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असम: 'उद्योग बचाओ और मज़दूर बचाओ' का संयुक्त संघर्ष बना व्यापक

न केवल पेपर मिलें, बल्कि असम के अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को भी अब निजी खिलाड़ियों को सौंपने की तैयारी की जा रही है।
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उधोग बचाओ, मज़दूर बचाओ, ज्वाइंट एक्शन कमेटी ने गुरुवार को असम में राज्यव्यापी विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया।  इस दिन अपनी पुरानी मांगों को दोहराते हुए उन्होंने इसे ' राज्यव्यापी उद्योग बचाओ मजदूर बचाओ दिवस' का नाम दिया है। विरोध दिवस मनाने के लिए कई जिलों में कार्यकर्ता, कर्मचारी, छात्र और कार्यकर्ता एकजुट हुए हैं।

चार साल से अधिक समय बीत चुका है, लेकिन अब तक असम में दो पेपर मिलों के कर्मचारियों और श्रमिकों को उनका वेतन नहीं मिला है, जिनमें से 91 की स्वास्थ्य लाभ न उठा पाने के कारण मौत हो गई और 4 ने आर्थिक संकट के कारण आत्महत्या कर ली है।

“70 के दशक में, व्यापक बेरोजगारी और असामाजिक गतिविधियों में बड़ी वृद्धि के कारण असम में युवाओं में आक्रोश बढ़ रहा था। यह सब इंदिरा गांधी के शासन के दौरान हुआ था जब 1970 में दो पेपर मिलें - एक नागांव (जो अब मोरीगांव कहलाता है) जिले के जगीरोड में और दूसरी हैलाकांडी जिले के पंचग्राम में स्थापित की गई थी – इन्हे असम में संसद में कानून पारित करने के बाद स्थापित किया गया था और मिलों का निर्माण कार्य शुरू हुआ था। दशक के उत्तरार्ध में क्रमशः 1985 (जगीरोड मिल) और 1988 (हैलाकांडी में कछार मिल) चालू हो गए थे," उक्त बातें आनंद बोरदोलोई ने न्यूज़क्लिक को बताई।
 
बोरदोलोई, नगांव पेपर मिल कर्मचारी यूनियन के महासचिव हैं। वे और उनके कई साथी, जिन्होंने असम की दो पेपर मिलों में से किसी न किसी में काम किया था, अब आजीविका कमाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

"जागीरोड पेपर मिल में उत्पादन को 13 मार्च, 2017 को निलंबित कर दिया गया था, और कछार मिल ने अक्टूबर 2016 में काम करना बंद कर दिया था। यह कदम अचानक उठाए गए थे और बिना किसी पूर्व सूचना और बिना किसी चर्चा के ये निर्णय लिए गए थे। हमारा वेतन भी 2017 की शुरुआत से ही रोक दिया गया था। प्रबंधन के साथ हुई बैठकों में इस बारे में कोई स्पष्टता नहीं मिली है कि ऐसा क्यों हुआ, कुछ इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि ऐसा सरकारी निर्देशों के कारण हुआ है।

2008-09 में जगीरोड मिल को 'मिनी रत्न' कंपनी का दर्जा हासिल हुआ था और दोनों पेपर मिल केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (पीएसयू) हैं। औसतन, मिलों की प्रतिदिन 300 मीट्रिक टन कागज उत्पादन की क्षमता थी। बोरदोलोई ने कहा कि, "उत्पादन बंद होने से एक दिन पहले 13 मार्च, 2017 को, जगीरोड मिल ने 276 मीट्रिक टन कागज का उत्पादन किया था।"

ये मिलें देश में कागज उत्पादन की जरूरत को पूरा करने के वादे के साथ बेहतर काम कर रही थीं। एनसीईआरटी, राज्य शिक्षा बोर्ड, सरकारों और व्यावसायिक कंपनियाँ इन मिलों से कागज की खरीद करते थे। इन दो मिलों से असम की कागज़ की जरूरत को भी पूरा किया किया जाता  था। प्रति मीट्रिक टन कागज़ का बाजार मूल्य अब एक लाख रुपये है जबकि पहले यह 48,000 रुपये से 52,000 रुपये के बीच होता था।

