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फ़िल्म भीमा कोरेगाँव और ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई

लूर्देस एम सुप्रिया से 'बेटल ऑफ भीमा कोरेगाँव; एन अनएंडिंग जर्नी’ के निर्माता सोमनाथ वाघमारे ने फ़िल्म बनाने का उद्देश्य साझा किया।
Somnath Waghmare

भीमा कोरेगाँव युद्ध को लेकर हाल में किए गए आयोजन के दौरान शांतिप्रिय अम्बेडकर के अनुयायियों पर दक्षिणपंथी समूहों द्वारा हमला किया गया था। इस हमले के चलते पूरे महाराष्ट्र में स्थिरता आ गई थी। इस बीच मैंने फ़ैसला किया कि भीमा कोरेगाँव युद्ध के फ़िल्म निर्माता से उनके फ़िल्म बनाने के उद्देश्य समेत अन्य मुद्दों पर बातचीत की जाए। फ़िल्म निर्माता सोमनाथ वाघमारे ने 'बेटल ऑफ भीमा कोरेगाँव; एन अनएंडिंग जर्नी’ का निर्माण अप्रैल 2016 में ही पूरा कर लिया था। उनके मुताबिक़ "यह उक्त घटना का एकमात्र विद्यमान दस्तावेज़ है।" उनसे बातचीत के अंश

लूर्देस एम सुप्रिया: आपने इस फ़िल्म को बनाने का कब फ़ैसला किया और इसका उद्देश्य क्या था?

सोमनाथ वाघमारे: ये फ़िल्म अप्रैल 2016 में तैयार हो गई थी। मैंने पुणे विश्वविद्यालय से एमए की डिग्री हासिल किया है। इसके बाद मैं पुणे स्थित एफटीआईआई में काम कर रहा था। यह वही वक़्त था जब संजय लीला भंसाली की फ़िल्म बाजीराव मस्तानी रिलीज़ हुई थी। इस फ़िल्म में पेशवा शासन का महिमामंडन किया गया जिसने मुझे काफ़ी असहज बना दिया। पेशवा शासन में बड़े स्तर पर जातिगत भेदभाव था जिसका फ़िल्म कोई अता पता नहीं था।

अन्य कारण भीमा कोरेगाँव में हुई लड़ाई को लेकर अम्बेडकर के अनुयायियों द्वारा किए गए आयोजन का दक्षिणपंथियों द्वारा दुर्व्यवहार था। वे महासारों को "धोखेबाज़" कहते हैं। पेशवाओं के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों के साथ लड़ रहे महारों को वे "देशद्रोह" कहते हैं। दक्षिणपंथी इस आयोजन को "राष्ट्र विरोधी" कहते हैं। लेकिन यह किस तरह राष्ट्रद्रोह है? और वे किस देश की बात कर रहे हैं? जब 1818 में भीमा कोरेगाँव युद्ध हुआ तो उस वक़्त ज़्यादातर रियासतें थीं। महारों ने ऐसे ही एक पेशवा शासक के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी थी। और उनके मतभेद पेशवाओं के भेदभावपूर्ण जातिगत प्रथाओं में निहित थे जिन्होंने महारों का दमन किया था।

वे इस जातिगत भेदभाव के ख़िलाफ़ और अपनी गरिमा के लिए लड़ रहे थे न कि किसी "राष्ट्र" के ख़िलाफ़। वास्तव में उस वक़्त कोई "भारत" नहीं था जैसा कि अब हमलोग समझते हैं।

इसलिए पहला उद्देश्य पेशवा शासन के दुष्ट पक्ष को बेनक़ाब करना था। यह दिखाना था कि पेशवा शासन उतना महान नहीं था जितना बॉलीवुड की फ़िल्म में दिखाया गया। दूसरा उद्देश्य भीमा कोरेगाँव युद्ध के इतिहास की खोज करके राष्ट्र-विरोधी होने के आरोपों को काउंटर करना था।

देखिए प्रमुख समस्या यह है कि भीमा कोरेगाँव की घटना किसी भी अकादमिक इतिहास का हिस्सा नहीं हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि ज़्यादातर ऐतिहासिक पुस्तकों को ब्राह्मण लोगों द्वारा लिखा गया है। और यह कोई अचानक नहीं हुआ है। फिर से यह जाति प्रणाली है जो ज़िम्मेदार है। आप देखिए, मनुस्मृति के अनुसार केवल ब्राह्मण लोगों को ही शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति है। नतीजतन, दलित और बाहुजन से संबंधित घटनाओं का कोई दस्तावेज या रिकॉर्ड नहीं हैं; उन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।

