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यूपी चुनाव : कुराली गाँव के हँसते ज़ख़्म

उत्तर प्रदेश चुनाव के दूसरे चरण का मतदान जारी है। इस बीच पढ़िये सहारनपुर ज़िले के कुराली गांव में टूटी सड़कों ग़रीबों को रही परेशानियों की यह रिपोर्ट।
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आपको सहारनपुर के नकुर प्रखंड के कुराली गांव के लोगों से सीखना होगा। भले ही उनकी सरकार ने उन्हें छोड़ दिया हो, लेकिन उन्होंने अपना सेंस ऑफ ह्यूमर नहीं छोड़ा है। पचास वर्ष  के राजकुमार को लीजिए, जो जीवनयापन के लिए एल्युमीनियम के दरवाजे और खिड़कियां बनाता है। जब मैं उनके तीन बच्चों में से सबसे बड़े, कॉलेज जाने वाले बेटे के बारे में उनकी उम्मीदों के बारे में पूछती हूं, तो वे जवाब देते हैं कि, “मैं सोचता हूं, प्रधानमंत्री इसे अपनी कुर्सी पर बिठा लेते - और मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री उन्हें अपनी कुर्सी पर बैठा सकते हैं।"

व्याकुल कर देने वाल कटाक्ष, मैं राजकुमार से उसके स्कूल जाने वाले बेटे और बेटी के बारे में भविष्य की योजना के बारे में जब पूछती हूं तो वे शांति से जवाब देते है कि, "मैं सोचता हूँ कि प्रधानमंत्री इन्हें अपने पास रख लें- मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री उन्हें अपने पास रख सकते हैं।"

कुराली में खिड़की बनाने वाले राजकुमार।

राजकुमार धीमन समुदाय से हैं, जो उत्तर प्रदेश में पिछड़े ग्रामीण कारीगरों का एक जाति समूह है। वे गरीबी से संघर्ष कर रहे हैं और कोशिश करते हैं कि गरीबी पर पार पाने के लिए सहारनपुर शहर में आधुनिक कच्चे माल और कौशल के साथ काम कर सकें। पिछले कुछ वर्षों में उनकी आय में लगातार गिरावट आई है। कोविड-19 लॉकडाउन से निर्माण उद्योग में पैदा हुए गतिरोध से उनकी संभावनाओं को चोट पहुंची है। राजकुमार के परिवार को कुछ महीनों के लिए मुफ्त राशन मिला है, लेकिन इससे खराब रोजगार परिदृश्य या कम आय में कोई बदलाव नहीं आया है।

इसलिए, यह चौंकाने वाला है कि वे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार का मजाक क्यों उड़ाते हैं, लेकिन कभी भी खुले तौर पर इसकी आलोचना नहीं करते हैं। शायद उनके हाव-भाव से ही हम उनके गुस्से का अंदाजा लगा सकते हैं।

ज्यादातर कुराली गाँव की हालत खराब है। राजकुमार का घर एक कच्ची गली के अंत में है जो बारिश होने पर कीचड़ से भर जाती है। उनके घर से मुश्किल से 50 मीटर की दूरी पर गाँव का तालाब है जहाँ गर्मियों में भैंसें लौट लगाती हैं। यह कूड़ा-करकट से भरी एक सड़ी हुई गंदगी है।

फिर भी, राजकुमार खुलकर असहमति जताने से बचते रहे हैं। वे कहते हैं, ''सरकार सड़क बनाने ही वाली थी कि आदर्श आचार संहिता लागू हो गई.'' प्रधानमंत्री आवास योजना, स्वच्छ भारत शौचालय और उज्ज्वला योजना के तहत सब्सिडी वाले आवास के बारे में वे कहते हैं कि, “मुझे इनमें से कोई भी लाभ नहीं मिला है, मैंने खुद अपने लिए सब कुछ किया है। लेकिन सरकार अच्छी है - वह बहुत काम कर रही है।" वह बिना किसी अभिव्यक्ति जैसा चेहरा लिए यह सब कहते हैं। 

मनोज, एक घुमंतू विक्रेता, जो राजकुमार के दरवाजे पर खड़ा सब सुन रहा था। दृढ़ता से कहता है कि: "सरकार ने कोई फायदा भी नहीं किया और कुछ बढ़िया भी नहीं किया है-सरकार ने कुछ भी नहीं दिया और फिर भी यह अद्भुत है।" फिर वह अपनी साइकिल पर पैडल मारता निकल जाता है।

