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देश : एक नई संघीय राजनीति का संकेत

केवल वैक्सीन ही नहीं, बल्कि कृषि कानून जैसे विवादास्पद मुद्दे पर तथा सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों के निजीकरण पर भी मोदी का संघीय अधिकारों पर हमला उजागर हुआ। आने वाले समय में संघीय सुधारों और पुनसंरचना के कार्यक्रम का स्वरूप देश की मुख्यधारा के एजेंडा में प्रकट होगा।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। साभार : medium.com, प्रताप रविशंकर

संघीय राजनीति को लेकर विवाद भारतीय लोकतंत्र का एक चिरस्थायी व मूलभूत लक्षण है। यह अति-केंद्रीकृत संवैधानिक व्यवस्था के कारण है। रूटीन ढंग से किसी-न-किसी मुद्दे पर राजनीतिक उथल-पुथल चलती ही रहती है। पर स्थितियां एक नये गुणत्मक बदलाव की ओर बढ़ती हैंजब किसी अखिल भारतीय फेडरल फ्रंटयानी विपक्षी क्षेत्रीय दलों का मोर्चा बनने के पक्ष में राजनीतिक पुनर्संगठन हो रहा हो। संघीय राजनीति के मुद्दों को एक नयी शक्ति व गतिशीलता मिलना अवश्यंभावी है। आने वाले समय में संघीय सुधारों और पुनसंरचना के कार्यक्रम का स्वरूप देश की मुख्यधारा के एजेंडा में प्रकट होगा।

वह उद्विग्न ममता बनर्जी ही थीं जिन्होंने तब नए संघीय राजनीति के युद्ध में पहली गोली दागीजब उन्होंने केंद्र में राज्य सरकारों के एक संघ का आह्वान किया। योजना हो या संयोगतमिलनाडु के डीएमके के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने अपनी सार्वजनिक सभाओं में केंद्र को सेंट्रल गवरमेंट यानी केंद्र सरकार की जगह फेडरल गवरमेंट’ यानी संघीय सरकार कहना आरंभ कर दिया। तमिल भाषा में नाडूवनरासूकी जगह कूट्टरासू;’। तमिलनाडु की भाजपा इकाई इसके विरुद्ध शोर मचाने लगी।

अधिक महत्वपूर्ण बात तो यह है कि ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायकजो वैसे तो संघीय मोर्चा की राजनीति में नपा-तुला निरपेक्ष प्रोफाइल बनाए रखते थेने कइयों को चैंका दिया जब उन्होंने अन्य मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा और अपील की कि वे सामूहिक रूप से यह मांग करें कि केंद्र सभी राज्यों को उनके जरूरत भर की वैक्सीन निःशुल्क उपलब्ध कराए। वैक्सीन की राजनीति में नवीन पटनायक के अप्रत्याशित धावे ने संघीय खेमे में कइयों को उत्साहित कर दिया और विपक्षी मुख्यमंत्रियों ने गर्मजोशी से इस पहल का स्वागत किया। यहां तक कि तेलंगाना के केसी राव और आंध्र प्रदेश के जगन रेड्डी जैसे fence-sitters भी नवीन पटनायक की बात का समर्थन करने लगे। अब संयोग हो या कुछ औरमोदी ने अपनी वैक्सीन नीति में यू-टर्न या कहें volte face कर लिया।

मोदी सरकार ने पहले घोषणा की थी कि राज्यों की वैक्सीन आवश्यकता का 50 प्रतिशत केंद्र मुहय्या कराएगा और बाकी 40 प्रतिशत उन्हें बाज़ार से अपने पैसे से खरीदना होगा। यद्यपि केंद्र ने घोषणा की थी कि देश भर के नागरिकों को दिसम्बर 2021 के अन्त तक टीका लग जाएगाकेंद्र से राज्यों को प्रतिदिन मिल रहा वैक्सीन डोज़ लक्ष्य प्राप्त करने के लिए जितने की जरूरत थीउसका एक-चैथाई हिस्सा था। स्वाभाविक था कि वैक्सीन की राजनीति का हिस्सा संघीय राजनीति भी भड़क उठी। यह केवल राजनीति करने का मामला नहीं थाक्योंकि समस्या असली थी। दरअसल कई राज्यों में टीकाकरण की प्रक्रिया मई के शुरू होते पूरी तरह थम गई थी। और यह आम जनमानस की चिंता का विषय बन गया थाजिसकी अभिव्यक्ति मीडिया में भी आलोचना के रूप में हो रही थी।

