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भारत का शिक्षा का अधिकार कानून वस्तुतः असफल साबित हो रहा है 

हाल के दिनों में आरटीई मुकदमेबाजी उन स्कूलों के इर्दगिर्द चलाई जा रही हैं, जो उलजुलूल आधार पर बच्चों को दाखिला देने से मना कर रहे हैं।
भारत का शिक्षा का अधिकार कानून वस्तुतः असफल साबित हो रहा है 

शिक्षा के अधिकार को अमली जामा पहनाने के प्रयास को निजी और राज्य दोनों ही ओर से अनेकों चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है। दिल्ली स्थित वकीलों निपुण अरोरा और शिवकृत राय की राय में इससे निपटने के लिए अध्यापकों और स्कूल प्रशासकों के लिए एक रेगुलेटरी बॉडी की स्थापना की आवश्यकता है।

राइट टू एजुकेशन (आरटीई) का अपना एक दिलचस्प इतिहास रहा है। अपने आरंभ में यह राज्य की नीति निर्देशक सिद्धांत के तौर पर जाना जाता था, और इसलिए अपनी प्रकृति में यह गैर-प्रवर्तनीय था। लेकिन इसके उपरान्त न्यायिक घोषणाओं के जरिये यह मान्यता मिलने लगी कि शिक्षा संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत एक गरिमापूर्ण जीवन के अभिन्न अंग के तौर पर है। और इस प्रकार इसे अपनी प्रकृति में लागू करने योग्य बनाया जा सका।

2002 में जाकर आरटीई कानून को वैधानिक वैधता प्राप्त हुई, जब संसद ने भारतीय संविधान में अनुच्छेद 21ए को शामिल किया और इसे मौलिक अधिकार के तौर पर ठोस आकार देने का काम किया। 2009 में संसद ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 को अधिनियमित करते हुए इस अधिकार को और सुदृढ़ करने के लिए एक और कदम उठाया। यह अधिनियम शिक्षा के अधिकार के संबंध में नागरिकों के अधिकारों और राज्य के दायित्वों के बारे में विस्तार से चर्चा करता है।

इन सारे सक्रिय प्रयासों के बावजूद राज्य और निजी संस्थान भारी पैमाने पर इस अधिकार का उल्लंघन करना जारी रखे हुए हैं।

शिक्षकों और स्कूल प्रशासकों की एक प्रोफेशनल रेगुलेटरी बॉडी है जो स्कूलों के नियमन को शिक्षकों के नियमन से अलग करने का काम करता है।

हाल के दिनों में आरटीई मुकदमेबाजी उन स्कूलों के इर्दगिर्द चलाई जा रही हैं, जो उलजुलूल आधार पर बच्चों को दाखिला देने से मना कर रहे हैं। इसमें स्कूल प्रशासकों की ओर से बच्चों को समुचित शिक्षा हासिल कर पाने को बार-बार बाधित करने की घटनाएं शामिल हैं।

निजी स्कूलों द्वारा आरटीई उल्लंघन की घटनाएं 

मुंबई स्थित वाशी के सेंट लॉरेंस स्कूल ने हाल ही में एक बच्चे को सिर्फ इसलिए अपने स्कूल में दाखिला नहीं दिया क्योंकि उसकी देखरेख 'एकल-अभिभावक बच्चे' के तौर पर हो रही थी। स्कूल की प्रधानाध्यापिका को यह कहते हुए रिकॉर्ड किया गया था कि “हम एकल-अभिभावकों वाले बच्चों की देख-रेख नहीं कर सकते। वे अपने आप में एक भारी समस्या हैं।” इस वीडियो के ऑनलाइन वायरल हो जाने और शिक्षा विभाग द्वारा इस बाबत स्पष्टीकरण माँगने के बाद जाकर प्रधानाध्यापिका का कहना था कि आवश्यक रिक्त स्थान न होने के कारण दाखिला निरस्त करना पड़ा था। ठीक उसी दौरान उन्होंने कहा कि वे सवालों के घेरे में रह रहे बच्चे को अपने स्कूल में दाखिला देने के लिए तैयार हैं।

आख़िरकार बच्चे को किसी अन्य स्कूल में दाखिला लेना पड़ा था।

ऐसा प्रतीत होता है कि शिक्षा विभाग को प्रधानाध्यापिका के रुख में अंतर्निहित विरोधाभास नजर नहीं आया: अगर दाखिले से इंकार की वजह यदि सीटों की कमी थी तो शुरू-शुरू में इस आवेदन को ही क्यों स्वीकार किया गया था? इसके आलावा अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर उन्होंने यह क्यों कहा कि एकल माता-पिता वाले बच्चे "एक भारी समस्या होते हैं"? और इस सबके बाद, अब वे किस हैसियत से दाखिला देने का प्रस्ताव पेश कर रही हैं, जब वहाँ कोई सीट ही खाली नहीं थी?