मैं इसके बारे में सार्वजनिक तौर पर बातचीत शुरू करना चाहता था लेकिन ऐसा नहीं होता क्योंकि मुख्य धारा की मीडिया इस घटना पर रिपोर्ट नहीं करती है। वर्षों से इसका आयोजन प्रत्येक वर्ष होता आ रहा है। लाखों लोग विजयी स्मारक पर जाते हैं लेकिन मुख्यधारा की मीडिया विशेष रूप से इंग्लिश मीडिया ने कभी इसे जगह नहीं दिया; यह किसी के द्वारा लिखा तक नहीं गया है।

भीमा कोरेगांव अब सार्वजनिक चर्चा का विषय बन गया है; इससे पहले इस पर कोई बातचीत नहीं हुई।

शुरुआत से ही मैंने इस फ़िल्म को सभी को मुफ्त उपलब्ध कराने की योजना बनाई थी। यूट्यूब पर अपलोड होने से पहले हमने कुछ स्थानों पर ये फिल्म दिखाई। सबसे पहले एफटीआईआई (पुणे) में दिखाई। इसे आईआईटी-बॉम्बे में भी और टीआईएसएस-बॉम्बे में भी दिखाया गया है। टीआईएसएस-बॉम्बे से मैं अभी पीएचडी कर रहा हूं। हमने इसे समुदायों में और कुछ फ़िल्म फ़ेस्टिवल में भी दिखाया है। इस फ़िल्म को पैसा कमाने के उद्देश्य से नहीं बनाया गया था। हमने लोगों के लिए इसे बनाया है। इसका उद्देश्य हमारे इतिहास को बड़ी संख्या में दर्शकों तक पहुंचाना था। ये फ़िल्म मुख्य रूप से लोगों से इक्ट्ठा किए गए पैसे की मदद से बनाई गई। प्रगतिशील लोग पैसा दान करते थे। कुछ लोगों ने पाँच हज़ार रूपए दिए तो कुछ लोगों ने चार हज़ार रूपए दिए। इसी तरह हमने इसके लिए पैसे इकट्ठा किए। हमें जो चीज़ और ज़्यादा प्रेरित की वह ये कि भीमा कोरेगाँव में होने वाले आयोजनों से संबंधित किसी दस्तावेज़ का न होना। आप मेरी फ़िल्म के अलावा इस पर कोई दस्तावेज़ नहीं पाएंगे। यह आयोजन का एकमात्र मौजूद दस्तावेज़ है। लेकिन हमें इस आयोजन के पीछे की राजनीति को नहीं भूलना चाहिए कि इसका अब तक कोई दस्तावेज या रिपोर्ट मौजूद नहीं है।

लूर्देस एम सुप्रिया: क्या आप भीमा कोरेगाँव में हुई हिंसा के बाद इस घटना को मीडिया द्वारा अनदेखा करने और इसे रिपोर्ट करने के तरीक़ों पर कुछ टिप्पणियाँ करना चाहेंगे।

सोमनाथ वाघमारे: भीमा कोरेगाँव में इकट्ठा होने वाले लोग एक विशेष विचारधारा अर्थात अम्बेडकर की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए जमा होते हैं। और यही वजह है कि हिंदुत्व समूह वास्तव में इसका विरोध करते हैं। इसलिए उन्होंने आयोजन में रूकावट पैदा किया जिससे हिंसा हुई... मीडिया ने इसे मराठों और दलितों के बीच लड़ाई के रूप में दिखाया। लेकिन ऐसा नहीं है ... दलित, और उनका समर्थन करने वाले वास्तव में ब्राह्मणवाद से लड़ रहे हैं।

यह वास्तव में ब्राह्मण जाति व्यवस्था का विरोध करने वाले और उसका समर्थन (दक्षिणपंथी) करने वालों के बीच लड़ाई है।

लेकिन मीडिया इस तरह इसकी रिपोर्ट नहीं करता है। उदाहरण स्वरूप मीडिया में बताया गया कि दलितों ने भीमा कोरेगाँव के विजयी स्मारक के पास आयोजन किया लेकिन उसने ये नहीं बताया कि वे कौन लोग हैं जिन्होंने इस आयोजन का विरोध किया था। उन दो लोगों को लीजिए जिन्होंने भीमा कोरेगाँव हिंसा को भड़काने का काम किया था। ये दो लोग मिलिंद एकबोटे और संभाजी भिडे हैं। किसी भी पत्रकार ने उनके जाति को नहीं बताया है।