आदतन कोई भी कुराली निवासी अपनी बदहाली के लिए खुले तौर पर प्रशासन को जिम्मेदार नहीं ठहराता है। वे कहते हैं कि वे गंदे तालाब को साफ करना चाहते हैं, लेकिन हमेशा रचनात्मक शब्दों में कहते हैं- "यह जल्द ही साफ हो जाएगा", "यह लंबे समय तक गंदा नहीं रहेगा", "चुनाव के बाद इसे ठीक कर दिया जाएगा" आदि। यह सोचकर कि लोग स्पष्टवादी क्यों नहीं हैं, मैं गुर्जरों से मिलने जाती हूँ, जो यहाँ के सामाजिक समूहों में सबसे अधिक हैं। स्थानीय गुर्जर अपने जैसे अन्य लोगों से घिरे सकारात्मक-विचारक बन जाते हैं।

एक गुर्जर नौजवान सोनू कहते हैं, ''हमारे गांव में पक्की सड़क का एक छोटा सा हिस्सा ही लंबित पड़ा है।'' प्रजापति नीरज कहते हैं, ''इसीलिए गांव के 2200 वोटों में से 2100 वोट बीजेपी को जाएंगे.'' लेकिन गलियां पूरी तरह पक्की नहीं हैं। उन्हें सीमेंट किया गया था लेकिन खराब रखरखाव के कारण खराब हो गई। निवासी असहमत हैं। “यह पहले और भी बुरा था; तब आपने इसे नहीं देखा था,” भगवान सिंह गुर्जर एक बड़ी मूंछों वाला एक प्रभावशाली व्यक्ति उक्त बातें कहता है।

गुर्जर खुद को सत्तारूढ़ दल के समर्थकों में गिनते हैं, लेकिन सहारनपुर में अपनी चुनावी जीत सुनिश्चित करने के लिए संख्यात्मक रूप से पर्याप्त नहीं हैं। कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से, सरकार अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को लुभाती है, जो आम तौर पर कम संपन्न होते हैं और प्रत्येक गांव में आबादी उनका एक छोटा हिस्सा हैं। कुराली के पास 200 से अधिक सैनी वोट हैं और इतनी ही दलित और अन्य जातियां हैं।

लेकिन क्या होगा अगर कल्याणकारी योजनाएं उन लोगों तक नहीं पहुंचती हैं जिन्हें उनकी जरूरत है? ऐसी विफलताओं का मुकाबला करने के लिए, सत्तारूढ़ भाजपा ने पूरे उत्तर प्रदेश में "सुरक्षा स्थिति में सुधार" लाने की एक बड़ी कहानी को विकसित किया है। इसलिए, हम भगवान सिंह को यह कहते हुए सुनते हैं, "समाजवादी शासन के दौरान लगातार राजमार्ग-डकैती हुई थी, लेकिन भाजपा के सत्ता में होने से हम सुरक्षित हैं।" जब उनसे पूछा गया कि क्या उन्हें कभी लूटा गया था, तो वे कहते हैं," नहीं - लेकिन दूसरों को लूटा गया था।"

सत्ताधारी दल द्वारा समर्थित हिंदुत्व की राजनीति ने सामाजिक विरोधों को हवा दी है, जिसका अर्थ है इस क्षेत्र में गुर्जर-मुस्लिम शत्रुता, जो हिंदूकृत पिछड़े वर्गों के वर्गों द्वारा समर्थित है। मुख्यमंत्री सहित भाजपा नेताओं द्वारा इस धारणा को हवा दी जा रही है कि अगर समाजवादी पार्टी सत्ता में लौटती है, तो गुंडा राज होगा, जिसका अर्थ यादव और मुस्लिम प्रभुत्व होगा।

चूंकि सहारनपुर में केवल कुछ ही यादव हैं, इसलिए भाजपा की राजनीति मुख्य रूप से मुसलमानों के सामाजिक अलगाव के इर्द-गिर्द केंद्रित है और उन्हें अपराधियों के रूप में लेबल किया जाता है, जिन्हें कभी समाजवादी पार्टी द्वारा "आश्रय" दिया गया था। एक बार जब हिंदू और मुस्लिम वोटिंग प्राथमिकताएं अलग-अलग हो जाती हैं- तो मुसलमानों ने इस चुनाव में समाजवादी पार्टी की ओर रुख कर लिया है- बीजेपी चुनावी महत्व हासिल कर रही है। बदले में, इससे गुर्जरों को अपना सामाजिक और आर्थिक प्रभुत्व जारी रखने में मदद मिलती है।

