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सतत विकास का रास्ता : भोपाल काण्ड से सबक

सतत विकास का आधार वह होता है जो भेदभाव रहित हो और न्यायोचित हो। भोपाल के लोगों ने यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन (यूसीसी) के हाथों यह अनुभव किया कि विकास के नाम पर भेदभावपूर्ण व्यवहार, विनाशकारी परिणाम हो सकता है, (एक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय निगम जो कि वर्तमान में डाउ केमिकल कंपनी, संयुक्त राज्य अमरीका के स्वामित्व में है)।

विकसित दुनिया के लोगों के जीवन की तुलना में क्या विकासशील देशों के लोगों का जीवन सस्ता हैं? असमानता और भेदभाव की समस्या सिर्फ इसलिए नहीं कि उत्तर-दक्षिण का विभाजन है; यह विभाजन (मोटे तौर पर अमीर-गरीब का कहा जा सकता है,) गैर-व्यवस्था बनाम व्यवस्था के रूप में हर देश में मौजूद है। इन पहलुओं ने भोपाल आपदा के संबंध में जो भूमिका निभाई है वह भारत में चुने गए विकास के पथ के लिए एक चेतावनी है।

                                                                                                                              

1960 के दशक में, यूसीसी अपने उद्देश्य में "हम सभी के लिए एक बेहतर जीवन बनाने में मदद करने के लिए यहीं" का दावा करती थी। इसके साथ - साथ, जब इसने भारत में अपने कीटनाशक उत्पादों के विपणन का कार्य शुरू किया, अपनी सहायक कंपनी यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के माध्यम से (यूसीआईएल - यूसीसी इसके जरिए अपने हितों की पूर्ती करती थी), इसका नारा था “विज्ञान एक नए भारत के निर्माण में सहायक होगी”। यूसीआईएल, ने भोपाल संयंत्र में कीटनाशकों के उत्पादन की शुरुवात 1969 में की, वह भी सबसे पहले अमेरिका से अत्यधिक जहरीले रसायन मिथाइल आइसोसाइनेट (एमआईसी) को आयात कर, 1978 में, यूसीआईएल ने अपने भोपाल संयंत्र में एमआईसी निर्माण शुरू किया। जबकि सभी को यूसीसी ने बताया कि "हर कीमत पर सुरक्षा" उनकी नीति है और श्रमिकों को इसका आश्वासन दिया गया था। वास्तव में, उनका नारा था : "लोग हमारी सबसे महत्वपूर्ण संपत्ति है, और उनकी सुरक्षा और स्वास्थ्य हमारी सबसे बड़ी जिम्मेदारी है"। हालांकि, ये सभी दावे और आश्वासन खोखले और लफ्फाजीभरे  निकले।

दोहरा चरित्र

एक नए भारत के निर्माण की मदद करने की आड़ में, यूसीसी ने वास्तव में सुरक्षित संयंत्रों के निर्माण के बारे में पर्याप्त ज्ञान और अनुभव होने के बावजूद भारत के लिए उप-मानक प्रौद्योगिकी हस्तांतरित की और वैसा सुरक्षित संयंत्र नहीं बनाया जैसा कि उन्होंने 1966 में, पश्चिम वर्जीनिया, संयुक्त राज्य अमेरिका के अपने संस्थान के संयंत्र में बनाया था। यूसीसी को पता था कि भोपाल संयंत्र स्क्रबर सुरक्षा प्रणालियों के मानकों पर सही नहीं था, विशेष रूप से एमआईसी टैंक में प्रतिक्रियाओं को ठीक से संभालने के लिए यह उपयुक्त नहीं था। इस तथ्य के बावजूद विभिन्न लागतों में कटौती के उपाय के लिए अपनी ही निर्धारित सुरक्षा नियमों का उल्लंघन करते हुए यूसीसी ने विनिर्माण और लंबी अवधि के लिए दो भंडारण टैंक में बेहद जहरीली एमआईसी की बड़ी मात्रा को (80 + टन से अधिक) स्टोर किया। इसके अलावा, यहां तक कि खतरनाक डिजाइन सुरक्षा प्रणालियों - प्रशीतन प्रणाली, स्क्रबर और भड़क टॉवर – को अक्सर लागत में कटौती के उपायों के लिए बंद कर दिया जाता था।

                                                                                                                             

