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JNU: प्रशासन-ठेकेदार के बीच फंसे कॉन्ट्रैक्ट सफ़ाई कर्मी किससे लगाएं गुहार?

“वैसे तो सैनिटेशन वर्कर्स से ज़्यादा काम लिया जाता है, कहा जाता है कि लोग कम हैं लेकिन जब छंटनी होती है तो कह दिया जाता है कि लोग ज़्यादा हैं।”
JNU Contract Workers

देश के नामी विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में सफाई मज़दूरों ने 18 सितंबर, सोमवार को 'सम्मान रैली' का आयोजन किया। ये रैली जेएनयू के कॉन्ट्रैक्ट वर्कर्स से जुड़ी यूनिट 'ऑल इंडिया कामगार यूनियन' और ऐक्टू (All India Central Council of Trade Unions) ने मिलकर निकाली। 'ऑल इंडिया कामगार यूनियन' जेएनयू में कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले मेस वर्कर्स, हॉर्टिकल्चर वर्कर्स, सफाई कर्मचारी से जुड़ी है। इस सम्मान रैली के माध्यम से इन कॉन्ट्रैक्चुअल वर्कर्स ने प्रशासन के द्वारा इनके क़ानूनी अधिकारों को नज़रअंदाज़ करने के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। 

इन कामगारों ने न्यूनतम मज़दूरी के अधिकार, समान काम के लिए समान वेतन और दूसरे ज़रूरी मांगों की तरफ ध्यान खींचने की कोशिश की। सफाई कर्मचारियों ने आरोप लगाया कि उन्हें बगैर मास्क और दस्तानों के सैनिटेशन का काम करना पड़ता है। 

हमने, इस प्रोटेस्ट में शामिल और पिछले 22 साल से जेएनयू में सफाई कर्मचारी के तौर पर काम कर रहीं अंजू से बात की। वे बताती हैं कि "ये प्रोटेस्ट करना इसलिए ज़रूरी था क्योंकि हमें समय से वेतन नहीं मिलता, तीन-तीन महीने बाद वेतन मिल रहा है, सैलरी स्लिप नहीं मिलती है, फर्स्ट एड बॉक्स नहीं मिलता, मास्क, दस्ताने आदि नहीं मिलते।"

अंजू बताती हैं कि उन्हें 26 दिन काम करने पर 15 हज़ार रुपये मिलते हैं। उनके पति एक दिहाड़ी मज़दूर हैं और वे बहुत ही मुश्किल से घर चला पाती हैं। वे कहती हैं "जब कोई बीमार होता है तब घर चलाना मुश्किल हो जाता है, गांव का कोई ज़रूरत के वक़्त मदद के तौर पर हमसे पैसे मांग ले तो हम नहीं दे पाते, उस वक़्त हमें बड़ी शर्म आती है।" 

वे आगे बताती हैं कि "मैं 22 साल से काम कर रही हूं और हमेशा ही ऐसे हालात रहे हैं, मैं 1500 रुपये में काम पर लगी थी और 22 साल बाद आज मुझे 15 हज़ार रुपये मिलते हैं, हमेशा से हमारे दिन ऐसे ही रहे हैं। घर पर कोई बीमार पड़ जाए तो उधार पैसा ब्याज के साथ लौटाते हैं। मेरे पति बीमार हो गए थे, मैंने ब्याज पर 70 हज़ार रुपये लेकर इलाज करवाया था।"

"सफाई कर्मचारी इस तरह की परेशानी से गुज़र रहे हैं लेकिन इन सबके बीच जेएनयू प्रशासन का क्या कहना है?” इस सवाल पर अंजू का कहना था "प्रशासन हमारी सुनता नहीं है। हम उनके पास जाते हैं, अपनी परेशानी सुनाते हैं लेकिन वो हमें नज़रअंदाज़ करते हैं, वहीं ठेकेदार तो कभी आता ही नहीं है। हमसे काम सुपरवाइज़र करवाता है, छुट्टी लेते हैं तो पैसा काटता है।"

