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मीडिया का दमन, न्यायिक फ़ैसले और अघोषित आपातकाल

पुलिस द्वारा लगाए गए देशद्रोह, हिंसा फैलाने और असद्भाव के आरोप न केवल बेतुके हैं बल्कि भयानक हैं.
मीडिया
प्रतीकात्मक  चित्र। सौजन्य:  रायटर्स

एक हुकूमत, जो खासकर पत्रकारों को और आम तौर पर मीडिया को अपना निशाना बनाती है, उसे सामान्यतया अधिनायकवादी सरकार कहते हैं। हम इसके कुछ पर्यायवाची के बारे में भी सोच सकते हैं- सर्वसत्तावादी, तानाशाही इत्यादि। लेकिन इसकी पहली संज्ञा इसकी चारित्रिक विशेषता को सटीकता से द्योतित करती है। तो फिर स्वागतम अधिनायकवादी भारत!

नरेन्द्र मोदी-अमित शाह जोड़ी की ताजा शिकार उन लोगों का एक समूह हुआ है जिन्होनें अपना सर ध्यान दिल्ली में या पूरे देश में हो रहे किसानों के आंदोलनों और आंदोलन से ही जुड़ी गणतंत्र दिवस की घटनाओं पर लगातार केंद्रित किया है। इसी के अनुरूप ट्वीट भी करते रहे हैं। 

हम इसकी शुरुआत मनदीप पुनिया के साथ हुए व्यवहार से करते हैं। पुनिया एक स्वतंत्र पत्रकार हैं, जिन्हें दिल्ली पुलिस ने 31 जनवरी को किसानों के धरना-प्रदर्शन स्थल सिंघु बॉर्डर से गिरफ्तार कर लिया था और 2 फरवरी को उन्हें निजी जमानत पर रिहा किया गया था। अदालत ने पुलिस के साथ पुनिया के पुलिस के साथ कथित झड़प के मामले में जमानत याचिका पर गौर करते हुए कहा कि पत्रकार की गिरफ्तारी के 7 घंटे बाद पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज की, जो अस्वाभाविक है। न्यायिक व्यवस्था में जमानत एक सामान्य प्रक्रिया है, और जेल एक अपवाद है।

पुनिया कहते हैं, वह कारवां मैगजीन के लिए एक स्वतंत्र पत्रकार की हैसियत से किसान आंदोलन से जुड़ीं घटनाओं के बारे में केवल रिपोर्टिंग कर रहे थे। कारवां पत्रिका की खोजी पत्रकारिता के रूप में अपनी एक विशिष्ट पहचान है, उन बड़ी संख्या में डरपोक प्रकाशनों से अलग, जो भारत की अहंकार में उन्मत्त व्यवस्था की दी लाइनों का खुशी-खुशी अनुगमन करने के लिए तैयार रहते हैं। 

प्रथमदृष्टया, पुनिया के विवरण पर दिल्ली पुलिस से ज्यादा भरोसा करने के कई कारण हैं। दिल्ली पुलिस और उसकी सहयोगी उत्तर प्रदेश पुलिस देश की सबसे अधिक बदनाम कानून लागू करने वाली एजेंसी है, जो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के समक्ष घुटना टेके हुई हैं। दिल्ली पुलिस केंद्र के विधान से चलती हैं।

दिल्ली पुलिस कहती है, पुनिया ने उनके अफसरों के साथ मारपीट की। हालांकि पुनिया को गिरफ्तार किए जाने का असली कारण शायद यह है कि उन्होंने बार-बार जोर दे कर कहा था कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कार्यकर्ता ही स्थानीय निवासियों के नाम पर किसानों पर हमले कर रहे हैं, यह प्रदर्शन फेसबुक पर लाइव था। 

इस प्रसंग में हमें इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक भूतपूर्व न्यायाधीश के वक्तव्य को याद करना चाहिए।  न्यायमूर्ति ए एन मुल्ला ने, 1963 के अपने एक फैसले में  पुलिस के बारे में कहा था: “...पूरे देश में ऐसा एक भी गैर कानूनी समूह नहीं है, जिसके अपराधों का रिकॉर्ड  भारतीय पुलिस बल के रूप में जाने जाने वाली एक संगठित इकाई के आपराधिक रिकॉर्ड  के आसपास भी ठहरता हो।”

इस तरह, पुनिया को भी दूसरे अन्य लोगों के जैसे ही अलग और झूठे मामलों में निशाना बनाया गया। लोकसभा में कांग्रेस के सांसद शशि थरूर, वरिष्ठ पत्रकार जफर आगा, मृणाल पांडे और राजदीप सरदेसाई के साथ ही कारवां के तीन वरिष्ठ संपादकीयकर्मियों को गणतंत्र दिवस पर एक किसान की हुई मौत  पर ट्वीट करने के आरोप में नोएडा पुलिस ने प्राथमिकी दर्ज कराई  गई है। 

