कश्मीर में फोटोजर्नलिज़्म: एक नामुमकिन पेशा
पिछले 70 सालों में कश्मीर विवाद की कहानी को कई तरीकों से सुनाया गया है। न्यूज़ रिपोर्ट्स, किताबों, कविताओं, फिल्मों, भाषणों और पोस्टरों के ज़रिए इसे अलग-अलग तरह से बयां किया गया। लेकिन कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म किए जाने के बाद सेंसरशिप का सबसे बड़ा दंश फोटो जर्नलिस्ट को झेलना पड़ा है। फोटो जर्नलिस्ट के काम की जरूरत है कि उन्हें घटनास्थल पर मौजूद होना होता है।
5 अगस्त को केंद्र ने जम्मू-कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बदलने का ऐलान किया था। इसके बाद फोटो जर्नलिस्ट सरकार और पत्रकारिता में विश्वास खो चुके लोगों के निशाने पर आ गए हैं। 2019 में क्षेत्र के सभी पत्रकारों को अपने काम पर अघोषित कड़ाई का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन इसका सबसे ज़्यादा शिकार फोटोजर्निलिस्ट हुए हैं।
सीनियर फोटो जर्नलिस्ट तौसीफ मुस्तफा के मुताबिक़ अगस्त के बाद हमें किसी भी सरकारी कार्यक्रम में जाने की अनुमति नहीं दी जाती है। मुस्तफा कश्मीर विवाद को 1993 से कवर कर रहे हैं। फिलहाल वे एजेंसी फ्रांस प्रेस या एएफपी से जुड़े हुए हैं। फोटोग्राफरों को केंद्रशासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर के पहले लेफ्टिनेंट गवर्नर के शपथ ग्रहण समारोह में भी नहीं जाने दिया गया। न हीं उन्हें केंद्र द्वारा कश्मीर लाए गए सांसदों से मिलने दिया गया। मुस्तफा ने बताया कि सिर्फ न्यूज़ एजेंसी एएनआई को ही इन कार्यक्रमों में जाने की अनुमित मिली।
यहां तक दैनिक कार्यक्रमों को भी कवर करने की अनुमति नहीं दी जा रही है। इससे फोटोजर्नलिज़्म के लोग नजरंदाज महसूस कर रहे हैं। फोटोग्राफर स्थानीय सूत्रों पर निर्भर नहीं हो सकते। न ही वे प्रिंट के पत्रकारों की तरह आसानी से अपनी जानकारी को बांट सकते हैं। जैसे फोटो जर्नलिस्ट को अब क्षेत्र में आर्मी द्वारा करवाए जाने वाले कार्यक्रम में जाने की अनुमति नहीं होती। यह किसी गैर-कश्मीरी के लिए बड़ी बात नहीं होगी। लेकिन घाटी में हर जगह सेना मौजूद है। अगर उनके कार्यक्रम में जाने की अनुमित फोटो जर्नलिस्ट को नहीं मिलती है तो यह आम जन-जीवन पर नियंत्रण करने वाली ताकत से मुंह छुपाना होता है।
मुस्तफा ने बताया,''1995 में जब चरार-ए-शरीफ की लड़ाई हुई थी, या 1993 में जब हजरतबल की लड़ाई हुई तब भी हमें कवरेज से नहीं रोका गया था, यहां तक कि हमने तब भी अपनी कवरेज जारी रखा, जब 2001 में राज्य विधानसभा पर हमला हुआ था।''10 मई 1995 में बड़गाम स्थित अहम सूफी धर्मस्थल में एक रहस्यमयी आग लग गई। इससे वहां मार्च से छुपे बैठे मिलिटेंट को बाहर आना पड़ा। आखिरकार मिलिटेंट लीडर मस्त गुल को पाकिस्तान वापस लौटना पड़ा।