पिछले कुछ सालों में उनकी आमदनी किस तरह से घट गई है, अंजू ये भी बताती हैं "पहले ज़्यादा दिन काम करते थे उसे ख़त्म कर दिया, पहले हम 30 दिन काम करते थे लेकिन अब हम 26 दिन काम करते हैं। पहले हमें 18 हज़ार रूपये मिलते थे और अब हमें 15 हज़ार मिलता है, ये पिछले दो साल से हुआ है।" इसके साथ ही अंजू आरोप लगाती हैं कि कभी भी किसी भी स्टाफ को निकाल दिया जाता है।

हमने उर्मिला चौहान से भी बात की, उर्मिला 'ऑल इंडिया कामगार यूनियन' और ऐक्टू जेएनयू यूनिट की अध्यक्ष हैं और साथ ही यहीं सफाई मज़दूर के तौर पर काम करती थीं लेकिन एक साल पहले ही उन्हें निकाल दिया गया और अब उनका केस लेबर कोर्ट में चल रहा है। उर्मिला बताती हैं कि काम से निकालने के साथ ही उन्हें ‘Out of Bound’ (मतलब यूनिवर्सिटी कैंपस में घुसने की मनाही) कर दिया गया। लेकिन उर्मिला अभी भी सफाई मज़दूरों की यूनियन के अध्यक्ष हैं और उनके लिए आवाज़ उठाती रहती हैं। हालांकि उनका काम छूटने की वजह से उन्हें मुश्किल दौर से गुज़रना पड़ रहा है। वो घरों में काम करके किसी तरह से अपना घर चला रही हैं। 

वो बताती हैं कि 'सम्मान रैली' इसलिए निकाली गई क्योंकि "यहां टाइम पर सैलरी नहीं मिल पा रही है, बोनस का ठिकाना नहीं है, पीएफ का आज तक कोई पता नहीं चल रहा है, हमारी मांग थी कि अगर हम कहीं पर काम कर रहे हैं तो हमें सभी सुविधाएं मिलनी चाहिए लेकिन ये लोग नहीं सुन रहे हैं।"

उर्मिला पिछले 15 साल से जेएनयू में सफाई कर्मी के तौर पर काम कर रही थीं। वे न्यूनतम वेतन की बात करते हुए कहती हैं कि "न्यूनतम वेतन के हिसाब से तो हमें कभी सैलरी मिली ही नहीं। हमने इतनी लड़ाइयां लड़ी तब जाकर हमें 14 हज़ार कुछ रुपये मिले। पीएफ कट रहा है लेकिन जो पीएफ कट रहा है उसके बारे में कोई जानकारी नहीं है, वर्कर के अकाउंट से तो कट रहा है लेकिन कॉन्ट्रैक्टर जमा कर रहा है, उसकी ऑनलाइन कोई डिटेल नहीं दिख रही है।" इसके साथ ही वो आरोप लगाती हैं कि "न्यूनतम वेतन का ऑर्डर आ चुका है लेकिन लागू नहीं किया जा रहा है। न्यूनतम वेतन 21 हज़ार होना चाहिए लेकिन अभी 14 हज़ार कुछ रुपये मिल रहे हैं।"

हमने उर्मिला से भी पूछा कि जब वे अपनी मांगों के साथ जेएनयू प्रशासन के पास जाते हैं तो उन्हें क्या जवाब मिलता है? उर्मिला का जवाब था "उनका कहना है कि आप हमारे वर्कर नहीं हो, आप तो ठेकेदार के कर्मचारी हैं तो आप उनसे बात करो, और जब हम ठेकेदार से बात करते हैं तो वो कहता है कि प्रशासन से बात करो। हमारे हाथ में कुछ नहीं है, इन दोनों का यही चल रहा है इतने सालों से, वो हमें ठेकेदार के पास भेजते हैं और ठेकेदार प्रशासन के पास जिससे हमने देखा कि ये दोनों आपस में मिले हुए हैं।"

