श्रमिकों के 'अधिकार' को 'लाभ' में बदलने की कला
2019 के आम चुनावों के बाद नरेंद्र मोदी सरकार की सत्ता में वापसी से, रोज़गार और बेरोज़गारी एक बार फिर से बहस का केंद्रीय विषय बन गया है। सरकार ने इस बहस का जवाब देने की कोशिश करने का फ़ैसला किया है, और इसके लिए उन्होंने असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के लिए एक पेंशन योजना (प्रधान मंत्री श्रम योगी मनधन पेंशन योजना) को प्रचारित करने का प्रयास करती नज़र आ रही है, जबकि सरकार देश के श्रम क़ानून को "समेकित" यानी उसे बेअसर करने की कोशिश कर रही है। चुनाव के बाद, मोदी सरकार ने छोटे व्यापारियों और दुकानदारों की तरफ़ इस पेंशन योजना का विस्तार करने की योजना की भी घोषणा की है।
लेकिन, अगर कोई एक बात है जो इस चर्चा के खोखलेपन को प्रदर्शित करती है, तो वह यह है कि किस तरह से देश में श्रम से जुड़े मुद्दों पर निर्णय लेने के बारे में नीति संबंधी विचार को एक काल्पनिक दुनिया के आधार पर किया जा रहा है। इस सुंदर कल्पना में, भारत में ‘श्रम क़ानून कठोर और कड़ाई’ से लागू होने वाले हैं, जो रोज़गार को प्रभावित करते हैं; और इसलिए इन पर प्रतिबंध लगाने से रोज़गार बढ़ेगा; और कल्याणकारी योजनाओं के ज़रिये विधवाओं और ग़रीबी का ध्यान रखा जाएगा जो बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी को गड्ढे में धकेल देती हैं। संक्षेप में, यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि श्रमिकों को
मुख्यतः "अधिकारों" की नहीं बल्कि "लाभ" की आवश्यकता है।
यह परिदृश्य वास्तविकता से काफ़ी दूर जान पड़ता है और कोई भी यह कहने के लिए ललचा जाएगा कि इस तरह की "फ़न्तासी" बहुत कमज़ोर है। पूर्ववर्ती दो वर्षों में, 2017 और 2018 में, सामाजिक अनुसंधान कलेक्टिव की हमारी टीम ने क्रमशः पुरुषों और महिलाओं पर दो अध्ययन किए, ये अध्ययन उन पर थे जो आकस्मिक और दैनिक मज़दूरी के उद्देश्यों के लिए अपने इलाक़ों से पलायन करते हैं। हमारे अध्ययन में तीन राज्यों - तमिलनाडु, उत्तराखंड और दिल्ली शामिल हैं, हमारा यह अध्ययन श्रमिकों की झुग्गी बस्तियों में सर्वेक्षण और साक्षात्कार पर आधारित है। हमने जो पाया वह उपरोक्त सूचीबद्ध किसी भी नीतिगत धारणा से मेल नहीं खाता है। विशेष रूप से, हमने निम्नलिखित वास्तविकताओं को पाया।
पहले से ही तस्वीर यह रही है कि इन श्रमिकों के लिए और अधिकांश केज़ुअल (आकस्मिक), अनुबंध और दिहाड़ी मज़दूरों के लिए - अर्थात, भारत के बहुमत कार्यबल के लिए - श्रम क़ानून पूरी तरह से अस्तित्वहीन रहे हैं। यह केवल इसलिए नहीं कि ये मज़दूर प्रवासी हैं, हालांकि इन्होंने निश्चित रूप से एक भूमिका निभाई है (जैसा कि एक अधिकारी ने उत्तराखंड में हमसे कहा, "हमें इन लोगों का ध्यान क्यों रखना चाहिए? उन्हें अपनी राज्य सरकारों से मदद मांगनी चाहिए")। वास्तविकता यह है कि भारतीय श्रम क़ानून में तीन केंद्रीय तत्व हैं जो इसे अधिकांश श्रमिकों के लिए अप्रासंगिक बनाते हैं।
सबसे पहले, लगभग हर श्रम क़ानून में एक संख्यात्मक सीमा शामिल होती है जब इसे उन कार्यस्थलों पर लागू करने की बात आती है जहाँ इसे लागू होना होता है; उदाहरण के लिए, अनुबंध श्रम (विनियमन और उन्मूलन) अधिनियम, 1971, एक समय में केवल 20 से अधिक श्रमिकों को रोज़गार देने वाले कार्यस्थलों पर लागू होता है, और भवन और अन्य निर्माण श्रमिक अधिनियम 1996 केवल 10 से अधिक श्रमिकों वाले कार्यस्थलों पर लागू होता है। यह स्वचालित तरीक़े से कार्यस्थलों के बहुमत श्रमिकों को अपने दायरे से बाहर कर देता है और कुछ प्रकार के श्रमिकों को तो पूरी तरह से ही बाहर कर देता है - जैसे कि घरेलू श्रमिक, दैनिक वेतन पाने वाले प्लंबर या इलेक्ट्रीशियन, छोटे केज़ुअल पेंटर, आदि।