अगर हम समझना चाहते हैं कि इस घटना को लेकर इस तरह के पक्षपातपूर्ण कवरेज क्यों किए गए तो हमें पूछने की ज़रूरत है कि मीडिया में कौन लोग है, ख़ासकर अंग्रेजी मीडिया में? मैंने एफटीआईआई में पढ़ाई की है इसलिए मैं इस संस्थान के बारे में बात कर सकता हूँ। उन लोगों की जाति क्या है जो वहां पढ़ाते हैं? उनमें से ज़्यादातर अगड़ी जाति के लोग हैं। जब जातिगत हिंसा की घटनाएँ प्रकाश में आती हैं तो वे इसके बारे में क्या सोचते हैं; वे इसके बारे में कैसा महसूस करते हैं? भीमा कोरेगाँव आयोजन जैसी घटनाओं को वे कैसे देखते हैं? ये सारे प्रश्न प्रासंगिक हैं, ख़ासकर विशेषाधिकारों की वजह से ये लोग अपनी जाति के परिणामस्वरूप लाभ उठाते हैं। अधिकतर, मीडिया के लोग अपनी जाति के बारे लिखते हैं, लेकिन वे "ब्राह्मण" बताने से बचते हैं। इस घटना को लेकर न्यूज़़लॉन्ड्री में राजेश राजमनी द्वारा एक लेख लिखा गया था। यह काफ़ी लोकप्रिय हुआ। लेख में राजमनी ने बताया कि अम्बेडकर को "दलितों के प्रतीक" के रूप में कैसे इंगित किया जाता है; ओमप्रकाश वाल्मीकि को "दलित लेखक" कहा जाता है। वे इस लेख में एक प्रासंगिक सवाल उठाते हैं। क्या मीडिया ने कभी इस तरह अन्य नेताओं के बारे में लिखा?

क्या गांधी को कभी "बानिया का प्रतीक" कहा गया?

बिल्कुल नही! लेकिन अम्बेडकर को दलितों के प्रतीक के रूप में बताने में उन्हें कुछ भी गलत नहीं लगता। इससे पता चलता है कि मीडिया में जातिवाद गहरी जड़ें आख़िर कैसी है। और मीडिया इस तरह की रिपोर्टिंग के माध्यम से अपने ही जातिवाद का पर्दाफ़ाश करता है। आगे जो समस्या है वह ये कि दलितों और बाहुजनों का मीडिया में कोई प्रतिनिधित्व नहीं है।

हम "उच्च जाति" शब्द के इस्तेमाल का विरोध करते हैं। आप ध्यान देंगे कि मैंने अपनी फ़िल्म में इस शब्द का इस्तेमाल ही नहीं किया है। ऐसा इसलिए क्योंकि यह असंवैधानिक है। भारत में उच्च जातियों की आबादी कुल आबादी का लगभग 25-30% है। इन जातियों के लिए संवैधानिक शब्द "अगड़ी जाति है"; और दलितों के लिए "अनुसूचित जाति" का इस्तेमाल किया गया है। मीडिया द्वारा सार्वजनिक रूप से इन शब्दों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। ख़ासकर इन मामलों में शब्द काफ़ी महत्वपूर्ण होते हैं। इन शब्दों का इस्तेमाल आख़िर क्यों नहीं किया जा रहा है? "निम्न जाति", "उच्च जाति"! क्या आपने कभी किसी को ख़ुद को निम्न जाति का कहते हुए सुना है? आप समझ सकते हैं,

...ये शब्द जिसका इस्तेमाल कोई जाति के लिए बात करने में करता है वह उसके अपने जातिगत स्थिति और जातिगत राजनीति को दर्शाता है।

उदाहरण स्वरूप अम्बेडकर ने जानबूझकर अपने लेखन में "दलित" शब्द का इस्तेमाल कभी नहीं किया; उन्होंने "अनुसूचित जातियों" का भी इस्तेमाल नहीं किया… जिस शब्द का इस्तेमाल मीडिया करता है, ये मीडिया की जातिगत राजनीति को दर्शाता है। उन्हें पता नहीं कि इसे कैसे इस्तेमाल करना है - जातिगत मुद्दे और ऐसी घटनाओं पर कैसे रिपोर्ट करना है। 

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