हाल ही में हुए राज्य विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान, सत्तारूढ़ भाजपा नेताओं को यह कहते सुना गया कि मिलों को फिर से मजबूत किया जाएगा, जबकि यह मांग साढ़े चार साल से अधिक समय से की जा रही है। "अमित शाह ने भी बारपेटा जिले के सोरभोग में एक जनसभा में कहा था कि मिलों को पुनर्जीवित किया जाएगा" - बोरदोलोई ने याद दिलाया।

हाल ही में, हिमंत बिस्वा सरमा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने मिलों की नीलामी की घोषणा कर इन सार्वजनिक उपक्रमों को निजी खिलाड़ियों को सौंपने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। 

असम के कई जिलों में पेपर मिलों के श्रमिकों और कर्मचारियों के साथ-साथ बांस की खेती करने वालों को भी करारा झटका लगेगा। असम में विभिन्न किस्मों के बांस बहुतायत में पाए जाते हैं; यह कागज उत्पादन के लिए एक जरूरी कच्चा माल है।

न केवल कागज मिलें, बल्कि असम में अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को अब निजी खिलाड़ियों को सौंपे जाने की तैयारी की जा रही है। राज्य के तेल क्षेत्रों का निजीकरण उद्योग के हितधारकों के बीच एक और विवादास्पद मुद्दा है। अन्य महत्वपूर्ण उद्योग में डिब्रूगढ़ जिले के नामरूप शहर में मौजदु ब्रह्मपुत्र घाटी उर्वरक निगम लिमिटेड के निजीकरण की भी तैयारी है। 

यह संयंत्र भारत में पहला प्राकृतिक गैस आधारित उर्वरक कारखाना है जो सबसे सस्ते उत्पाद का उत्पादन करता है और इसे 1960 के दशक में स्थापित किया गया था। उद्योग बचाओ, मज़दूर बचाओ - ज्वाइंट एक्शन कमेटी के संयोजक विवेक दास ने बताया कि, "नामरूप के कारखाने में उर्वरक के उत्पादन के लिए कच्चा माल ओआईएल (ऑयल इंडिया लिमिटेड) द्वारा प्रदान किया जाता है।"

इस उद्योग में मशीनरी को समय-समय पर अपडेट करने की जरूरत है। 1960 के दशक में इसकी स्थापना के बाद से, मशीनें अपडेट का काम कम से कम तीन चरणों में गुज़रा हैं। “मशीनों का जीवनकाल लगभग पंद्रह वर्षों का होता है और उसके बाद उन्हें अपग्रेड करने की जरूरत होती है। हर पंद्रह वर्ष को एक इकाई कहा जाता है। नामरूप उर्वरक उद्योग ने 2009 तक अपनी तीसरी इकाई खोली ली थी। दास ने बताया, कि उस समय उद्योग को चौथी इकाई पर काम शुरू करने की जरूरत थी, जो अभी तक नहीं किया गया है,”।

उन्होंने कहा कि “चौथी इकाई के न होने से उत्पादन कम हो गया और श्रमिक भी चले गए। उद्योग अब मरणासन्न स्थिति में पड़ा है,”।दिलचस्प बात यह है कि 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा ने चौथी इकाई स्थापित करने की वकालत की थी। लेकिन नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने सात साल हो गए हैं और असम में भाजपा के शासन को पांच साल बीत चुके है। नामरूप उर्वरक उद्योग को उन्नत बनाने के लिए अभी तक कुछ भी नहीं किया गया है।

नामरूप उर्वरक उद्योग के काम ठप्प होने का असर असम के किसानों पर भी पड़ेगा, खासकर छोटे पैमाने के चाय बागान मालिकों पर, जो वहां से बहुत सस्ते दर पर उर्वरक खरीदते थे। दास ने कहा कि छोटे चाय बागान मालिकों को छह रुपये प्रति किलोग्राम की दर से खाद मिलती थी, जो उनके लिए वरदान था।
1970 के दशक में नागांव जिले के सिलघाट में स्थापित असम को-ऑपरेटिव जूट मिल्स लिमिटेड का भी कुछ यही हाल है। असम भारत का दूसरा सबसे बड़ा जूट उत्पादक राज्य है और 1.6 मिलियन गांठ जूट का उत्पादन करता है। नागांव, बारपेटा, दरांग और गोलपारा ऐसे जिले हैं जो मुख्य रूप से जूट का उत्पादन करते हैं। सिलघाट जूट मिल अब मरणासन्न स्थिति में है।