इस घटना में 27 लोगों की जान गई। जिसमें दो आर्मी से थे। कई फोटो जर्नलिस्ट और स्थानीय पत्रकारों ने घटना को कवर किया था। इससे पहले 1993 में श्रीनगर के पास स्थित एक धर्मस्थल विवाद का केंद्र बना था। इसकी तस्वीरें और घटना पर हुई रिपोर्टिंग भी आज सार्वजनिक है। मुस्तफा जिस आखिरी घटना की बात कर रहे हैं, वो 2001 में हुई। तब विधानसभा पर एक विस्फोटक कार के ज़रिए आत्मघाती हमला किया गया था। इसमें 41 लोगों की जान गई थी। मारे गए लोगों में हमला करने वाले तीन आत्मघाती हमलावर भी थे। इसे भी फोटो जर्नलिस्ट समेत अन्य पत्रकारों ने खूब कवर किया था।
पांच अगस्त के बाद फोटो जर्नलिस्ट काम के लिए समूहों में निकलते हैं। उन्हें डर होता है कि अकेले पड़ने पर सरकारी ताकतें उनसे मारपीट कर सकती हैं या उन्हें हिरासत में ले सकती हैं। कश्मीर विवाद पर 2002 से कवरेज कर रहे स्वतंत्र फोटो जर्नलिस्ट जुहैब मकबूल ने बताया, ''इस बार उन्होंने (सुरक्षाबलों) हमारे साथ बहुत बदतमीजी की। हमारे आईडी कार्ड दिखाने के बावजूद उन्होंने हमारे साथ बुरा व्यवहार किया। यह प्रताड़ना थी। 2019 के बाद हमने हमेशा 10 से 15 लोगों के समूहों में किसी भी घटना को कवर किया है। अकेले जाने पर हिरासत में लिए जाने का खतरा होता है।
2016 में श्रीनगर के रैनवारी इलाके में प्रदर्शन के दौरान जुहैब पत्थरबाजी में घायल हो गए थे। पैलेट लगने के चलते उनकी बाईं आंख की रोशनी जा चुकी है। उन्होंने बताया कि उस दिन वह पैलेट उन्हें निशाना बनाकर चलाया गया था। लेकिन जुहैब को लगता है कि आज कश्मीर में स्थिति ज़्यादा भयावह है। जुहैब के मुताबिक़, ''अगर कोई अधिकारी हमसे फोटो न लेने के लिए कहता है तो हम उनसे बहस नहीं कर सकते। 2016 के उलट, पांच अगस्त के बाद फोटोग्राफर्स से फोटो डिलीज तक करवा दिए जाते हैं। 2016 में सिर्फ मुझे ही निशाना बनाया गया, लेकिन आज हर कोई निशाने पर है।''
जब फोटोग्राफर श्रीनगर के दक्षिणी इलाके में अंचर पहुंचे तो उन्हें वहां अपनी पहचान छुपानी पड़ी। जुहैब के मुताबिक,''अंचर अब सरकार विरोधी प्रदर्शनों का केंद्र है। सौरा घटना को कवर करने के लिए हमें अपनी पहचान और मेमोरी कार्ड तक छुपाने पड़े। आप नहीं जानते, कब आपको हिरासत में ले लिया जाएगा।''
जुहैब के मुताबिक़, कश्मीर में स्वतंत्र पत्रकारों के सामने ज़्यादा समस्याएं हैं। क्योंकि उनके पास किसी संगठन या संस्था का आधार नहीं होता। जुहैब कहते हैं,''अगर आपको किसी स्थानीय न्यूज़ आउटलेट ने नौकरी पर रखा है, तो आप केवल खुद के दम पर होते हैं। स्वतंत्र पत्रकारों को तो भूल ही जाइए।''
अगस्त के आखिरी सप्ताह में नेटवर्क ऑफ वीमेन इन मीडिया इंडिया (NWMI) जर्नलिस्ट लक्ष्मी मूर्ती और गीता शेशू ने कश्मीर घाटी के 70 पत्रकारों का इंटरव्यू लिया और ''न्यूज़ बिहाइंड द बार्ब्ड लाइन: कश्मीर्स इंफॉर्मेशन ब्लॉकेड'' नाम से सितंबर में एक रिपोर्ट प्रकाशित की। रिपोर्ट में पाया गया कि स्थानीय पत्रकारों को कश्मीर में कमतर आंका जा रहा है, उन्हें पुलिस और नेताओं द्वारा डराया जाता है। रिपोर्ट के मुताबिक़, विशेष दर्जे को हटाए जाने के बाद पत्रकारों के मानवाधिकारों का हनन का भी आरोप लगा है।