इस प्रभुत्व के कई भाव भी हैं, जिसमें सत्ताधारी दल के लिए "अंधा समर्थन" दिखता है। भंवर सिंह इसे अच्छी तरह से दर्शाते हैं, “हमारे पास शून्य-बैलेंस खाते हैं, इसलिए हमें नकदी की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है। कुछ किसान अपनी फसलों के लिए अधिक भुगतान चाहते हैं, लेकिन मैं कहता हूं कि हम आधे भुगतान के साथ जी लेंगे, क्योंकि आज हम सुरक्षित हैं।”

भंवर सिंह गुर्जर, कुराली की सरकार समर्थक आवाज।

कम संपन्न और सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े राजकुमार और मनोज इस तरह के प्रभुत्व के अधिकार को चुनौती नहीं दे सकते हैं। वे अधिकतम सुविधाओं के लिए सरकार पर निर्भर हैं और इसके गलत पक्ष में प्रकट होने का जोखिम भी नहीं उठा सकते हैं। यही कारण है कि गरीब देखता है कि हवा किस तरफ बह रही है और शायद ही कभी अपनी राजनीतिक प्राथमिकताओं के बारे में बोलता है।

हालांकि, कोविड-19 महामारी और आर्थिक गिरावट ने कई लोगों के लिए स्थिति को असहनीय बना दिया है। शायद यही वजह है कि कुराली में कई लोग मजाक उड़ाते नजर आ रहे हैं। इस तरह वे विकास की धीमी गति और प्रगति की कमी पर अपना आक्रोश व्यक्त करते हैं। या वे कुछ भी करने के लिए खुद को शक्तिहीन महसूस करते हैं लेकिन हंसते हैं-कम से कम मतदान के दिन तक तो वे ऐसा ही करते हैं।

भंवर सिंह के विहार की जांच करने के लिए कि मुसलमान कुराली के मतदाताओं को आतंकित करते हैं, मैं मुस्लिम निवासियों से मिलने जाती हूं। यहां केवल पचास योग्य मुस्लिम मतदाता हैं, मुख्य रूप से जुलाहा या बुनकर समुदाय से, जो एक पिछड़ा वर्ग है।

“गुर्जरों के गांव में रहना मुश्किल हो सकता है। उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है, लेकिन हमें चुप रहना पड़ता है क्योंकि वे बहुत अधिक संख्या में हैं और हम काफी कम हैं,” उक्त बातें आसमा कहती हैं, जिनका घर एक संकरी गली में है। कई मुस्लिम महिलाएं एक पुरानी घटना सुनाती हैं। कुछ साल पहले, उन्होंने रमजान के दौरान एक हाफिज को आमंत्रित किया, जिसे गुर्जरों ने अपमानित किया और धक्का-मुक्की की। तब से अब तक कोई हाफिज गांव में नहीं आया है।

उज्ज्वला योजना के तहत अस्मा को गैस सिलेंडर नहीं मिला है।

 आसमा कहती हैं, ''गुर्जर छोटी-छोटी बातों पर भी एक साथ आ जाते हैं और लड़ने के लिए लाठियों के साथ आते हैं, इसलिए हमें चुप रहना पड़ता है।'' तभी उसकी बेटी घर में प्रवेश करती है, और घबराते हुए कहती है, "गुर्जर हमारी गली के बाहर जमा हो गए हैं - वे चर्चा कर रहे हैं कि हम मीडिया को क्या बता रहे हैं।" 

जहां मुसलमान रहते हैं वहां राजकुमार की गली से भी कम सरकारी सुविधाएं हैं। मकान पूरी तरह से खुली ईंटों के हैं। अधिकांश परिवार गन्ने के खेतों की सफाई से प्रतिदिन 200-250 रुपये कमाते हैं। सभी भूमिहीन हैं। किसी को राशन मिलता है, किसी को नकद हस्तांतरण मिलता है, कुच्छ के पास एसबीएम शौचालय है, और किसी के पास गैस कनेक्शन है। कुछ को पेंशन मिलती है, और कई को उपरोक्त में से कुछ नहीं मिलता है। ऐसा लगता है कि किसी भी परिवार ने इनमें से एक या दो से अधिक योजनाओं का इस्तेमाल नहीं किया है; किसी को तो कुछ भी  नहीं मिला है।

एक वृद्ध विधवा नूरजहाँ, जिसका पोता अस्वस्थ है, कहती है कि “हम में से अधिकांश ने अपना घर खुद बनाया है, और मोदी वाली गैस-उज्ज्वला योजना नहीं मिली है।” सहारनपुर में उनका इलाज नहीं हो पा रहा है। "देखो जी, गांधी जी हैं यानि रुपया है तो सब कुछ है" वे चुटकी लेती हैं। 

