भाजपा सरकार की बैंकों को तबाह करने की साजिश
भाजपा सरकार द्वारा बैंकों के प्रति उठाये कदमों से ऐसा लगता है कि वह भारतीय अर्थव्यवस्था के बुनियादी संस्थानों को अपूरणीय क्षति पहुंचा कर ही दम लेगी. इस दिशा में इसका नवीनतम कदम फाइनेंशीयल रेजोलुशन एंड डीपोजिट इंशोरेंस (एफ.आर.डी.आई.) विधेयक है, जिसे संसद में शीतकालीन सत्र के आखिरी दिन पेश किया गया और अब संसद ने चयन समिति (सेलेक्ट कमिटी) के पास भेज दिया. इस विधेयक के प्रस्ताव के मुताबिक़ सरकार एक रेजोलुशन का कॉरपोरेशन की स्थापना करेगी, जिसमें केंद्र सरकार के ज़्यादातर अधिकारी शामिल होंगे और जिन भी बैंकों हालत पतली है और जिसे वे "महत्वपूर्ण" मानते हैं उनकी हालत सुधारने के लिए वे जमाकर्ताओं और उधारकर्ताओं के धन का उपयोग करेंगे.
अब तक राष्ट्रीयकृत बैंकों की मालिक केंद्रीय सरकार के बजट द्वारा इन्हें “बेल-आउट” किया जाता था. लेकिन अब आईडिया कुछ बेल-आउट करने का नहीं “बैल-इन” का है यानी अब सरकार वित्तीय संकट से निजात पाने के लिए अपने धन का नहीं बल्कि जमाकर्ताओं यानी आम जनता और उधार देने वालों के धन का इस्तेमाल कर करेगी.
वर्तमान में एक लाख रुपये तक की सभी जमा राशि का बैंकों खुद बीमा कराता है, ताकि अगर बैंक विफल भी हो जाए तो जमाकर्ताओं की राशि को कोई खतरा न हो. भारतीय रिज़र्व बैंक की एक सहायक कंपनी, निक्षेप बीमा और प्रत्यय गारंटी निगम, जो इस प्रकार के जमाकर्ताओं को कवर करती है, को अब ख़त्म कर दिया जाएगा और विधेयक में उसकी जगह किसी अन्य संस्था का नाम भी प्रस्तावित नहीं किया गया है.
महत्वपूर्ण बात यह है कि यह केवल इस निगम के अस्तित्व का सवाल नहीं है जो जमाकर्ताओं के बीच राष्ट्रीयकृत बैंकों के लिए अपनी जमा राशि की सुरक्षा के बारे में विश्वास पैदा करता है; बल्कि यह एक तथ्य था कि जो बैंक सरकार के स्वामित्व वाले हैं, लोगों में यह विश्वास था कि कम से कम सरकार इन बैंकों को कभी विफल नहीं होने देगी. इसी विश्वास के नाते लाखों जमाकर्ताओं, विशेषकर पेंशनभोगियों और वरिष्ठ नागरिकों ने बैंक में अपना पैसा जमा किया, भले ही इस तरह के जमा धन को शेयर, म्यूचुअल फंड और कई अन्य वित्तीयपरिसंपत्तियों की तुलना में अपेक्षाकृत कम दरें मिलती हैं. लेकिन यह विश्वास अब डूबता नज़र आ रहा है.
पुराने दिनों में लोग नकदी को संदूकों में जमा रखते थे, क्योंकि बैंकिंग प्रणाली में उनका विश्वास बहुत कम था, उनके लिए ये बैंक अज्ञात निजी ऑपरेटरों के एक समूह द्वारा अपने हितों साधने वाले लोगों द्वारा नियंत्रित मानते थे, उनके लिए ये बैंक संदेहास्पद थे. जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ तो उसने ये सब बदल दिया, और देश भर में बैंकों में विशाल राशि जमा हो गई, क्योंकि सरकार द्वारा स्वामित्व वाले बैंकों के बारे में आम जनता में यह विश्वास पैदा हुआ वह कभी भी जमाकर्ताओं को नुकशान नहीं होने देगी और जमाकर्ताओं का पैसा इन बांकपन में पूरी तरह से सुरक्षित है. लेकिन अब आम जनता में यह विश्वास टूटने लगा है क्योंकि मोदी सरकार ने नोटबंदी इस वायदे के साथ कि इसे कभी भी दोहराया जा सकता है ने भारतीय मुद्रा में लोगों के आत्मविश्वास को कमजोर कर दिया है. (हालांकि जरूरी नहीं कि नोटबंदी से वास्तविक मौद्रिक नुकसान इसमें शामिल हो, बल्कि इसका मतलब है कि लंबे समय के लिए कतार में खड़े रहना और अन्य कई परेशानियों से गुजरना, और बेशक हम अपनी खरीदने की शक्ति का अस्थायी रूप से त्याग करने के कारणों की असुविधा को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दें).
