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टोक्यो पैरालंपिक खेल | सबकी नज़रें टिकी होने के बावजूद खोये हुए हैं भारत में पैरालंपिक खेल

जब 'अनलॉक' के अलग-अलग स्तर भारत में लागू हो रहे हैं, तब खिलाड़ी प्रशिक्षण के लिए वापसी का अपना संघर्ष भी कर रहे हैं। इस बीच एक वंचित समूह मंझधार में पड़ा है। भारतीय खेलों पर नियंत्रण के लिए पैरालंपिक कमेटी दमखम दिखा रही है, इस बीच उनके खिलाड़ी भविष्य को लेकर अनिश्चित्ता के घेरे में फंसे हुए हैं।
टोकियो पैरालंपिक खेल

अगस्त का महीना चालू हो चुका है। अब तक वैश्विक लॉकडाउन के पांच से ज़्यादा महीने हो चुके हैं। कुछ देशों ने सार्वजनिक स्वास्थ्य की कीमत पर अपनी अर्थव्यवस्थाओं को खोलना शुरू कर दिया है। दूसरे देशों ने अर्थव्यवस्था को खोलने के क्रम में सावधानी रखी है, इस दौरान वे अपने नागरिकों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए सभी जरूरी प्रोटोकॉल का पालन कर रहे हैं। हमारी स्क्रीन पर अब खेल वापस लौट रहे हैं। कुछ खास तरह के खेल।

भारत में लॉकडाउन दूसरी जगहों की तुलना में ज़्यादा कठोर ढंग से लागू किया गया।  खिलाड़ियों को शुरुआत में प्रशिक्षण केंद्रों में रोक दिया गया, कमरों में बंद कर दिया गया। उनके पास दौड़ के मैदान, ट्रेडमिल, जिम या खेल की पिचों तक कोई पहुंच नहीं बची थी। इसके बावजूद प्रशासनिक गलतियों के चलते वायरस ने खिलाड़ियों तक पहुंच बना ही ली। पहले लॉकडाउन के दौरान कई खिलाड़ियों को घर भेज दिया गया। उन्हें कोई प्रोटोकॉल नहीं दिया गया, जिसका वे कड़ाई से पालन करते। और ना ही इस तरह के प्रोटोकॉल के लिए निगरानी के लिए कोई तंत्र बनाया गया। जब उन्हें वापस बुलाया गया, तो वे अपने साथ वायरस लेकर आए। 

यह तो खेल की दुनिया की बहुत छोटी झलक है। भारतीय खेलों में सबसे किनारे पर पैरा-खिलाड़ी हैं, इसमें कई ऐसे महिला और पुरूष हैं, जिन्होंने पिछले दशक में अपने देश के लिए कई मेडल जीते। इन लोगों की वापसी के लिए कोई विमर्श नहीं हुआ, ना ही इनके लिए कोई प्रोटोकॉल या प्रशिक्षण ढांचा बनाया गया। महामारी के बीच उनके लिए प्रशिक्षण में व्यक्तिगत और ढांचागत समस्याएं हैं।

न्यूज़क्लिक के साथ बातचीत में पैरा खिलाड़ियों और उनके प्रशिक्षकों ने खराब होते वक़्त पर चिंता जताई, उनका कहना है कि इसका असर आने वाले साल में उनके खेल पर पड़ सकता है। वहीं प्रशासकों का कहना है कि ख़तरे को कम करने और इन खिलाड़ियों के लिए देखभाल के लिए बहुत कुछ किया गया है। लेकिन इस बीच काफ़ी फीकी तस्वीर दिखाई पड़ती है, जिससे एक चीज साफ़ होती है कि अब तक समाधान नहीं खोजे गए हैं।