रिपोर्ट के मुताबिक़,''अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद हुए भारी बदलावों के बीच फ्रंट लाइन पर तैनात महिला फोटो जर्नलिस्ट स्थिति की विजुअल रिकॉर्ड बनाने की ओर से पूरी कोशिश कर रही हैं। एक महिला फोटो जर्नलिस्ट ने हमें बताया कि कैसे सुरक्षाबल, सेना की बड़ी तैनाती और इसके खिलाफ प्रदर्शनों के विजुअल रिकॉर्ड को नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते हैं। महिला और पुरूष फोटो जर्नलिस्ट को कई बार अपनी फुटेज हटाने पर मजबूर किया गया है। खासकर पत्थरबाजी के दौरान।''
आज फोटो जर्नलिस्ट से उम्मीद की जाती है कि वे सरकारी अधिकारियों से किसी तरह के सवाल न पूछें। इतना ही नहीं, उनसे उम्मीद की जाती है कि वे ऐसी तस्वीरें न खींचे जिनसे घाटी की असली तस्वीर बयां होती हो या राज्य और उसके कारनामों की आलोचना होती हो।2019 में बड़े प्रदर्शनों की कवरेज तक बदल गई। क्योंकि बहुत सारे लोगों का कलम और कैमरे में विश्वास हिल गया। मैदान पर मौजूद पत्रकारों के साथ भी लोग सहयोग नहीं करते हैं। यह बदलाव 2016 के प्रदर्शनों के बाद से आना शुरू हुआ। घाटी के पत्रकारों के मुताबिक़ ऐसा टीवी न्यूज़ चैनलों के आने के बाद हुआ। मुस्तफा के मुताबिक़, लोगों का मानना है कि न्यूज़ चैनल कश्मीर की वास्तविकता नहीं दिखाते हैं। यहां तक कि लोग अपनी तस्वीर लेने की अनुमति भी नहीं लेने देते। किसी कार्यक्रम के होने के बाद भी लोग, उस जगह पर पत्रकारों को पहुंच देने से इंकार करते हैं।
ऊपर से फोटो जर्नलिस्ट को लगातार ऐसे इलाकों में घूमना होता है, जहां राज्य ने कड़े प्रतिबंध लगाए हुए होते हैं। अगर उन्हें इन प्रतिबंधों के बावजूद अपने काम को पूरा करना होता है, तो उन्हें सूरज निकलने की पहली किरण के साथ घर से निकलना होता है। मुस्तफा के मुताबिक़,''हम राज्य और लोगों के बीच फंस गए हैं। अगर हमें किसी घटना की शुरूआती जानकारी मिलती है, तो हम उसपर और खोजबीन करने से डरते हैं। जब यहां मिलिटेंसी अपने चरम पर थी, तब भी ऐसा नहीं था।'' मुस्तफा के मुताबिक़ 1990 में सुरक्षाबल भी पत्रकारों के साथ सहयोग करते थे।
इस से साफ होता है कि क्यों 30 अक्टूबर 2019 को पत्रकारों ने कश्मीर बंद के 60 दिन पूरे होने पर ''मौन विरोध'' किया था। कश्मीर में स्थिति इतनी खराब है कि स्थानीय लोग और सरकार, दोनों ही फोटो जर्नलिस्ट से सहयोग करने के लिए तैयार नहीं हैं। 5 अगस्त 2019 को कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म कर समझौते की ज़मीन का खात्मा कर दिया गया। अब आम लोगों और सुरक्षाबलों को लगता है कि वे तलवार की नोंक पर चल रहे हैं।
(लेखक कश्मीर में स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।
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