"देखो," एक युवा इमराना वह सबको हँसाते हुए कहती हैं कि "हम मोदी [बीजेपी] को वोट नहीं देते हैं, और हम उनसे कह सकते हैं-मोदीजी, हम आपको वोट नहीं देते। आसमा कहती हैं, "मोदी जी का इरादा हमें पाकिस्तान भेजने का है, लेकिन अपने आर्थिक ठहराव पर तंज़ कसते हुए कहती है हम कहीं नहीं जा रहे हैं।"

कोई सोच सकता है कि अकेले मुसलमान ही भाजपा और गांव में सबसे मुखर समर्थकों के आलोचक हैं, इसलिए मैं उन सिखों से मिलती हूं, जिनमें से एक दर्जन से भी कम कुराली में रहते हैं। सड़ांध से भरे तालाब के उस पार किसान कुलविंदर सिंह रहते हैं। उसकी गुर्जरों के साथ बात ठीक है, लेकिन वह उनके और राजपूतों के बीच एक स्थानीय राजा राजा मिहिर भोज के बीच के झगड़े से परेशान हैं। वे क्षेत्र में हर गुर्जर बहुल गांव के बाहर विशेष रूप से एक जैसे साइनबोर्ड लगाने को नापसंद करते हैं। बोर्डों के ऊपर बड़े लाल अक्षरों में "गुर्जर" लिखा होता है। अगली पंक्ति में लिखा है, "प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज"। तीसरी पंक्ति, सबसे नीचे, गाँव के नाम और फिर उसकी दिशा की ओर इशारा करते हुए एक तीर तक ले जाती है।

उन्हें "गुर्जर साइनबोर्ड" कहते हुए, कुलविंदर कहते हैं, "कौन सा कानून गुर्जरों को गांव और यहां रहने वाले हर दूसरे समुदाय के नाम को शामिल करने के लिए अपनी जाति के नाम का उपयोग करने की इजाजत देता है? क्या हम सब सिखों से लेकर मुसलमानों तक, जोगियों या दलितों, तक और कुम्हारों और दार्ज़ियों तक सब बराबर नहीं हैं?”

एक सिख किसान कुलविंदर असंतुष्ट हैं।

कुलविंदर एक आलंकारिक प्रश्न प्रस्तुत करते हैं: "क्या होगा यदि सिख बोर्ड, मुस्लिम बोर्ड और अन्य समुदायों के बोर्ड भी लग जाएंगे?"

सीधे शब्दों में कहें तो, साइनबोर्ड ने कुलविंदर को उनकी विशिष्ट सिख पहचान के प्रति जागरूक किया है और उन्हें यह महसूस कराया है कि गुर्जर अपनी पहचान को अन्य सभी से श्रेष्ठ मानते हैं। वह कृषि कानून आंदोलन के दौरान भाजपा और उसके समर्थकों की बयानबाजी से भी आहत महसूस कर रहे हैं, जब किसानों को अलगाववादी कहा जाता था, आदि। अब, उन्हें लगता है कि साइनबोर्ड दूसरों के कुराली में समान रूप से रहने के अधिकार पर सवाल उठाते हैं।

कुलविंदर भाजपा के सत्ता-खेल को सांप्रदायिक बयानबाजी के नजरिए से देखते हैं। “वे [हिंदू मतदाता] समाजवादी पार्टी के सत्ता में वापस लौटने पर 'मुस्लिम शासन' से डरते हैं। लेकिन अखिलेश यादव जानते हैं कि वह पिछला चुनाव क्यों हारे थे और वे अपनी गलतियों को नहीं दोहराएंगे। हम किसी भी पार्टी के खिलाफ नहीं है, हम केवल बेहतर स्थिति चाहते हैं - गंदा तालाब देखें, जिसमें से बदबू आती है और मच्छर पैदा होते हैं। जो कोई भी इस देश की परवाह करता है वह सुधार चाहता है।”

हास्य उड़ाती कुराली में, कुलविंदर एक गंभीर व्यक्ति के रूप में सामने आते हैं। इसलिए मैंने उनसे पूछा कि अपेक्षाकृत दूसरों बेहतर गुर्जर समुदाय अपने गांव में सरकार के औसत प्रदर्शन से संतुष्ट क्यों हैं। वे हंसते हुए कहते हैं, "ऐसा इसलिए है क्योंकि वे खुश नहीं हैं।"

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें:-

Portrait of a Village: Kurali Turns to Humour, Veils Desperation Ahead of UP Elections

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