स्पष्ट तौर पर स्कूल उन माता-पिताओं के बच्चों को दाखिला नहीं देना चाहता था, जो ‘आदर्श परिवार’ के पारंपरिक (पितृसत्तात्मक) खांचों के अनुरूप फिट नहीं बैठते, लेकिन अब रंगे हाथों पकड़े जाने पर उनकी स्थिति ख़राब थी। बहरहाल, कुलमिलाकर शिक्षा विभाग ने प्रधानाध्यापिका के ‘माफीनामे’ को स्वीकार कर लिया है।

गड़बड़ी करने वाले प्रशासकों के खिलाफ किसी भी प्रकार की कार्यवाई करने का अधिकार स्कूलों की प्रबंधन समिति या सरकार के पास है।

इसी प्रकार दिल्ली के वसंत विहार में स्थित मॉडर्न स्कूल ने हाल ही में आर्थिक तौर पर कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) से संबंधित एक बच्चे को दाखिला देने से इंकार कर दिया था, जिसे दिल्ली सरकार द्वारा बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम (आरटीई अधिनियम) के तहत यह स्कूल आवंटित हुआ था। आरटीई अधिनियम के तहत ईडब्ल्यूएस से संबंधित छात्रों के लिए 25% आरक्षण को अनिवार्य बना दिए जाने के बावजूद स्कूल का दावा था कि उसके पास पहली कक्षा के लिए कोई सीट रिक्त नहीं थी, और वह सिर्फ प्री-स्कूल वाली कक्षाओं में ही दाखिला दे सकता है।

बच्चे ने इसके खिलाफ जेजीएलएस लीगल एड क्लिनिक के माध्यम से दिल्ली उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। अदालत ने प्रथम दृष्टया यह मामला बच्चे के हक में पाया, और आदेश दिया कि मामले में फैसला आने तक बच्चे के लिए एक सीट खाली रखी जाए। बाद में जाकर स्कूल ने खुलासा किया कि वास्तव में उसके पास एक खाली सीट थी और अंततः उसने बच्चे को अपने स्कूल में दाखिला दे दिया। तत्पश्चात अदालत ने आरटीई अधिनियम के अनुसार बच्चे के लिए पहली कक्षा में भर्ती करने के निर्देश जारी कर दिए थे।

दुर्भाग्य की बात यह है कि ये कोई इक्का-दुक्का घटनाएं नहीं हैं। स्कूल प्रशासकों की ओर से इस तरह के भेदभावपूर्ण कार्य अब हर जगह रोज-बरोज देखे जा सकते हैं।

2017 में तो इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक निजी स्कूल को नौवीं से बारहवीं कक्षा तक (जो अन्यथा आरटीई अधिनियम के तहत नहीं आते) के लिए भी मुफ्त शिक्षा मुहैय्या कराने के आदेश जारी कर दिए थे ताकि जरूरतमंद बच्चों को गलत तरीके से (सुधीर कुमार बनाम यू.पी. राज्य) दाखिला देने से इंकार न किया जा सके। राष्ट्रीय और राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग- एक संस्था जिसने पिछले साल आरटीई अधिनियम के उल्लंघन के तकरीबन 10,000 शिकायतों पर लगाई गई आरटीई पर फैसले सुनाने का काम किया था।

स्कूलों के खिलाफ दण्डात्मक कार्यवाई का अभाव 

मात्र प्रवेश प्रक्रियाओं में ही व्यापक पैमाने पर भेदभाव नहीं हो रहा है बल्कि स्कूलों के भीतर तक में छात्रों के साथ व्यवहार और बर्ताव में भी भारी पक्षपात देखने को मिलता है। इसके पीछे की मुख्य वजह बेख़ौफ़ प्रशासकों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई का आभाव व स्कूलों के शिक्षकों और प्रशासकों के लिए किसी भी प्रकार के नियामक संस्था की नियुक्ति के न होने के चलते है।