पहले भी पिनरई विजयनममता बनर्जीएम के स्टालिनउद्धव ठाकरेऔर कांग्रेस के छत्तीसगढ़ मुख्यमंत्री भूपेश बघेल व पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने जब यह मांग उठाई थी तब मोदी ने इस मुद्दे पर मुह फेर लिया था। जाहिर है कि नवीन पटनायक के पक्ष लेने की बात ने मोदी को परेशान कर दिया। पहले से ही महामारी को ठीक से न संभाल पाने का आरोप झेल रहे प्रधानमंत्री घबरा गए और सभी राज्यों को निःशुल्क वैक्सीन देने को तैयार हो गए। राज्यों को वैक्सीन सप्लाई तत्काल बढ़ गई। 

वैक्सीन की कुल खरीद का खर्च केंद्र को 40,000 करोड़ से 45,000 करोड़ पड़ेगा। मोदी जी बेचैन हैं कि कैसे इस आर्थिक बोझ को राज्यों के मत्थे मढ़ दें। कइयों को यह बात अन्यायपूर्ण लग रही है। आखिर, 2021-22 के लिएजैसा कि 15वें वित्त आयोग ने तय किया हैकुल कर वसूली में केंद्र का हिस्सा 71 प्रतिशत है और वह राज्यों के नाम जो हिस्सा करती है वह केवल 41 प्रतिशत है। इसके मायने हैं कि केंद्र कुल कर वसूली का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा रख लेता है। आप यूं कह सकते हैं कि 22.17 लाख करोड़ के कुल कर राजस्व में से वह राज्यों को मात्र 6.65 लाख करोड़ देता है और 15.52 लाख करोड़ अपने प्रतयक्ष खर्च के लिए रख लेता है। यदि वह कोविड-19 जैसी एक राष्ट्रीय आपातकालीन स्थिति और उसके टीकाकरण अभियान हेतु इसमें से अधिकतम 40,000 करोड़ खर्च करने को तैयार नहीं हैतो क्या कारण है कि केंद्र अपने पास इतनी बड़ी राशि रखना चाहता हैआाखिर इसके पीछे क्या तर्क हैकेवल वैक्सीन जैसी खास मांगों के लिए ही नहींक्षेत्रीय विपक्ष की पार्टियों को चाहिये कि वे आम सहमति बनाएं और राज्यों को 41 प्रतिशत नहीं बल्कि राज्यों को 60 प्रतिशत टैक्स राजस्व के ट्रांसफर हेतु संवैधानिक सुधार के लिए वैकल्पिक कार्यक्रम बनाएं। वैक्सीन का झंझट आखिर गलत वित्तीय संघवाद के चलते ही हुआ है।

केवल वैक्सीन ही नहींबल्कि कृषि कानून जैसे विवादास्पद मुद्दे पर तथा सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों के निजीकरण पर भी मोदी का संघीय अधिकारों पर हमला उजागर हुआ।

जहां तक संविधान की बात है तो तीनों कृषि कानून गैरकानूनी हैं! संविधान में कृषि राज्य का विषय माना गया है। केवल राज्यों को संवैधानिक अधिकार है  कि वे राज्य की लिस्ट में विद्यमान मुद्दों पर कानून बना सकेंगेकेंद्र को नहीं। पर संविधान के समवर्ती सूची (concurrent list) में 33वें विषय की गलत व हेर-फेर कर बनाई व्याख्या के तहत इन्हें ट्रेड ऐण्ड कॉमर्स के तहत रखा गया। इस तरह मोदी सरकार ने दावा किया कि विवादित कृषि कानून agricultural marketing के तहत आते हैं इसलिए वे समवर्ती सी के टेड ऐण्ड कॉमर्स के अंतर्गत आते हैं। फिर भी स्टेट लिस्ट में साफ-साफ कहा गया है कि बाज़ार एक स्टेट विषय है। मोदी देश को झूठ जरूर बोल सकते हैं। पर इस मामले में कई याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में डाली गयी हैं और मामला कोर्ट में चल रहा हैतो बड़ी संभावना है कि मोदी को ये तीनों कानून वापस लेने पड़ें।