अंत में, 02/03 दिसंबर 1984 की रात को ऐसा अपरिहार्य हुआ कि संयंत्र से विषैली गैसों का रिसाव शुरू हो गया और उसने शहर की जनसंख्या (900000) के दो तिहाई हिस्से को अपने घातक प्रभावों से समाप्त कर दिया। शहर में सबसे गरीब तबका सबसे अधिक प्रभावित हुआ। कार्बाइड के अधिकारी आपदा के प्रभाव की संभावना के बारे में संभव उपचारात्मक उपायों के बारे में और प्रशासन को गुमराह करने की कोशिश कर रहे थे, प्रशासन ने आपदा की भयावहता और गंभीरता  के सवाल पर कार्बाइड के साथ सांठगांठ कर ली।

यूसीसी वातावरण के साथ जो लापरवाही कर रहा था वह काफी खतरनाक था।आपदा के बाद स्पष्ट हो गया था कि भोपाल संयंत्र के आसपास आपदा से पूर्व जहरीले कचरे की डंपिंग करने से एक बड़े क्षेत्र में मिट्टी और भूमिगत जल प्रदूषित हो गया था। दूषित भूजल का सेवन करने से नए पीड़ितों की संख्या में इजाफा हुआ, 2010 में एक प्रारंभिक अध्ययन के अनुसार, करीब 1100000 मीट्रिक टन दूषित मिट्टी के ठीक करने की आवश्यकता थी।

सरकार की प्रतिक्रिया

केन्द्रीय सरकार ने आपदा की वैज्ञानिक और तकनीकी पहलुओं पर अध्ययन करने और रिपोर्ट करने के लिए एक वैज्ञानिक आयोग नियुक्त किया। 20/12/1985 आयोग की रिपोर्ट में डिजाइन, संचालन और प्लांट के रख-रखाव के दोष का जिक्र नहीं किया गया जिस कि वजह से यह हादसा हुआ था। यद्दपि, राज्य सरकार ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के आसीन न्यायाधीश के न्रेतत्व में एक जांच आयोग का गठन किया जिसे कि इस आपदा के पीछे के कारणों, उसके असर और उसकी ज़िम्मेदारी तय की जा सके, लेकिन एक साल के बाद जांच से पहले ही इसका कार्यकाल समाप्त कर दिया गया। इसलिए आजतक इस आपदा के लिए जिम्मेदार हालात, इसके प्रभाव और इसके लिए कौन जिम्मेदार था की कोई भी विस्तृत जांच नहीं हुयी।

इसके अलावा, ठीक से मृतकों की संख्या का आकलन करने के लिए या घायल की पहचान करने और उन्हें पर्याप्त चिकित्सा उपचार उपलब्ध कराने के लिए कुछ भी नहीं किया गया था। राज्य सरकार के साथ सहयोग व लगभग 500 छात्र और शिक्षक भारत भर में सामाजिक कार्य से जुड़े विभिन्न स्कूलों के शिक्षकों द्वारा एक स्वैच्छिक प्रयास से टीमों द्वारा लगभग एक-चौथाई प्रभावित क्षेत्र का घर-घर सर्वेक्षण का कवर किया गया था जिसको बाद में सरकार ने अचानक बंद कर दिया और प्रशासन ने इतने परिश्रम से इकट्ठे/जुटाए गए सभी डेटा को जब्त कर लिया। आपदा के प्रभाव के बारे में व्यापक डाटा एकत्र करने के लिए एक महत्वपूर्ण अवसर को इस प्रकार खो दिया गया।

अनुचित निपटारा

सितंबर 1985 और फरवरी 1989 के बीच, लगभग 600,000 मुआवजे के लिए दावे दायर किये गए थे। हालांकि, इससे पहले कि दावों को परिवर्तित किया जाता या उनपर कोई फैसला होता, सुप्रीम कोर्ट की सहायता से पीड़ितों को विश्वास में लिए बिना भारत संघ और 14 / यूसीसी के बीच 15/021989/ एक समझौता हुआ। अचानक हुए समझौते के पीछे एक बड़ा कारण था. मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (CJM), भोपाल द्वारा वेस्ट वर्जीनिया में संस्थान के प्लांट का दौरा करने के लिए अमेरिकी न्याय विभाग को 14/02/1989 (सीबीआई) की केंद्रीय जांच ब्यूरो द्वारा इन्वेस्टिगेशन के लिए अनुमति देने के लिए भेजे गए अनुरोध पत्र ने यूसीसी को हिला दिया।अगर सीबीआई ने भोपाल और संस्थान के प्लांट पर एमआईसी इकाइयों की सुरक्षा प्रणालियों के तुलनात्मक अध्ययन करने में कामयाब हो जाते, तो उनके दोहरे मापदंड अपनाने की सच्चाई खुलकर बाहर आ जाती। यूसीसी ऐसी किसी भी संभावना को रोकने पर आमादा थी।