इसलिए, दोनों ही रूपों में, मुद्रा और बैंक में जमा धन, अब एक सुरक्षित संपत्ति के रूप में नहीं माना जाएगा. चूंकि एफआरडीआई विधेयक राज्य के स्वामित्व वाली बीमा और अन्य वित्तीय कंपनियों को भी शामिल करता है, इसलिए बैंक में जमा राशी की तरह उनकी देयताएं (देनदारी) भी कई छोटे-छोटे धन-धारकों के लिए अपना आकर्षण खो देती हैं. अर्थव्यवस्था में जब लोगों का पैसे और वित्तीय परिसंपत्तियों में विश्वास खोता है, तो वे सोना या जमीन या अन्य भौतिक वस्तुओं जैसी संपत्ति धन-धारण करने के पक्ष में नज़र आते हैं, क्योंकि वह उन्हें अपेक्षाकृत "सुरक्षित" लगता है. आर्थिक रूप में पुन: प्रगति के लिए इस तरह की परिसंपत्तियों की तरफ जाना आर्थिक नुकशान ही माना जाएगा और भाजपा सरकार ऐसा ही चाहती है.
इस मुगालते एमिन न रहें कि, एफआरडीआई विधेयक बीजेपी सरकार की दिमागी उपज है. यह वित्तीय स्थिरता बोर्ड की सिफारिशों पर आधारित है जिसे 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद स्थापित किया गया था ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके सके कि भविष्य में ऐसे वित्तीय संकटों के दौर में वित्तीय प्रणाली को बजट के संसाधनों के माध्यम से बचाने की आवश्यकता न आन पड़े, क्योंकि अमेरिकी वित्तीय प्रणाली ने भी उस समय ऐसा ही किया था. भारत जी-20 के उन देशों में से एक है, जो वित्तीय स्थिरता बोर्ड की सिफारिशों को स्वीकार करता हैं, और एफआरडीआई विधेयक इस स्वीकृति का ही नतीजा है.
लेकिन सरकार द्वारा निजी स्वामित्व वाली वित्तीय कंपनियों/संस्थानों को बचाने के लिए करदाताओं के पैसे का इस्तेमाल या फिर सरकारी स्वामित्व वाली वित्तीय प्रणाली को बचाने के लिए इसके इस्तेमाल में फर्क है, पहले वाला नाजायज है और दूसरा जायज. वास्तव में सरकार बैंकों को "जहरीले"/”नुक्शानदायक” परिसंपत्तियों से पहले ही रोक सकती है, जिससे कि करदाताओं के पैसे के माध्यम से बैंकों को बचाने का सवाल ही पैदा न हो, और निश्चित रूप से विकसित/उन्नत देशों में बैंकों के पैमाने पर तो कतई नहीं. यह आश्चर्य की बात नहीं है कि उस समय (मंदी के समय) भारत में राष्ट्रीयकृत बैंकों के "जहरीली" परिसंपत्तियों के निवेश का जोखिम इतना कम था कि निजी क्षेत्र के पैरोकारों और कट्टरों को भी मानना पड़ा कि राष्ट्रीयकृत बैंक का होना भारत के लिए एक अच्छा स्थिति है.
इसलिए, उन्नत/विकसित पूंजीवादी देशों के विचारों को भारत में अपनाने का विचार बहुत ही नुक्शान्दायक होगा. क्योंकि भारत एक बहुत ही अलग वित्तीय प्रणाली से चलने वाला देश है. ये उपाय मुख्या तौर पर "पूंजी पर्याप्तता मानदंड" हैं (जिनका मकसद राष्ट्रीयकृत बैंकों के शेयरों/ सरकारी इक्विटी को कम करना है या "बैल-आउट" के स्थान पर एक "बैल-इन" का काफी बेतुका कार्यक्रम है. लेकिन भाजपा सरकार की, आर्थिक मामलों में स्वयं की कोई कल्पना नहीं है और वह यह देखने में असफल है वह नव-उदारवादी "पंडितों" के कहने में अर्थव्यवस्था को तबाह कर रही है.
अरुण जेटली ने जनता को आश्वासन दिया है कि जमाकर्ताओं के हितों की रक्षा होगी; लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि कैसे. प्राथमिकता के क्रम में, बैंकों की खराब स्थिति होने पर एफडीआरआई विधेयक के तहत जिनकों सुरक्षित रखने की सूची है; उसके मुताबिक़ गैर-बीमा जमाकर्ता इस सूची में पांचवें स्थान पर आते हैं. यहां तक कि उनके मामले में, सरकार का दावा है कि इसमें कोई संदेह नहीं है, वे अपनी जमा पूँजी नहीं खोएंगे. बल्कि उनकी जमा राशी को इक्विटी में परिवर्तित कर दिया जाएगा. दूसरे शब्दों में, बैंक जब खस्ता हालत में होंगे तो उन्हें खुद को पुनर्पूंजीकरण(अपना कीमत को दोबारा आंकना) करना होता है, तो इस बिल के तहत जमाकर्ताओं के निधियों का उपयोग करते हुए अब बजटीय संसाधनों का उपयोग करने के बजाय, जमाकर्ताओं की पूँजी का इस्तेमाल किया जाएगा, और यह विधेयक कुछ और नहीं बल्कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के निजीकरण के लिए एक गुप्त मार्ग प्रदान करता है.
