पाने की नाकामी ही पूंजीवाद का अंतर्निहित दोष है: अगर किसान के पास पैसे नहीं होंगे, तो उस अधिशेष की खपत कौन करेगा? एक वर्ग के रूप में पूंजीपति इसे अकेले अंजाम नहीं दे सकते। उन्हें इस काम के लिए उपभोक्ताओं की ज़रूरत तो होगी ही।

बुर्जुआ बुद्धिजीवियों के लिए तो यह दुनिया प्रतिस्पर्धा से अलग कुछ भी नहीं है और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में तो प्रतिस्पर्धा वाली यह विशिष्टता अंतर्निहित होती ही है। हालांकि, लोग इस बात से बेख़बर नहीं हैं कि प्रतिस्पर्धा और एकाधिकार के बीच का यह विरोधाभास इसी प्रणाली की विशिष्टता है। गूगल, फ़ेसबुक, नाइके, ऐप्पल और कई दूसरी कंपनियां बाज़ार पर किस तरह एकाधिकार बनायी हुई हैं, यह हक़ीक़त अब किसी से छुपी हुई नहीं रह गयी है। ये चीन या दूसरे देशों में श्रमिकों को रखना और श्रम को निगल जाने का एक बेशर्म उदाहरण हैं।

इस समय, देश की अर्थव्यवस्था को चलाने में सरकार की भूमिका को लेकर की जाने वाली किसी भी तरह की बहस की मनाही हो गयी है। यहां तक कि जहां से अवधारणा का सम्बन्ध है, वह अमेरिकी सपना इतिहास के कूड़ेदान के हवाले हो चुका है, क्योंकि आज़ादी के बाज़ारू संस्करण से चोट खायी अमेरिकी जनता भी सार्वजनिक मामलों में सरकारी हस्तक्षेप नहीं चाहती है। स्वास्थ्य, शिक्षा, बेरोज़गारी भत्ता या पेंशन, नौकरियों, परिवहन और बाक़ी चीज़ों से वंचित यहां के लोग अपने जीवन से जुड़े तमाम चीज़ों को बॉंन्ड धारकों और बैंकरों के जाल के हवाले कर चुके हैं। हालांकि, स्टेट को लेकर पूंजीपतियों की एक और राय है कि वे इसके बिना शासन नहीं कर सकते। 2008 के संकट ने इस बात को तब फिर से साबित कर दिया था, जब बुश सरकार ने उन पूंजीपतियों को राहत सहायता राशि देकर सामान्य श्रमिकों को अभाव की सूली पर चढ़ा दिया था।

"रचनात्मक तबाही" उन अनेक घिसे पिटे विचारों में से एक है, जो पूंजीवादी विचारधाराओं को मोहित करता है। हालांकि उत्पादन के पूंजीवादी स्वरूप का विश्लेषण करते हुए मार्क्स ने द्वंद्वात्मक सिललिसे में पूंजीवाद की प्रगतिशील भूमिका को लागू किया था, यह विचार सीधे पूंजी से आता है, ऐसे में मूल तत्व और परिघटना दोनों ही की खोज करते हुए यह विचार सीधे-सीधे द कैपिटल से आता है। मार्क्स के लिए, यह रचनात्मक ध्वंस साथ-साथ चलने वाला एक ध्वंसात्मक सृजन भी था। अगर पूंजीवाद किसी एक क्षेत्र में उत्पादन करता है, तो दूसरे क्षेत्र में यह विनाश लाता है, क्योंकि यह समय के साथ अपने लिए गुंज़ाइश बनाता चलता है।

बेशक, धान उगाने के दौरान भारतीय किसान एक मौसम में उस पानी की बहुत बड़ी मात्रा को बर्बाद कर दे रहे हों, जो कि किसी विकासशील देश की अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण घटक है, लेकिन इस बात का तो कोई मोल ही नहीं है कि इसी दुनिया का अडानी न सिर्फ़ ऑस्ट्रेलिया, लैटिन अमेरिका आदि जैसे स्थानों पर पानी की प्रचुर मात्रा की बर्बादी का कारण बन जाता है, बल्कि जलवायु के लिए एक गंभीर ख़तरा भी पैदा करता है। ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री खनन के घिसे-पिटे और नुक़सानदेह प्रक्रिया को छोड़ने की बजाय, एक स्वच्छ कोयला रणनीति को बढ़ावा दे रहे हैं। पूंजीवाद अपनी खुद का ऐसा माहौल बनाता है, जहां प्रदूषण क्रेडिट बेचा जाता है और पूरी निडरता से प्रदूषण से सम्बन्धित नियमों की धज्जियां भी उड़ायी जाती हैं। पूंजीवाद के लिए प्रकृति महज़ एक ऐसी वस्तु है, जिसका इस्तेमाल आख़िरकार फ़ायदे का एक साधन बनाने में किया जाता है। जलवायु में अल गोर के निवेश ने कथित तौर पर उसे "कार्बन का सम्राट" बना दिया है, जिसके अपने देश में भी जलवायु प्रदूषण में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आयी है।