इन मामलों का सार यह है कि उत्तर प्रदेश के नवरीत सिंह की पुलिस की गोली  से मौत हो गई थी।  पुलिस का दावा है कि उसकी मौत एक दुर्घटना में जख्मी होने  की वजह से हुई थी। जिस ट्रैक्टर को वह चला रहा था, वह बेरिक्रेड्स में ठोकर लगने से पलट गया था,  जिसकी फलस्वरूप नवरीत को चोट लगी और इसकी वजह से ही उसकी मौत हो गई थी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट कहती है कि नवरीत के शरीर में गोली लगने का कोई साक्ष्य नहीं है। 

यहां ये दो विचारणीय बिंदु उभरते हैं। पहला, केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश सरकारें की हैसियतें, जिसकी एक ऐसे व्यक्ति द्वारा अगुवाई की जा रही है, जो सत्य की प्रक्रिया को क्रमशः सात साल और लगभग 4 सालों से खुले आम उलट-पुलट दे रहा है और उसे दबाता रहा है।  गणतंत्र दिवस की घटना के संदर्भ में दर्ज प्राथमिकियां पुलिस को बचाने की एक  सोची रणनीति हो सकती है। 

दूसरे, अगर हम मान भी लें कि सांसदों और पत्रकारों ने  भूलवश कोई गलती कर दी है तो भी  उनके विरुद्ध जो कानूनी प्रावधान किए गए हैं, वह बेतुकेपन से लेकर भयानक तक हैं।  उनके  विरुद्ध देशद्रोह और हिंसा फैलाने तथा सद्भाव बिगाड़ने की धाराएं लगाई गई हैं।  क्या आक्रामक केंद्रीय मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर के मामले की तुलना में, यह अति दमनकारी और ज्यादती तलब नहीं है, जब उन्हें अपने समर्थकों के बीच “देशद्रोहियों को गोली मारने” का खुलेआम नारा देने की आजादी दी गई थी?

यह वही हैं और उन्हीं के समान आक्रामक उनके साथी कपिल मिश्रा हैं,  जिन्होंने लगभग एक साल पहले दिल्ली में हुए दंगे से ठीक पहले यही नारे लगाए थे और स्थानीय लोगों को  हिंसा के लिए उकसाया था, उन्हें  तत्काल गिरफ्तार कर जेल की मजबूत सलाखों के पीछे डाल जाना चाहिए था। लेकिन मामले में कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई। प्राथमिकी दर्ज होने पर अदालत द्वारा उसे खारिज की जानी चाहिए थी। अगर जरूरत होती  तो अदालत उसे स्वत: संज्ञान लेते हुए खारिज कर देती। जाहिर है, ऐसा कुछ नहीं हुआ। 

अब हम ट्विटर और इंटरनेट तथा मोबाइल सेवाओं  को निलंबित किए जाने के पहलू पर आते हैं।  पहली बात,  भारत तेजी से एक ऐसे राष्ट्र के रूप में उभरा है, जिसने दुनिया के अन्य देशों के मुकाबले अपने यहां लंबे समय तक इंटरनेट सेवाओं को स्थगित कर रखा है।  दूसरे शब्दों में,  भारत ने 2019 से ही, रूस, तुर्की, सऊदी अरब, पाकिस्तान आदि-आदि देशों के बनिस्बत ज्यादा इंटरनेट सेवाएं निलंबित रखी हैं। इससे कोई भी यह अनुमान लगा सकता है कि मौजूदा हुकूमत का मंसूबा भारत के लोकतंत्र को दुनिया के अन्य विफल या फर्जी  जम्हूरियत में बदल देने का है। 

अपनी अनियंत्रित प्रतिक्रियाओं के साथ,  हुकूमत ने किसानों के धरना-प्रदर्शन वाले क्षेत्रों में इंटरनेट और मोबाइल सेवाओं को निलंबित कर दिया है, यहां तक कि इसने प्रदर्शनकारियों के आगे कंटीली दीवारें बना दी हैं। किसानों तक आवश्यक वस्तुओं या सुविधाओं — यहां तक कि पानी की आपूर्ति और शौचालय — तक उनकी पहुंच को बाधित कर दिया है।  मोदी की हुक़ूमत किसानों के विरुद्ध युद्ध करने में लगी हैं, लेकिन वह नहीं चाहती कि उसके नागरिकों — यहां तक कि बाकी दुनिया — भी यह जानें कि वह क्या कर रही है। 