दूसरा, भारत के सभी श्रम क़ानूनों में एक अनुछेद जो श्रमिकों को प्रतिबंधित है और बताता है कि क़ानून के उल्लंघन के लिए कौन शिकायत दर्ज कर सकते हैं और कौन नहीं। उदाहरण के लिए, न्यूनतम मज़दूरी अधिनियम, मज़दूरी भुगतान अधिनियम या अनुबंध श्रम अधिनियम के तहत शिकायत केवल श्रम निरीक्षक द्वारा दर्ज की जा सकती है। इस तरह का सबसे 'उदार' खंड बिल्डिंग वर्कर्स एक्ट में है, जो पंजीकृत निर्माण श्रमिक यूनियनों द्वारा भी शिकायत दर्ज करने की अनुमति देने के लिए पर्याप्त उदार है। लेकिन किसी भी श्रम क़ानून के तहत एक अकेला श्रमिक अपने अधिकारों का उल्लंघन होने पर आपराधिक मामला दर्ज नहीं कर सकता है। यह एकल प्रावधान श्रम क़ानून की पूरी वास्तुकला को लगभग अप्रासंगिक बना देता है - इस वजह के कारण, जिनके अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है, वे उन कानूनों के संरक्षण का कभी सहारा नहीं ले सकते है।
तीसरा, और अंतिम, उपरोक्त दोनों कारकों का परिणाम यह है कि श्रमिकों को अपने अधिकारों का लाभ उठाने के लिए प्रमाण (दस्तवेज़ी रिकॉर्ड्स) के रूप में एक बड़े बोझ का सामना करना पड़ता है। यह उन मामलों मे भी होता है, जहाँ क़ानून ख़ुद कहता है, कि अनुबंध श्रम अधिनियम के तहत सभी तरह के रिकॉर्ड बनाए रखने की ज़िम्मेदारी मालिक और ठेकेदार के पास है। वास्तव में, क़ानून जो कुछ भी कहे, किसी भी कार्रवाई के लिए, सबसे पहले श्रमिकों को यह साबित करना होगा कि उनके कार्यस्थल में कानून के हिसाब से संख्यात्मक सीमा है (जिसे सभी में साबित करना एक कठिन काम है लेकिन सभी औपचारिक प्रतिष्ठानों में यह कम है); नहीं तो फिर आपको लेबर इन्सपेक्टर (या निर्माण श्रमिकों के युनियन के नेता) को मनाएँ कि उनके अधिकारों का उल्लंघन हुआ है, जिसके लिए आधिकारिक तौर पर दस्तावेज़ी प्रमाण की मांग की जाएगी; और फिर, यदि वे इस सब को भी हासिल करने में सफ़ल हो जाते हैं, तो ही कुछ कार्यवाही (आपराधिक या अन्यथा) की शुरुआत होगी।
चूंकि दोनों श्रमिक और श्रम अधिकारी इन तथ्यों से अवगत हैं, इसलिए वे किसी वास्तविक कार्रवाई का प्रयास करते हैं। जो भी श्रम क़ानून कहे, श्रमिकों के विशाल बहुमत के लिए, श्रम विभाग शायद ही कभी वहाँ खड़ा होता है जहाँ उसे विवाद के मामले में खड़ा होना चाहिए। वास्तव में, अधिकांश श्रमिक पुलिस से संपर्क करते हैं, जो "अनौपचारिक रूप से" इस तरह के मामलों से निपटते हैं, वे अक्सर दोनों पक्षों से रिश्वत लेते हैं और अक्सर श्रमिकों को कोई भी न्याय नहाईं मिलता है। जैसा कि एक श्रमिक ने हमें बताया, कम मज़दूरी देने की सामान्य प्रथा का उल्लेख करते हुए या दैनिक वेतन भोगी श्रमिकों को भुगतान नहीं करने पर, "मैं नहीं चाहता कि सरकार मुझे साइकिल और धन मुहैया कराए। मैं यह सुनिश्चित करना चाहता हूँ कि मुझे मेरे काम के लिए सही दाम मिले। जब लोगों को वेतन ही नहीं मिलता है, ग़रीबी कैसे समाप्त होगी? " ऐसी स्थिति में, श्रम क़ानून में "सुधार" करने का अर्थ है कि अनिवार्य रूप से संगठित, स्थायी श्रमिकों के अल्पसंख्यक हिस्से को अधिक कम करना है, जिन्हें कम से कम अपने अधिकारों के लिए कुछ सुरक्षा हासिल है, केजुअल और अनुबंध कर्मचारियों के मुक़ाबले।