आधा भरा ग्लास

प्रशिक्षण केंद्रों के चलते पैरा एथलीट्स व्यक्तिगत प्रशिक्षण की जिन समस्याओं से गुजर रहे हैं, पैरालिंपिक कमेटी ऑफ इंडिया (PCI) की अध्यक्ष दीपा मलिक उनसे इत्तेफ़ाक रखती हैं। लेकिन वह कहती हैं कि ज़्यादातर खिलाड़ियों को इस परेशानी का सामना करने के लिए आर्थिक मदद की गई है। 

उन्होंने कहा, "अगर आप 2020-21 की वर्ल्ड चैंपियनशिप के मेरे समूह की बात करें, तो इसके ज़्यादातर सदस्यों को अच्छा पैसा दिया गया है। टार्गेट ओलंपिक पोडियम स्कीम (TOPS) या उन्हें गोद लेने वाले OGQ, GoSports, कॉरेन फॉउंडेशन, हीरो मोटोकॉर्प जैसे कॉरपोरेशन और फॉउंडेशन के ज़रिए इन एथलीट्स की मदद की गई है। तो कहा जा सकता है कि मेरा स्कूल आर्थिक तौर पर पर्याप्त मदद पा चुका है।"

जब हमने मलिक से इस "स्कूल" का मतलब समझना चाहा, तो वे टिप्पणी करने के लिए उपलब्ध नहीं मिलीं। मलिक, गुरुग्राम स्थित व्हीलिंग हैप्पीनेस फॉउंडेशन नाम की एक संस्था चलाती हैं। उनकी बेटी देविका भी इस संस्था की सह-संस्थापक हैं। उन्होंने बताया कि मलिक कोई स्कूल नहीं चलाती हैं, अपने वक्तव्य में वे PCI की तरफ इशारा कर रही होंगी या फिर उन्होंने गलती से बोल दिया होगा।

मलिक, पैरालंपिक में मेडल जीतने वाली पहली भारतीय महिला थीं। उन्होंने रियो 2016 में शॉटपुट में सिल्वर मेडल जीता था। पिछले हफ़्ते अर्जुन और राजीव गांधी खेल रत्न की घोषणा होने के बाद कई लोगों के निशाने पर आ गईं।  उनके अड़ियल रवैये को लेकर उनकी खूब आलोचना हुई। उन्होंने अवार्ड देने वाली कमेटी को कोई जगह नहीं छोड़ी और खुद से जुड़े खिलाड़ियों के हितों की पूर्ति करने की कोशिश की।

यह बात प्रशंसनीय भी लगती है कि एक प्रशासक अपने खिलाड़ियों के लिए जूझ रहा है। लेकिन आलोचना और भी ज़्यादा गहराई में जाती है। पिछले 24 घंटों में ऑल इंडिया स्पोर्ट्स काउंसिल ऑफ द डेफ (AISAD) ने अवार्ड के लिए नामित करने की प्रक्रिया में मलिक पर पक्षपात करने का आरोप लगाया है। AISAD का कहना है कि मलिक की कमेटी में मौजूदगी हितों का टकराव भी है।

 

 

AISAD द्वारा सरकार को लिखे एक ख़त में कहा गया,'यह पूरी तरह साफ़ है कि दीपा मलिक ने अपने फेडरेशन से 8 या 9 लोगों को नामित किया था और ऐसा भी हो सकता है कि उन्होंने चयन समिति के ज़रिए सरकार को भी यह नाम सुझाए हों।' 

"क्या आप एक फेडरेशन को अपने लोगों को नामित करना और फिर उन्हें चयन समिति के ज़रिए सरकार तक पहुंचाने को क्या आप सही मानते हैं? अगर ऐसा है, तो फिर क्या लोकतंत्र बचता है, आखिर लोकतंत्र कहां है?