आइये हम अब मोदी के निजीकरण कार्यक्रम को देखें। यद्यपि कानून की किताबों के अनुसार केंद्र को यह अधिकार है कि वह केंद्रीय पीएसयू (PSUs) का निजीकरण करें। पर क्योंकि इससे श्रमिकों की बेहतरी और उनके अधिकारों पर असर पड़ता हैआशा की जाती थी कि केंद्र निजीकरण के मसले पर राज्यों से राय-मश्विरा करे। क्या केंद्र त्रिवेंद्रम हवाई अड्डे का बिना केरल सरकार की राय लिए निजीकरण कर सकता हैक्या राज्य सरकार की अनुमति के बिना केंद्र कोचीन बंदरगाह (port) व अन्य ports का निजीकरण कर सकता हैजाहिर है कि प्राइवेट खिलाड़ी तुरंत रेट बढ़ा देंगे और इससे राज्य की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ेगा। उदाहरण के लियेएचपीसीएल (HPCL) केंद्र की निजीकरण लिस्ट में हैपर कोचीन के पास एचपीसीएल की बहुत बड़ी फैसिलिटी है जहां हज़ारों श्रमिक काम करते हैं। यदि उन्हें काम से निकाल दिया जाएगाकेरल सरकार को कानून व्यवस्था की समस्या से रू-ब-रू होना पड़ेगा। इसी तरह विशाखापटनम स्टील प्लांट आंध्र प्रदेश के आर्थिक जीवन के लिए ठीक वैसा ही है जैसा तिरुपति लोगों के आध्यात्मिक जीवन के लिए है। दोनों ही तेलगु शान के प्रतीक हैं। मोदी सरकार बिना आंध्र प्रदेश सरकार से मशवरा किये तय कर लेती है कि विशाखापटनम की रणनीतिक बिक्री होगी। जगन रेड्डी सरकार और विपक्षी नेता चन्द्रबाबू नायडू दोनों ने ही इसका विरोध किया है। मोदी ने कोऑपरेटिव फेडरलिज़्म (cooperative federalism) की बात तो की थी पर संघवाद’ पर उनके हमले ने केवल आंध्र प्रदेश सरकार और विपक्ष के बीच प्रतियोगी क्षेत्रवाद को उकसा दिया है।

हम देखते हैं कि यहां तक कि जब कोई केंद्रीय विषय का मामला भी होता हैमोदी संघीय अधिकारों को कुचलने से नहीं चूकते। मस्लन विदेश नीति और बह्य मामले सेंट्रल लिस्ट में शामिल हैं। एक दिन अचानक कुवैत सरकार लाखों भारतीय श्रमिकों से देश वापस जाने को कह देती हैताकि स्थानीय जनता के लिये रोजगार के अवसर बढ़ सके। करीब 10 लाख भारतीय श्रमिकों पर प्रभाव पड़ा थाजिनमें से 7 लाख केवल केरल से थे। केंद्र सरकार ने उन लोगों की वापसी का इंतेज़ाम तो कर दियापर कुवैत सरकार पर दबाव डालकर इस नीति को जहां तक वापस करवाने की बात हैकेंद्र ने इस मामले में कुछ भी नहीं किया। इससे  मोदी सरकार का अपने श्रमिक वर्ग के भारतीय प्रवासियों के प्रति रुख और प्रतिबद्धता का पता चलता है। ये मजबूर लोग भी मोदी के तथाकथित कोऑपरेटिव फेडरलिज़्म’ के शिकार बने!

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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