यह कल्याणकारी योजनाओं के सवाल को पीछे छोड़ देता है, जिन्हें श्रम क़ानूनों के स्तर पर लाने की कोशिश की जा रही है, अक्सर राज्य का एकमात्र हस्तक्षेप होता है, जो श्रमिकों के बहुमत तक पहुँचने का मौक़ा प्रदान करता है। लेकिन ये भी समस्याओं से त्रस्त हैं। हालांकि सभी कल्याणकारी योजनाएँ काग़ज़ों पर बड़ी सरल दिखाई देती है, इनके लिए पात्रता और लाभों तक पहुँच पाना अक्सर एक बुरे सपने की प्रक्रिया होती है। इस तरह की योजना के तहत पंजीकरण पहली आवश्यकता है, और यह अक्सर एक ऐसी प्रक्रिया होती है, जिसमें प्रमाण के लिए कई तरह की चीज़ों की मांग की जाती है, और उस प्रमाण की आपूर्ति होने पर भी पंजीकरण नहीं किया जाता है। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में हमारे द्वारा साक्षात्कार किए गए किसी भी प्रवासी निर्माण श्रमिक का निर्माण श्रमिक कल्याण बोर्ड के साथ पंजीकृत नहीं किया गया था। दिल्ली और उत्तराखंड में हमने जिन लोगों का साक्षात्कार लिया, उन्हें भी महीनों या वर्षों तक इंतज़ार करना पड़ा और केवल यूनियनों के दबाव के बाद ही वे पंजीकृत हुए।
एक बार पंजीकृत होने के बाद, योजना का वास्तविक हक़दार होने के लिए एक आवेदन दाख़िल करना होता है। सभी तीन राज्यों में, निर्माण श्रमिकों के लिए, आवेदन पर कार्यवाही के लिए समय सीमा तय नहीं करते हैं; जिसके परिणामस्वरूप अधिकारी महीनों तक आवेदन को दबाए बैठे रह सकते हैं या उत्तराखंड जैसे राज्य में तो 60 से अधिक मामलों में बिना किसी कार्यवाही के वर्षों तक बैठे रह सकते है। सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त आवेदनों के जवाब में एक ही बात कही जाती है कि ये अभी प्रक्रियाधीन हैं और चूंकि कोई समय सीमा निर्दिष्ट नहीं की गई है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि प्रक्रिया में कितना समय लगेगा। जब अतिरिक्त दबाव डाला जाता है, तो आवेदन को "अस्वीकार" करने के लिए एक तकनीकी आपत्ति उठाई जा सकती है, लेकिन श्रमिक को अक्सर अस्वीकृति होने के बारे में नहीं बताया जाता है। जब वे अंततः पता लगाते हैं, तो पूरी प्रक्रिया को फिर से शुरू करना पड़ता है, और तब तक, एक विशेष लाभ के लिए समय सीमा (उदाहरण के लिए, एक श्रमिक जो गुज़र उसके एवज़ में परिवार को मुआवज़ा) अक्सर बीत चुकी होती है।
यह ध्यान रखना चाहिए कि 60 वर्ष से अधिक आयु के श्रमिकों के लिए पेंशन इन तीनों राज्यों में निर्माण श्रमिक कल्याण योजनाओं के तहत आती है। श्रमिकों के अनुभव के दृष्टिकोण से देखें तो पेंशन योजना में कई गंभीर ख़ामियाँ हैं। उदाहरण के लिए, एक श्रमिक को यह कैसे स्थापित करना होगा कि वह प्रति माह 15,000 रुपये से कम कमाता या कमाती है? यदि प्रमाण के तौर पर एक सरकारी अधिकारी का प्रमाण पत्र चाहिए, तो वह प्रक्रिया देरी और भ्रष्टाचार में लिप्त हो जाएगी। एक बार प्रमाणित होने के बाद, श्रमिक से मासिक भुगतान करने की उम्मीद की जाती है, और यदि वे इस तरह के एक भुगतान से चूक जाते हैं(अन्य योजनाओं के अनुभव को देखते हुए), तो उन्हे पेंशन से इनकार करने की उम्मीद की जा सकती है।
अंत में, हालांकि पेंशन 60 वर्ष की आयु से शुरू होती है, केवल 18 और 40 वर्ष की आयु के बीच के लोगों को योजना में भर्ती होने की अनुमति है। इसका मतलब यह है कि, कम से कम, एक श्रमिक को प्रति माह 3,000 रुपये के वादे को हासिल करने के लिए 20 साल तक इंतज़ार करना होगा - और वह भी अगर वह हर महीने 240 महीने के अंतराल तक भुगतान करने में कामयाब हो जाता है।
इस तरह, यह योजना, और इसी तरह की अन्य योजनाएँ, एक दिखावा है और नज़र के धोखे के अलावा कुछ नही है, जिसका उद्देश्य स्थायी श्रमिकों के अधिकारों पर हमले करना और इससे उनका इरादा साफ़ नज़र आता है।
लेखक सोशल रिसर्च कलेक्टिव का हिस्सा हैं, जो उत्पादन, श्रम और सामाजिक क्रिया के असंगठित क्षेत्र को समझने और उसके नए रूपों का अध्ययन करते हैं।
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