न्यूज़क्लिक के साथ बात करते हुए मलिक लगातार इस बात पर जोर देती रहीं कि किस तरह एथलीट्स को व्याख्यात्मक प्रशिक्षण दिया गया, ताकि वे अगले साल होने वाले खेलों के लिए तैयार रह सकें।

उन्होंने कहा, "हम इस वक़्त का इस्तेमाल खेल विज्ञान पर काम करने के लिए कर रहे हैं। हम नियमित वेबीनार कर रहे हैं और अपने सभी एथलीट्स को उनकी पसंद के पोषण और बॉयोमैकेनिकल प्रशिक्षकों से उनका परिचय करवा रहे हैं।"

उन्होंने आगे कहा, "हम वेबीनार का आयोजन करवाते हैं और अलग-अलग समूहों के साथ स्वतंत्र बैठकें करते हैं। उदाहरण के लिए, अगर किसी खिलाड़ी को किसी कॉरपोरेशन ने प्रायोजित किया है या फिर कोई कुलीन बैडमिंटन और तैराकी समूह होता है, तो हम उनसे अलग से मुलाकात करते हैं और एक-एक से मिल रहे हैं। अब वह लोग ऑनलाइन और डिजिटल मेल-मिलाप के आदी हो रहे हैं। जब वह लोग अभ्यास या कसरत कर रहे होते हैं, तो भी उनकी स्क्रीन अब चालू रहती है।"

मलिक का मानना है कि प्रशिक्षण का यह नया तरीका लंबे वक़्त में खिलाड़ियों को मदद देगा। वह कहती हैं, "अगर आप मुझसे पूछ रहे हैं कि क्या एथलीट्स पोषण या शारीरिक कसरत के मामले में पिछड़ रहे हैं, तो मैं बता दूं कि ऐसा नहीं होने वाला है। मैं उनके कौशल प्रशिक्षण को लेकर निश्चित तौर पर चिंतित हूं, लेकिन हमारे पास बहुत वक़्त है और कम से कम व्यक्तिगत खेलों के खिलाड़ी अब अपने प्रशिक्षण की ओर वापस लौट रहे हैं।"

सिक्के का दूसरा पहलू

26 साल के सुयश यादव भारतीय खेलों में एक अनोखा रिकॉर्ड रखते हैं। 2016 में वह पहले भारतीय पैरा तैराक बने, जिन्होंने ओलंपिक में प्रवेश के लिए होने वाली प्रतिस्पर्धा में 'A' हासिल किया।  उन्होंने इसके बाद टोक्यो ओलंपिक के लिए प्रवेश पाने में कामयाबी पाई। ध्यान रहे टोक्यो ओलंपिक की तारीख अब आगे बढ़ चुकी है। आखिर इस अनिश्चित्ता के वक़्त में सुयश कैसे तैयारी कर रहे हैं? सुयश महाराष्ट्र में सोलापुर स्थित अपने गांव करमाला में एक कुएं में तैराकी कर रहे हैं।

उन्होंने बताया, "लॉकडाउन के चहते हम लोग तैराकी नहीं कर पाए, ना ही जिम जा पाए। मैं अपने गांव के कुएं और एक निर्माणाधीन झील में तैयारी कर रहा हूं। अब तक मैं अपनी फिटनेस पर काम कर रहा हूं। खुद को फिट रखने के लिए मैं दौड़ लगा रहा हूं, अपर बॉडी वर्कआउट कर रहा हूं, कुछ अहम शारीरिक अभ्यास और दूसरी चीज कर रहा हूं।"

जाधव की सरलता की प्रशंसा की जानी चाहिए। लेकिन इस दौरान यह सवाल भी पूछा जाना चाहिए कि एथलीट्स को जब सफल होने के लिए खुद के भरोसे छोड़ दिया जाता है, तो फिर सिस्टम किसलिए बरकरार है?