असम में इन बेहतर उद्योगों को तबाह कर दिया गया है, जोकि न केवल राज्य की बड़ी आबादी की आजीविका के लिए खतरा है, बल्कि राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए भी एक खतरे का संकेत है।केंद्रीय ट्रेड यूनियनों, उद्योगों से जुडी कई मज़दूर यूनियनों, छात्र संगठनों और राजनीतिक दलों सहित कई संगठनों ने उद्योगों को पुनर्जीवित करने और श्रमिकों को उनका बकाया दिलाने के संघर्ष को आगे बढ़ाने के प्रयास में हाथ मिलाया है। 2019 में उद्योग बचाओ, मज़दूर बचाओ जाइंट एक्शन कमेटी का गठन किया गया था। तब से, सरकार द्वारा शुरू किए गए निजीकरण के प्रयासों के खिलाफ लड़ रही है, और उद्योगों को जीवित करने की मांग कर रही है ताकि  श्रमिकों को उनका बकाया तुरंत मिल सके। 

8 जुलाई को, संयुक्त समिति ने राज्यव्यापी विरोध का आह्वान किया था, एक ऐसा दिन जब वे अपनी पुरानी मांगों को दोहराते हुए 'राज्य-व्यापी उद्योग बचाओ दिवस' के रूप में मना रहे थे। विरोध दिवस मनाने के लिए कई जिलों में कार्यकर्ता, कर्मचारी, छात्र और कार्यकर्ता एकत्र हुए। न्यूज़क्लिक से बात करते हुए, समिति के मुख्य संयोजक पंकज कुमार दास ने कहा कि: “गुवाहाटी, बारपेटा, नलबाड़ी, बंगाईगांव, गोलपारा, धुबरी, कोकराझार, शिवसागर, गोलाघाट, तिनसुकिया, डिब्रूगढ़ और करीमगंज जिलों में विरोध प्रदर्शन हुए। विरोध प्रदर्शन में विभिन्न पृष्ठभूमि के लोग बड़ी संख्या में शामिल हुए। हवाईअड्डा प्राधिकरण कर्मचारी यूनियन ने भी गुवाहाटी हवाईअड्डे पर विरोध प्रदर्शन किया।
डिब्रूगढ़ में असम स्टेट पावर वर्कर्स यूनियन द्वारा 'उद्योग बचाओ मजदूर दिवस बचाओ' पर विरोध प्रदर्शन करते हुए

उन्होंने आगे कहा “हम पेपर मिलों की प्रस्तावित नीलामी को तत्काल रद्द करने और उन्हें उनकी पूरी क्षमता से फिर से स्थापित करने की मांग कर रहे हैं। कई मज़दूर बड़े संकट से जूझ रहे हैं और कुछ ने तो आत्महत्या कर ली है। असम के नवनिर्वाचित सीएम हिमंत बिस्वा सरमा ने घोषणा की थी कि उनके नेतृत्व में असम भारत के शीर्ष पांच राज्यों में शामिल होगा। वास्तव में हमने असम में मौजूदा उद्योगों पर चौतरफा हमला देखा है, जिसके परिणामस्वरूप राज्य की अर्थव्यवस्था को बड़ा झटका लगा है और साथ ही बेंतहा बेरोजगारी भी बढ़ी है।  
'उद्योग बचाओ मजदूर दिवस बचाओ' पर चाय बागान में जारी विरोध प्रदर्शन

असम के प्रख्यात बुद्धिजीवी डॉ. हिरेन गोहेन ने एक बयान में विरोध का समर्थन किया है। "यह एक साबित तथ्य है कि निजी पूंजी की एकमात्र इच्छा खुद के लिए अधिक से अधिक लाभ कमाना है जिसका रोजगार सृजन से कुछ भी लेना-देना नहीं है। यह एक निराधार दावा है कि सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों का परिणाम केवल भ्रष्टाचार और नुकसान में होता है। उन्होने कहा, असम और उसके बाहर बहुत सारे उदाहरण मौजूद हैं जहां सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम सफलतापूर्वक चलते हैं और लाभ कमाते हैं,”।

उन्होंने आगे कहा कि “वास्तव में, राजनीतिक हस्तक्षेप और भ्रष्ट नौकरशाही का कामकाज मुख्य रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों के विनाश के लिए जिम्मेदार हैं। असम के सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों का कायाकल्प न केवल बढ़ती बेरोजगारी को संबोधित करेगा, बल्कि राजस्व की कमाई में भी योगदान देगा,”।

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