बारिश की कमी के चलते ऑस्ट्रेलिया का एक बड़ा हिस्सा अक्सर सूखे जैसी उस स्थिति से ग्रस्त रहता है, जो देश के कुछ हिस्सों में चरम पर चली जाती है। यह स्थिति किसानों के लिए अक्सर ज़िंदगी और मौत का मामला बन जाती है; इसकी हक़ीक़त इस देश में किसानों के बीच होने वाली आत्महत्या की उच्च दर से पता चलती है। इसके विपरीत, घातक परिस्थितियों में भी खनन मज़ूदरों ने पानी की क़िल्लत कभी महसूस नहीं की है, मगर, यहां से उन मज़दूरों की बेदखल किये जाने के ज़रिये कोयला हासिल करने की प्रक्रिया बेरोकटोक जारी है। कुछ साल पहले, जब क्वींसलैंड में न्यूमैन सरकार सत्ता में थी, तो उन्होंने “एक खदान में किसानों के विरोध के तमाम अधिकारों को ख़त्म कर दिया था और खनन कंपनियों को ग्रेट आर्टेसियन बेसिन से पानी लेने के अधिकार दे दिये थे और इसके लिए उन्हें किसी तरह की कोई क़ीमत भी नहीं चुकानी थी।” (एलन जोन्स, दिसंबर 2014)। यह सब जाना-पहचाना सा लगता है? बाज़ार के विनाशकारी सृजन के लिए इतना कुछ किया जा रहा है!

प्रोफ़ेसर गुलाटी को अनुचित प्रशासनिक ख़र्चों, अफ़सरों के ज़रिये बह निकल जाने वाले पैसों के निकलने और अकुशल मज़दूरों को किया जाने वाले उस अतिभुगतान को लेकर शिकायत है, जिसे ये मज़दूर तनख़्वाह के तौर पर पाते हैं, हालांकि प्रोफ़ेसर गुलाटी के मुताबिक़ इसे पाने के वे क़ाबिल नहीं है। यह एक सुस्त नौकरशाही से जुड़ी एक ढांचागत समस्या है, लेकिन इसकी जगह एक गलाकाट लाभ से प्रेरित प्रकार की व्यवस्था को ले आने से लोगों के हित से कहीं ज़्यादा उनका नुकसान होगा। बोलीविया में हुई हाल की घटनायें सीखने के लिहाज़ से एक सबक है। नौकरशाही की लगातार और सतर्क आलोचना से मामलों में सुधार तो हो सकता है, लेकिन सुधार कोई क्रांति नहीं है। सख़्ती के ज़रिये बलात बेरोज़गारी अकुशल श्रम से छुटकारा पाने का एक और असरदार उपाय है और सरकार ने पूंजीपतियों को इस उपाय का बेरहमी से इस्तेमाल करने की छूट दे दी है।

सुधारों के बजाय, व्यवस्था को क्रांतिकारी बदलावों की ज़रूरत है। ज़मीन को सामूहिक बना दिया जाना चाहिए और इसका इस्तेमाल विनिमय मूल्य के बजाय उपयोग मूल्य का उत्पादन करने के लिए किया जाना चाहिए। जैसा कि टेरी ईगलटन ने कहा है,"आख़िरकार, व्यक्तियों की निर्बाध ख़ुशहाली ही राजनीति का संपूर्ण मक़सद होती है" और यह तभी संभव है, जब "व्यक्तियों को फलने-फूलने का कोई आम तरीक़ा मिले।" बच्चे के साथ टब का फेंका जाना या सिरदर्द वाले किसी व्यक्ति का सर क़लम कर दिया जाना न तो इसका कोई जवाब होगा और न तो इससे विवेक का कोई संकेत मिलता है। इस तरह के काम को कोई बर्बर आदमी ही अंजाम दे सकता है, कोई सर्जन इस तरह के चिकित्सीय उपचार की इजाज़त नहीं देगा। उपचार भले ही प्रभावी साबित हो, लेकिन रोगी शायद ज़िंदा ही नहीं रहे।

परेशानियों के अलावे खोने के लिए श्रमिकों और किसानों के पास कुछ भी नहीं है। कामयाबी या नाकामी उनके संगठन पर निर्भर करेगी और इस संगठन को एक अधिनायकवादी शासन और उसके उस मीडिया की ताक़त के ख़िलाफ़ खड़ा होना होगा, जो शासन की उंगलियों के इशारे पर नाचता है। भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय गोता लगा रही है। महामारी ने इसकी नाकामियों को सामने ला खड़ा किया है। लगता है कि फ़ासीवाद पर घातक प्रहार करने का वक़्त आ गया है और लोगों को अपनी स्वाभाविकता पर भरोसा करना होगा; जैसा कि थियोडोर एडोर्नो ने कहा है, “शिल्पकार के हाथों का श्रम, दुनिया के एक विचार पर डटे रहने का ही संकेत नहीं है, बल्कि एक जीवट जीवन का प्रतिबिंब भी है।

लेखक ऑस्ट्रेलियाई पाकिस्तानी लेखक, प्रमुख स्तंभकार और ऑस्ट्रेलिया स्थित वेस्टर्न सिडनी विश्वविद्यालय से जुड़े एक जाने-माने शख़्सियत हैं। ये लेखक निजी विचार हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

https://www.newsclick.in/For-Capital-Calamitous-Farm-Reforms-Opportunity

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