शुक्र है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा  अगुवाई की जा रही व्यवस्था बहुसंख्यक, सांप्रदायिक, प्रतिगामी और प्रभुत्ववादी होने के अलावा, दयनीय रूप से  अकुशल भी है। अयोग्यता के संदर्भ में तो यह अग्रणी है। यही वजह है, कि इस हुक़ूमत के बारे में सारी दुनिया को पता है।

इसी ने  अंतरराष्ट्रीय  चर्चित गायिका रिहाना,  पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग और इसी तरह कुछ अन्य वैश्विक हस्तियों को आंदोलनरत भारतीय किसानों के पक्ष में ट्वीट करने के लिए प्रेरित किया है। जिसकी केंद्र सरकार की ओर से बचकानी प्रतिक्रिया हुई हैं, और हां, नायिका कंगना राणावत की तरफ से भी कुछ अनुचित प्रतिक्रिया हुई है। 

इसने हमें ट्विटर पर झगड़े में ला खड़ा किया है।  31 जनवरी को भारत सरकार ने 257 यूआरएल और एक हैशटैग, “मोदी प्लानिंग  फार्मर्स जिनोसाइड” को ब्लॉक करने का आदेश दिया।  ट्विटर ने शुरुआत में इस आदेश का पालन किया, लेकिन उसने इस ब्लॉक किए हुए खातों को कुछ घंटों के अंदर फिर से बहाल कर दिया। अब मोदी सरकार द्वारा ट्वीटर के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई की बात की जा रही है, लेकिन इसने  अपनी दलील में, सरकार के  इन निर्देशों को अनुचित और अव्यवहारिक  बताया है। कानूनी जानकार कह रहे हैं कि सरकार की ऐसी मांग करने का कोई औचित्य नहीं है। 

अब जो इस संदर्भ में स्पष्ट है कि भारत सरकार पत्रकारों को और अपने अन्य आलोचकों के मुंह बंद कराने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार है। और वे चाहे दिल्ली की सीमा की घेराबंदी किये किसान हों या लंबे समय से प्रदर्शन कर रहे कश्मीरी हों, उन सब के प्रति एक कठोर नीति लागू की जा रही है।

इस हुकूमत का मीडिया पर हमला, खासकर कश्मीर में, आपातकालीन वर्षों में केवल एक उदाहरण है।  शुक्र है कि वहां यह मात्र डेढ़ साल चला,  यह घोषित आपातकाल तो पिछले 6 साल से है। मौजूदा हुकूमत के बेरहम मंसूबे पर कोई भी चर्चा मुनव्वर फारूकी के मामले की चर्चा के बिना पूरी नहीं होगी। 

प्रसिद्ध कॉमेडियन को 1 जनवरी से जेल में बंद कर दिया गया था और उसकी जमानत पर सुनवाई तीन बार स्थगित की गई थी (हालांकि कल रविवार की रात को उसे रिहा कर दिया गया)  मुनव्वर अपना नाम बदल कर जोसेफ के रख सकता था। 

भाजपा शासित मध्य प्रदेश  में पुलिस ने यह कबूल किया कि उसके खिलाफ जुर्म का कोई सबूत नहीं है।  इस बीच, 28 जनवरी को मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा था कि प्रथमदृष्टया इस बात के साक्ष्य हैं कि फारूकी की “स्टैंड अप कॉमेडी की आड़ में धार्मिक भावनाओं को आहत करने की उसकी मंशा” दिखाई देती है। न्यायाधीश रोहित आर्य, जिन्होंने यह फैसला सुनाया, इसके पहले कहा था कि फारूकी को “अवश्य ही नहीं छोड़ा जाना चाहिए”। कोई भी पूछ सकता है कि उसे क्यों नहीं छोड़ा जाना चाहिए। 

पत्रकारों और अपने मतविरोधी के ऊपर कार्रवाई करने के अलावा, इस हुकूमत ने  लगभग हरेक संस्था को कमतर कर दिया है और उसके सभी कायदे-रिवाजों को उलट-पुलट दिया है।  29 जनवरी को, एक कॉमेडियन कुणाल कामरा ने सुप्रीम कोर्ट में दी गई अपनी एक याचिका में कहा, “देश में असहिष्णुता की संस्कृति बढ़ रही है, जहां बातों का बुरा मानने को एक मौलिक अधिकार के रूप में देखा जाता है और इसका दर्जा एक प्रिय राष्ट्रीय खेल का हो गया है।” और “यह विश्वास कि कोई भी सरकारी संस्था आलोचना से परे है” बेहद अतार्किक और अलोकतांत्रिक है।”

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार और शोधार्थी हैं। आलेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं।) 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें ।

On Suppressing Media, Judicial Verdicts and Undeclared Emergency

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