समझौते की शर्तें समान रूप से चौंका देने वाला थे। पूरे समय के लिए कुल 470 करोड़ डॉलर के एक मामूली रकम का समझौता ऑफर किया गया वह भी इस शर्त पर कि यूसीसी के खिलाफ आरोप और उसके सभी अधिकारियों के विरुद्ध सभी आपराधिक मामले वापस ले लिए जायेगें। यह समझौता यह मान कर किया जा रहा था कि इस आपदा में केवल 3000 की मृत्यु हुयी और  करीब 102,000 लोगों को विभिन्न तरीके स्वास्थ्य से जुडी हानि पहुंची है। ये सभी सोचे समझे आंकड़े थे जब तक कि 600,000 लोगों ने दावे दाखिल किये जिन्हें न तो आज तक प्रोसेस किया गया और न ही वर्गीकृत किया गया। पंद्रह साल बाद, 2004 में सभी दावों पर निर्णय लेने के बाद (जिसमें कि 1989 और 1996 के बीच और 4 लाख लोगों ने दावे वाले लोग भी  शामिल थे), दावा कोर्ट ने तय पाया कि गैस से घायल पीड़ितों की संख्या 5,73,000 है, यह उससे से 5 गुना ज्यादा था जिसके आधार पर समझौता हुआ था! इस प्रकार, (मृत के परिजनों सहित) गैस पीड़ितों को जो मिला वह निपटारा निधि के नाम पर कुछ नहीं था  - औसतन हर व्यक्ति को केवल 820 डॉलर! स्वास्थ्य रिकॉर्ड के उपलब्ध न होने की वजह से दावा कोर्ट ने भी कुल मृतकों और गंभीर रूप से घायलों की संख्या को कम करके आंका (जोकि वास्तव में मृतकों की संख्या 20,000 से ज्यादा थी). भारत के सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर रूप से इस तरह के एक अन्यायपूर्ण समझौते तक पहुँचने में गलती की।

सूचना के अधिकार से वंचित

मेडिकल दस्तावेज़ बुरी हालत में हैं। यहां तक कि तीस साल बाद भी, गैस पीड़ित पूरी मेडिकल रिकॉर्ड की एक हार्ड कॉपी के लिए ताकि वे उच्च मुआवजा व उचित चिकित्सा देखभाल की मांग कर सके के लिए आज भी संघर्ष लड़ रहे हैं।मुआवजे की वृद्धि की मांग चोट की गंभीरता के सबूत पर आधारित है; लेकिन यही प्रशासन, जो ऐसे सबूत मांगती हैं, वे ही गैस पीड़ितों को ऐसे सबूत देने से इनकार करती हैं। गैस पीड़ित को इस आपदा के जरिए आँखों, फेंफडों, तंत्रिका तंत्र और गैस्ट्रो आंत्र की बीमारियों से जूझना पड़ा है।यहाँ तक कि 2010 में गैस पीड़ितों में अस्वस्थता की दर करीब 20 प्रतिशत रही जबकि नियंत्रित समूह में यह 9 प्रतिशत थी। कुछ मरीजों की दिमागी हालात चौकाने वाली है। इसके अलावा, आनुवंशिक प्रभाव भी संदेह के घेरे में हैं। 6000 गैस पीड़ित को आज भी हर दिन चिकित्सा उपचार की जरूरत है। इस प्रकार, 1994 में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने आपदा से संबंधित चिकित्सा अनुसंधान जब बंद कर दिया गया था, जो, 2010 में इसे पुनः आरंभ करने के लिए मजबूर होना पड़ा।

भोपाल से सबक

1-सबको समान चिकित्सा का अधिकार सुनिश्चित करना: भविष्य में भोपाल जैसी घटनाओं को रोकने के लिए एक ही रास्ता है कि टीएनसी (ट्रांस नेशनल कंपनी) (और साथ ही घरेलू उद्योग)को सुरक्षा प्रणालियों की स्थापना में दोहरे मापदंड अपनाने से मना करना; हर संभव प्रयास करना कि हर उद्योग यूनिवर्सल सुरक्षा मानकों को सुनिश्चित करने के लिए कड़े कदम उठाये और उसे सख्ती से लागू करे। बेहद निराशाजनक है कि इस संबंध में, तीन से अधिक दशकों से संयुक्त राष्ट्र द्वारा इस दिशा में किए गए प्रयासों में अभी तक कुछ ख़ास तरक्की नहीं हुयी है। उदाहरण के लिए, प्रस्ताव यह था कि "बहुराष्ट्रीय निगमों को भी प्रासंगिक अंतरराष्ट्रीय मानकों अनुरूप गतिविधियों को दर्शायेगा, ताकि वे किसी के स्वास्थ्य को चोट पहुंचाने का कारण न बने और उपभोक्ताओं की सुरक्षा खतरे में न पड़े।” यह एक उल्लेखनीय कदम था। अगर इसे 1984 से पहले लागू कर दिया जाता तो  भोपाल में इस आपदा को टाला जा सकता था।