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उर्मिला बताती हैं कि कुछ सफाई कर्मचारी और मेस वर्कर्स शिफ्ट में काम करते हैं लेकिन सबसे ज़्यादा परेशानी सैनिटेशन वर्कर्स को झेलनी पड़ रही है। वो कोरोना टाइम के बारे में भी बताती हैं कि "हमने प्रशासन का पूरा सहयोग किया था। पूरी दुनिया में कोरोना से हाहाकार मचा हुआ था, लेकिन प्रशासन ने वर्कर्स की सेफ्टी के लिए एक भी सेफ्टी किट नहीं दी थी, न मास्क दिए, यहां तक कि अगर कोई सफाई कर्मचारी बीमार भी हुआ था तो उसके इलाज के लिए भी कोई इंतज़ाम नहीं किया गया था। उस वक़्त प्रशासन कुछ नहीं कर रहा था तो यूनियन की तरफ से वर्कर्स को दस्ताने, मास्क, सेनेटाइज़र दिए गए और राशन का इंतज़ाम किया गया। प्रशासन के अंदर कोई इंसानियत नहीं है, उस तरह के दौर में भी हमारी तीन महीने की सैलरी रुकी थी, जबकि हमें ज़्यादा वेतन मिलना चाहिए था।"

कुछ और सफाई कर्मचारियों ने आरोप लगाया कि "वैसे तो सैनिटेशन वर्कर्स से ज़्यादा काम लिया जाता है, कहा जाता है कि लोग कम हैं लेकिन जब छटनी होती है तो कह दिया जाता है कि लोग ज़्यादा हैं।"

हमने ऐक्टू से जुड़े और हाल ही में जेएनयू से पासआउट हुए प्रशांत से भी बात की, प्रशांत लेबर स्टडीज़ के छात्र हैं और जेएनयू के लेबर्स के साथ काम करते हैं। उन्होंने रैली के द्वारा सफाई कर्मचारियों के लिए उठाई गई मुख्य मांगों को बताया:

* न्यूनतम वेतन लागू किया जाए, चूंकि जेएनयू एक सेंट्रल यूनिवर्सिटी है तो यहां के वर्कर्स को केंद्र सरकार ने जो न्यूनतम वेतन तय किया है वो दिया जाए। 

* समान काम का समान वेतन दिया जाए (बग़ैर मेल-फीमेल और स्थाई-अस्थाई कर्मचारियों में भेद किए) 

* गार्बेज और सैनिटेशन में जो वर्कर्स लगे हैं उनको सेफ्टी गियर जैसे मास्क, दस्ताने, जूते, फर्स्ट एड किट मुहैया करवाई जाए। 

* पीएफ में गड़बड़ी - मार्च में हमने पीएफ कैंप लगाया था जिसमें पता चला की वर्कर्स का रेगुलर पीएफ नहीं कटता, दो-दो महीने में एक बार ठेकेदार पैसा डाल देता है, चूंकि ज़्यादातर मज़दूर पढ़े-लिखे नहीं हैं इसलिए उन्हें पीएफ को देखने और निकालने में दिक्कत आती है।

* सैलरी समय पर आए, सबको सैलरी स्लिप दी जाए और सबको परमानेंट किया जाए

प्रशांत बताते हैं कि "कोविड से पहले तक सैलरी स्लिप मिलती थी लेकिन कोविड के बाद बंद है। कोविड के वक़्त जिन वर्कर्स की कैंपस में ड्यूटी लगी थी, ख़ासकर सैनिटेशन वालों की उन लोगों का जो वेतन बोला गया था उससे कम वेतन दिया गया तो उसका एरियर बाकी है जिसके लिए प्रशासन इनको बार-बार टाल देता है। 

इसके अलावा प्रशांत आरोप लगाते हैं कि प्रशासन और ठेकेदार जातिवादी टिप्पणी भी करते हैं। 

बार-बार प्रशासन और ठेकेदार के पास भटकते-भटकते ये कॉन्ट्रैक्ट सफाई कर्मचारी परेशान हो चुके हैं और उर्मिला के मुताबिक़ ऐसे में उनके पास बस हड़ताल ही आख़िरी रास्ता बचता है।

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