जमाकर्ताओं के लिए यह सांत्वना कुच्छ भी नहीं है, क्योंकि इस तरह की इक्विटी मौल तब कम होगा जब बैंक ऐसी खराब गंभीर स्थिति में होंगे, और उस समय जमा को इक्विटी में परिवर्तित किया जाना सही उपाय नहीं है; इसलिए इस तरह के उपाय से जमाकर्ताओं को अपनी ज़्यादा धन खोना पड सकता है, इसके अतिरिक्त, वे आपकी इक्विटी को निजी कॉरपोरेट संस्थाओं को अपनी इक्विटी के रूप पैसे उगाने के हिस्से के तौर पर बेचने की संभावना रखते हैं, और इसका मतलब है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का निजीकरण होगा. रिजोल्यूशन कॉर्पोरेशन में, दूसरे शब्दों में कहने तो सरकारी नामांकित व्यक्तियों का एक समूह सार्वजनिक क्षेत्र की बैंक की वित्तीय विश्वसनीयता का आदान-प्रदान कर सकता है, जो इसे निजी हाथों में बेच सकती है, और यहां तक कि निजी कॉर्पोरेट हाथों में सस्ती कीमतों पर स्थानांतरित कर सकती है, और इसके लिए उन्हें संसद की अनुमति की भी जरूरत न होगी वे यह केवल पूरी तरह से कार्यकारिणी के कहने पर कर सकते हैं.
लेकिन फिर, यह सवाल पूछा जा सकता है कि, क्या बैंकों के बचाव के लिए "करदाता के पैसे" का उपयोग करना "उचित" है? इस पर सैद्धांतिक जवाब "हां" है, बशर्ते कि बैंक अपनी सामान्य सामाजिक भूमिका निभा रहे हैं. यह "सही" नहीं है अगर बैंक सट्टा बाज़ार में पैसा लगा रहे हैं और इस कारण वे दिवालिया हो जाते हैं; सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक के लिए वैसे भी यह सही नहीं है. दूसरे शब्दों में, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को बचाने के लिए "करदाताओं का पैसा" सिद्धांत रूप में उपलब्ध होना चाहिए, लेकिन ऐसे बैंकों की गतिविधियों पर लोकतांत्रिक नियंत्रण होना चाहिए. अकेले राज्य के अधीन होना पर्याप्त नहीं है; बल्कि "करदाताओं के पैसे की सहायता" के योग्य होने के लिए उन्हें लोकतांत्रिक नियंत्रण के अधीन होना चाहिए.
इसके अलावा, "कर-दाताओं" और "जमाकर्ताओं" के बीच संचालित होने वाले इस पूरे मसले को एफआरडीआई विधेयक के माध्यम से आगे बढ़ाने के लिए इस्तेमाल किया जाना सही नहीं है. बैंकों की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियों (एन.पी.ए.) के सभी हो-हल्ले होने के बावजूद, ये संपत्ति कुल बैंक की परिसंपत्तियों का लगभग 12 प्रतिशत से अधिक नहीं है. लगभग 90 प्रतिशत एनपीए राष्ट्रीयकृत बैंकों से संबंधित हैं; लेकिन कुल बैंकिंग व्यवसाय का ऐसे बैंकों के बड़े हिस्से को देखते हुए भी, उनके मामले में एनपीए का हिस्सा खतरनाक होने के कारण इतन खतरनाक नहीं है. इसके अलावा, सरकार ने अभी 2.11 लाख करोड़ रुपये के पुनर्पूंजीकरण कार्यक्रम की घोषणा की है. इसलिए ऐसे बैंकों का कोई सवाल ही नहीं है, जो अब ऐसी किसी गंभीर स्थिति में हैं, या निकट भविष्य में भी होगा. संसद में बिल पेश करने के लिए जिसे "करदाता" और "जमाकर्ता" के बीच ब्याज के एक तर्कग्रस्त संघर्ष होने न्यायोचित बताया जा रहा है, जो केवल एक ऐसी स्थिति में उत्पन्न हो सकता है जिसे केवल खवाबों में देखा जा सकता है और वास्तविक तौर पर मौजूद ही नहीं है, और वैसे भी अगर हम सावधान हैं जिसे उत्पन्न होने से भी रोका जा सकता है, फिर ऐसे विधेयक कली कोशिश करना न केवल बेतुका है; बल्कि वास्तव में काफी शरारती भी है.
यह विडम्बनापूर्ण है कि सरकार बजाय बड़े पूंजीपतियों जिन्होंने बैंकों का लाखों करोड़ रुपया गबन किया हुआ है से अपने धन की उगाही करे उलटे सरकार जमाकर्ताओं यानी आम जनता की गाढे पसीने की कमाई को पूंजीपतियों की बहाली के लिए इस्तेमाल करना चाहती है.
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