अंतर्राष्ट्रीय निगमों के लिए 1983 में तैयार की गयी आचार संहिता को अभी तक संयुक्त राष्ट्र महासभा में अपेक्षित समर्थन नहीं मिला जोकि बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। बहुराष्ट्रीय निगमों और अकेले उनके समर्थक इस अनुचित देरी के दोषी नहीं हो सकते है; विकासशील देशों में घरेलू उद्योगों का विरोध, जो अपेक्षित स्तर तक सुरक्षा मानकों का उन्नयन करने से हिचकते हैं, वे भी प्रमुख बाधाएं पैदा करने के जिम्मेदार है। संबंधित लोगों द्वारा दोनों ही विकसित और विकासशील दुनिया में केवल ठोस प्रयास ही इस अनुचित प्रतिरोध को दूर कर सकता है। यह संयुक्त राष्ट्र के भीतर अन्य संबंधित वर्गों के साथ-साथ मानवाधिकार के लिए उच्चायुक्त के कार्यालय के संयुक्त राष्ट्र जल्द से जल्द अंतर्राष्ट्रीय निगमों के लिए आचार संहिता को सुनिश्चित करने के लिए सभी अपने प्रभाव का प्रयोग करेंगे ऐसी आशा की जाती है। विकासशील देशों में घरेलू उद्योगों, विशेष रूप से खतरनाक पदार्थों से निपटने के लिए, उनको भी इसी तरह के कोड से कवर किया जाना चाहिए। एक सार्वभौमिक आपातकालीन प्रतिक्रिया प्रोटोकॉल के रूप में उचित दस्तावेज और प्रभावित लोगों की चिकित्सा की निगरानी के लिए योजनाओं को शामिल करना चाहिए।

2- सुरक्षित वातावरण के अधिकार को सुनिश्चित किया जाए: भोपाल संयंत्र के आसपास दूषित मिट्टी और भूमिगत जल को भोपाल के लोगों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिए ठीक करना आवश्यक है। दूषित पर्यावरण को साफ़ करने में भोपाल के वातावरण में अनुचित देरी अकथनीय है, भोपाल के दूषित वातावरण को ठीक करने के लिए अपेक्षित तकनीकी का पता है कि उसे कैसे और कौनसे साधन से करना है। उदहारण के तौर पर, यह संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनईपी) के पास उपलब्ध है। जहाँ तक इसके इलाज़ की लागत का संबंध है, 'प्रदूषण फैलाने का भुगतान समन्धित इकाई को करना होगा। हालांकि, सफाई की तात्कालिकता के विषय में, भारत सरकार को लागत को पूरा करने के बाद में वर्तमान में यूसीसी के मालिक जो कि डाउ केमिकल कंपनी है, संयुक्त राज्य अमेरिका, से सफाई के लिए पूरे खर्च की वसूली करनी चाहिए।

3- सूचना के अधिकार को सुनिश्चित करो: हर गैस के शिकार को उसका / उसकी पूरी मेडिकल रिकॉर्ड लेने का अधिकार है। दुर्भाग्य से, आईसीएमआर और राज्य सरकार गैस पीड़ितों के समुचित मेडिकल रिकॉर्ड को बनाए रखने के लिए पर्याप्त कदम उठाने में नाकाम रहे हैं। इस प्रकार, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद और राज्य सरकार को गैस पीड़ितों के इलाज के सभी अस्पतालों और क्लीनिकों का मेडिकल रिकॉर्ड नेटवर्क को कंप्यूटरीकृत करने के लिए 2001 के बाद से उच्चतम न्यायालय द्वारा बार-बार निर्देशित किया गया है, लेकिन उन्होंने इस सम्बन्ध में कुछ नहीं किया है। नतीजतन, गैस-पीड़ितों, को उसका / उसकी पूरी मेडिकल रिकॉर्ड की एक प्रति देने से इनकार किया गया है, इस वजह से गैस के शिकार लोगों के उनके उचित बिमारी के मापदंड न होने की वजह से उचित इलाज व पर्याप्त मुआवजा देने से इनकार किया जा रहा हैं। अब इस अन्याय को बिना देर किया रोकना होगा।

 

(अनुवाद:महेश कुमार)

 

डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख मे व्यक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारो को नहीं दर्शाते ।

 

 

 

 

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