बाल अधिकारों के संरक्षण के लिए गठित राष्ट्रीय और राज्य आयोग पूरी तरह से दन्त-हीन निकाय है जिसकी भूमिका मात्र सलाहकार वाली बची है। इन गड़बड़ करने वाले व्यवस्थापकों के खिलाफ किसी भी प्रकार की कार्यवाही करने का अधिकार सिर्फ स्कूल प्रबंधन समिति के हाथ में है। ऐसे में यह स्पष्ट है कि इन पथभ्रष्ट प्रशासकों को पर्याप्त रूप से नियंत्रित करने के लिए वर्तमान में कोई भी पर्याप्त तौर पर सक्षम नहीं है।

यदि उचित दण्डात्मक कार्यवाई, वो भले ही प्रतीकात्मक ही क्यों न हो तो भी यह बाकी के पथभ्रष्ट अधिकारियों के लिए एक सबक का काम कर सकती है, और इस प्रकार यह कानून के स्वतः पालन के काम को सुनिश्चित कराने वाला साबित होगा।

यदि उचित दण्डात्मक कार्यवाई, भले ही यह मात्र प्रतीकात्मक ही क्यों न हो तो भी यह बाकी के पथभ्रष्ट अधिकारियों के लिए एक उदाहरण साबित हो सकता है, और इस प्रकार यह कानून के स्वतः पालन को सुनिश्चित कराने वाला साबित होगा। इसके अभाव में किसी बच्चे के पास एकमात्र प्रभावी उपाय यही बचता है कि वह उच्च न्यायालयों की शरण में जाए, जोकि अपनेआप में खर्चों और भौगोलिक सीमाओं के लिहाज से बेहद कष्टसाध्य कार्य है।

अध्यापकों के लिए नियामक संस्था स्थापित किये जाने की जरूरत  

इस सम्बंध में स्कूली शिक्षकों और प्रशासकों को बार काउंसिल के वकीलों की तरह ही प्रोफेशनल विनियामक निकायों के साथ अनिवार्य पंजीकरण के जरिये शिक्षा क्षेत्र में आवश्यक मूलभूत परिवर्तन की जरूरत है। यह न केवल शिक्षकों के लिए योग्यता के साथ सख्त अनुपालन के प्रति सक्षम बनाएगा बल्कि छात्रों और शिक्षा के हित में हानिकारक पाए जाने की स्थिति में उनके खिलाफ उपयुक्त अनुशासनात्मक कार्रवाई करने में भी सक्षम साबित होगा।

वर्तमान हालात में स्कूलों के खिलाफ कार्रवाई करने में एक बड़ी बाधा यह है कि इससे उन सैकड़ों छात्रों की शिक्षा पर असर पड़ सकता है, जो वहां पढ़ रहे हैं। शिक्षकों और स्कूल प्रशासकों के लिए एक पेशेवर नियामक निकाय स्थापित हो जाने की सूरत में स्कूलों के नियमन के काम को शिक्षकों के नियमन से अलग कर देता है। जिसके परिणामस्वरुप किसी स्कूल प्रशासक या शिक्षक के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई से स्कूल को इससे अलग रख पाना संभव हो सकेगा।
किसी यथोचित नियामक संस्था के अभाव में शिक्षा के अधिकार का कानून, जैसा कि यह अपने वर्तमान स्वरूप में है, के उचित अनुपालन को सुनिश्चित करना व्यावहारिक तौर पर असंभव है। शिक्षा के अधिकार की प्रवर्तनीयता को विस्तारित करने की दिशा में भारत का अगला कदम इस बात को सुनिश्चित करने के प्रति होना चाहिए जिससे कि पहले से ही काम के बोझ तले दबे न्यायालयों से संपर्क किए बिना भी इस अधिकार को हासिल किया जा सके।

यह लेख मूल तौर पर द लीफलेट में प्रकाशित हुआ था।

(निपुण अरोड़ा दिल्ली उच्च न्यायालय में वकालत करते हैं और शिवकृत राय एससीडीआरसी, दिल्ली में कानून विषय के शोधार्थी हैं। इन लेखकों में से एक मॉडर्न स्कूल वाले मामले में याचिकाकर्ता के परामर्शदाता के तौर पर थे। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

India’s Right to Education is a Failing in Reality

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