तैराकी कुछ उन खेलों में शामिल है, जिन पर महामारी ने सबसे बुरा असर डाला है। लॉकडाउन खुलने के क्रम में भी स्विमिंगपूल्स को बंद रखा गया है और तैराकों की लगातार शिकायतों के बावजूद भी खेल संस्थानों ने अपने कान बंद कर रखे हैं।

पूर्व पैरा तैराक शरथ गायकवाड़ कहते हैं, "तैराकी एक अलग खेल है। कोई खिलाड़ी कितना भी मजबूत या स्वस्थ्य क्यों ना हो, अगर वह पानी से लंबे समय तक बाहर रहा है, तो इन चीजों का कोई फायदा नहीं होगा, क्योंकि शारीरिक मजबूती और बेहतर स्वास्थ्य को पानी के भीतर की मजबूती में बदलना होता है।"

अपने पूरे करियर के दौरान गायकवाड़ सबसे अहम पैरा तैराकों में से एक रहे हैं। उन्होंने इंचियान में हुए 2014 एशियन गेम्स में 6 मेडल जीते थे। 2016 में वे जी स्विम एकेडमी, बेंगलुरू के निदेशक बन गए। इस तरह वह प्रशिक्षण से जुड़ गए, हालांकि अब भी वे "मजे" के लिए प्रतिस्पर्धा में उतरते हैं। इस साल उन्होंने अपना ध्यान पूरी तरह प्रशिक्षण पर लगाने का फैसला किया था। गायकवाड़, BlueFym फॉउंडेशन नाम के NGO के ट्रस्टी भी हैं। यह NGO वंचित और दिव्यांग बच्चों के लिए ज़मीनी काम करता है।

गायकवाड़ का पैरा तैराकों की मदद से जुड़ा नज़रिया मलिक से काफ़ी अलग है। वह कहते हैं, "एक अलग खेल के तौर पर पैरा तैराकों को सरकार से बहुत ज्यादा मदद नहीं मिलती। पैरा खेल रफ़्तार पकड़ चुके हैं और उन्होंने काफ़ी लंबा सफर भी तय कर लिया है। लेकिन पैरा तैराकी अब भी मेडल और विजेताओं (कई बार यह सीधे खेल में निवेश से जुड़ा होता है) के मामले में पिछड़ी हुई है। हमने हर खेल से अधिकतम पाने की आशा में सभी खेलों के लिए समान मदद और मौकों की मांग की है।"

ज़मीन पर अब भी यह चिंता बनी हुई है कि चीजें दोबारा कैसे शुरु होंगी और अगर वे शुरु हो भी गईं, तो किस तरह की होंगी। गायकवाड़ ने बताया कि फिलहाल कर्नाटक स्विमिंग एसोसिएशन और स्विमंग फेडरेशन ऑफ इंडिया, उन प्रोटोकॉल पर बातचीत कर रहे हैं, जिनके ज़रिए खिलाड़ी वापस पानी में उतर सकें। इतना साफ़ है कि पेशेवर तैराकों को प्राथमिकता दी जाएगी।

इसका मतलब होगा कि ज़मीनी स्तर पर खेल और खिलाड़ियों को नज़रंदाज किया जाएगा। गायकवाड़ बताते हैं, "लॉकडाउन लगने के पहले हम 60 से ज़्यादा बच्चों को मुफ़्त में प्रशिक्षण दे चुके थे।" वह आगे कहते हैं, "मैं सरकार से अपील करतका हूं कि वो खेल के निचले स्तर पर ज़्यादा ध्यान दे। अगर हम 100 लोगों को प्रशिक्षण देंगे, तो 10 लोग मेडल लेकर आएंगे।"

लेकिन इसके लिए हमें अपने सिद्धांतों को व्यवहारिक बनाना होगा। एक ऐसे वक़्त में जब सिद्धांत केवल विज्ञापन बन चुके हों और विज्ञापन सच, तब वंचित खिलाड़ियों को आगे बढ़ने के लिए सिर्फ़ अपने कौशल पर ही निर्भर रहना होगा।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें। 

Para Sports in India: Sidelined Despite the Spotlight | Tokyo Paralympics Special

 

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