धारा 144 का ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल, भारतीय लोकतंत्र के दोष सामने आए

25 जनवरी 2011 पिछले दशक में एक अहम दिन था। उस दिन काहिरा के तहरीर चौक पर शुरू हुआ धरना प्रदर्शन आख़िर में क्रांति बन गया। तीन दशकों से इजिप्ट की सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाए बैठे होस्नी मुबारक के ख़िलाफ़ लाखों लोग सड़कों पर उतर गए। कई हफ़्तों के प्रदर्शन के बाद मुबारक को इस्तीफ़ा देना पड़ा। स्वतंत्र चुनावों में आख़िरकार मोहम्मद मोरसी ने शपथ ली। लेकिन मोरसी ज़्यादा वक़्त तक सत्ता पर क़ाबिज़ नहीं रह पाए। उनके ख़िलाफ़ हुए प्रदर्शनों के दौरान मुबारक के क़रीबी और सेना प्रमुख अब्दुल फ़तह अल-सीसी ने देश की कमान अपने हाथ में ले ली।
अल-सीसी ने तुरंत ही बर्बरतापूर्ण क़ानून लागू कर दिए। इनके तहत सभी तरह के विरोध प्रदर्शनों और दस से ज़्यादा लोगों के जमावड़े पर प्रतिबंध लगा दिया गया। मानवाधिकार संगठनों के मुताबिक़ जबसे अल-सीसी सत्ता में आए हैं, तब से असमहति को कुचलने के लिए क़रीब 1300 लोगों की जान ली जा चुकी है। मुबारक को बरी कर दिया गया है और मोरसी की रहस्यमयी स्थितियों में मौत हो चुकी है। अल-सीसी की इजिप्ट पर मज़बूत पकड़ है और आगे स्वतंत्र चुनावों की गुंजाइश भी नहीं है।
इस राजनीतिक और भौगोलिक परिदृश्य के दूसरी तरफ़ निकारागुआ और इसके वामपंथी रुझान वाले समाजवादी लोकतांत्रिक राष्ट्रपति डेनियल ओरटेगा हैं। अल-सीसी से उलट, 1980 के दशक में ओरटेगा ने दक्षिणपंथी निकारागुआ सरकार के तानाशाह एनासताशियो सोमोज़ा डेबायले के ख़िलाफ़ गुरिल्ला युद्ध किया था। ओरटेगा 1984 और 2007 में दो बार निकारागुआ के राष्ट्रपति बने। उन्हें हमेशा ग़रीब लोगों का समर्थन मिलता रहा, लेकिन उनकी राजनीति तानाशाही की ओर मुड़ गई, जिसमें पारदर्शिता की बहुत कमी थी, पत्रकारों को दबाया गया, विपक्षी नेताओं को जेल में डाला गया और उनके परिवार के लोगों ने राज्यकोष का ग़लत इस्तेमाल किया।
निकारागुआ में 2018 में अप्रैल और मई के महीने में पहली बार बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन हुए। ओरटेगा ने इनपर निर्मम दमन किया, जिसमें 300 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गई। 2018 के सितंबर में ओरटेगा ने आतंकवाद की परिभाषा में कई दूसरे अपराध जैसे प्रदर्शन और तोड़ा-फोड़ी को भी शामिल कर दिया। बहुत सारे प्रदर्शनकारियों को आतंकवादी बताकर मामले दर्ज किए गए। अब ओरटेगा की पत्नी राष्ट्रपति हैं। ओरटेगा का निकारागुआ पर पूरा नियंत्रण है, लेकिन वो अपने लोकतांत्रिक समाजवादी प्रशासन बनाने के दावे को बहुत दूर छोड़ चुके हैं।
हमें लगेगा कि इजिप्ट और निकारागुआ की कहानियां लोकतांत्रिक देशों से संबंधित नहीं हैं। यह देश या तो तानाशाहों के नियंत्रण में रहे या फिर इनका चुनावी इतिहास कमज़ोर रहा। भारत जैसे सुचारू लोकतंत्र में हमेशा विरोध प्रदर्शनों को लेकर तानाशाही राज्यों की तुलना में सहिष्णुता रही है।
जब मैं छोटा था, तब कोलकाता यात्रा के दौरान में कामगारों और यूनियन अधिकारों के लिए शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन देखा करता था। फिर दिल्ली में कॉलेज के दौरान दहेज और छेड़खानी पर पुलिस द्वारा कार्रवाई न करने के विरोध में हुए प्रदर्शनों का मैं हिस्सा रहा। हमने देखा कैसे किसान और मज़दूर रामलीला और जंतर-मंतर जैसी जगहों पर प्रदर्शन करते हैं। जंतर-मंतर तो ऐसे प्रदर्शनों का गढ़ बन चुका है। फिर मैं एक विदेशी छात्र के तौर पर अमेरिका आया, जहां का मैं बाद में प्राकृतिक नागरिक बन गया। मैंने राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के एंटी-एबॉर्शन क़ानूनों, राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के द्वारा पनामा और इराक पर आक्रमण का विरोध किया। अमेरिका और भारत में हुए इन विरोध प्रदर्शनों में बड़ी संख्या में लोग आए। लेकिन मैंने कभी हिंसा नहीं देखी। हर मामले में पुलिस ने एक तय दूरी बनाकर रखी। प्रदर्शनों को मीडिया कवरेज में समर्थन भी मिला।
सीएए और एनआरसी विरोध प्रदर्शनों के फ़ोटो, वीडियो और न्यूज़ फुटेज तेज़ी से आ रहे हैं। सबसे ज़्यादा हिंसा उत्तर प्रदेश में हुई, जहां अभी तक क़रीब 24 लोगों की मौत हो चुकी है और हज़ारों जाने-माने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों को हिरासत में लिया गया है। भारत की स्वतंत्रता के बाद न केवल यह सबसे ज़्यादा फैले हुए विरोध प्रदर्शन हैं, बल्कि इनका सबसे ज़्यादा दमन किया गया है।
क्या बदला?
इजिप्ट और निकारागुआ की तरह ही भारत सरकार लगातार ऐसे क़ानूनों का इस्तेमाल बढ़ा रही है जो किसी भी तरह की जन असहमति को दबा रही है। इसका हालिया उदाहरण धारा 144 का लगातार इस्तेमाल है। 2019 के आठ महीनों में इसका रिकॉर्ड आठ बार इस्तेमाल किया गया। सीआरपीसी का सेक्शन 144 मजिस्ट्रेट को चार या अधिक लोगों के जमावड़े पर रोक लगाने का अधिकार देता है। इस धारा को जान-माल के ख़तरे की विकट स्थितियों में ही लगाया जाता है। अगर पुलिस किसी ऐसी भीड़ को पाती है, जिसे भड़काऊ भाषणों द्वारा हिंसा या आगजनी के लिए उकसाया जा रहा है तो धारा 144 लगाई जा सकती है।
जैसा उत्तरप्रदेश के बीस करोड़ चालीस लाख लोगों के साथ किया गया, इसका इस्तेमाल मौलिक अधिकारों के ख़ात्मे के लिए नहीं किया जा सकता। हमने पाया कि इस धारा का इस्तेमाल शांतिपूर्ण सभाओं को रोकने के लिए किया जा रहा है, जिनसे कोई हिंसा होने का अंदेशा भी नहीं है। यह असमहति को दबाने का राज्य का तरीक़ा है।
इजिप्ट में पुलिस को अधिकार दिए गए थे कि अगर किसी पर उन्हें प्रदर्शनकारी होने का शक भी हो, तो वे संबंधित शख़्स को गोली मार सकते हैं। लगता है उत्तरप्रदेश सरकार ने भी इसी तरह का क़दम उठाते हुए आम ग़ैर-हथियारबंद नागरिकों के ख़िलाफ़ ऐसा ही आदेश पारित किया है। अतीत में सबसे बुरी स्थिति में लाठी और आंसू गैस के गोले इस्तेमाल किए जाते थे। कभी-कभी भीड़ को तितर-बितर करने के लिए हवा में गोलियां चलाई जाती थीं। लेकिन आज दमन की प्रबलता बहुत बढ़ा दी गई है। रिपोर्टों के मुताबिक पुलिस ने नागरिकों पर सीधे गोलियां चलाई हैं। सभी ज़ख्म और जानें पुलिस की गोलियों से गई हैं।
इन प्रदर्शनों के पीछे जो भी विविध कारण हों, पर भारत का संविधान इस मामले में साफ़ है। आर्टिकल 19(1)(b) सभी नागरिकों को ''वाक् एवम् अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार देता है, जिसमें सभा करने, संगठन बनाने, देश में कहीं भी आवाजाही और निवास के साथ-साथ व्यापार करने और कोई भी पेशा अपनाने का अधिकार है।''
सभा करने का अधिकार मौलिक अधिकार है। इसका बहुतायत में ग़लत तरीक़े से हनन हो रहा है। असहमति और इसका शांतिपूर्ण प्रदर्शन हमारा लोकतांत्रिक अधिकार है। इसी से एक लोकतंत्र सुचारू बनता है और इसे एक इजिप्ट या निकारागुआ जैसी तानाशाही से अलग बनाता है।
सीएए और एनआरसी की आलोचना से परे, भारत सरकार द्वारा सार्वजनिक सभाओं पर ऐसा दमन कमज़ोर लोकतंत्र बनाता है।
(लेखक प्लात्स्बर्ग की स्टेट यूनिवर्सिटी के डिपार्टमेंट ऑफ़ कम्युनिकेशन स्टडीज़ में पढ़ते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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