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चीनी-रुसी गठबंधन परिपक्व होता नजर आ रहा है- II 

अमेरिका लगातार रूस और चीन दोनों के ही खिलाफ एकतरफा प्रतिबंधों को लगाने के हथकंडे अपनाता जा रहा है, जो अंतर्राष्ट्रीय क़ानूनी बुनियादों से समर्थित नहीं हैं. 
चीनी-रुसी गठबंधन परिपक्व होता नजर आ रहा है- II 
जर्मनी को लेकर चल रहे अंतिम समझौते के संधि पत्र पर हस्ताक्षर समारोह के मौके पर संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन, यूएसएसआर, फ़्रांस, जीडीआर, एफआरजी देशों के विदेश मंत्री (बायें से दायें क्रम में); मास्को 12 सितंबर, 1990

मैं कम से कम क्षण भर के लिए जर्मनों से हार चुके पोलिश लोगों की जमीन की तलाश में हूं। आजकल जर्मन वालों ने पोलैंड में क्रेडिट, लीकास और कम्पास के साथ राडार, डाइविंग छड़, प्रतिनिधिमंडल, और कीड़ों द्वारा खाई हुई प्रांतीय छात्रों के संघों की पोशाक की खोज शुरू कर दी है। कुछ ने अपने दिलों में चोपिन धारण किये हुए हैं, जबकि अन्य बदला लेने पर विचार कर रहे हैं। पोलैंड के पहले चार विभाजनों की भर्त्सना करते हुए वे पांचवे की योजना बना रहे हैं; जबकि इसी बीच भारी पछतावे के साथ, जमा करने के लिए एयर फ्रांस के माध्यम से वारसॉ के लिए उड़ान भरते हुए, उस जगह पर पुष्पांजलि कर रहे हैं, जो कभी घेटो बस्ती हुआ करती थी। इन दिनों में से किसी एक दिन वे रॉकेट के साथ पोलैंड की खोज पर निकलेंगे। इस बीच मैं पोलैंड को अपने ड्रम से मंत्रमुग्ध करता हूं। और मैं ढोल पर यह थाप दे रहा हूं: पोलैंड खो गया है, लेकिन हमेशा के लिए नहीं, सब कुछ खो गया, लेकिन हमेशा के लिए नहीं, पोलैंड हमेशा के लिए नहीं खोया है।” (द टिन ड्रम, गुंटर ग्रास)

इस बीच रूसी कूटनीति ने जिसकी आधुनिक इतिहास में एक गौरवशाली परंपरा रही है, और जो दुर्घटनावश या आवेग में आकर अपनी चालों को नहीं चला करती। ऐतिहासिक चेतना अपने गहनतम स्वरुप में है। अतीत और वर्तमान से जुडी यादें सामूहिक चेतना में गहन तौर पर सन्निहित और बेतरह उलझी हुई हैं। एक छोटा सा तथ्य यह भी है कि 11 सितंबर के दिन रूसी-चीनी बयान में जर्मनी को लेकर अंतिम समझौते पर संधि की तीसवीं वर्षगांठ की पूर्व संध्या के दिन ही जारी किया गया था।

उस कथित "2 + 4 संधि", जिसे 12 सितंबर 1990  के दिन तत्कालीन जर्मन संघीय गणराज्य और जर्मन लोकतांत्रिक गणराज्य के बीच मास्को में हस्ताक्षर किए गए थे- और इसके साथ ही द्वितीय विश्व युद्ध के पूर्व सहयोगी यूएसएसआर, यूएसए, ब्रिटेन और फ्रांस इसके सह-हस्ताक्षरकर्ताओं के तौर पर मौजूद थे। और इस प्रकार जर्मनी के एकीकरण को औपचारिक जामा पहना दिया गया था, जोकि पिछले साढ़े चार दशकों से विभाजित राष्ट्र हुआ करता था।

इस बात में कोई संदेह नहीं कि 11 सितंबर को मॉस्को में जारी संयुक्त बयान ने शीत युद्ध के बाद के युग में रूसी विदेश नीति में एक नए युग की शुरुआत कर दी थी, विशेषकर रुसी-जर्मन संबंधों और यूरोप के साथ रूस के संबंधों और आमतौर पर विश्व व्यवस्था के संबंध में। यहाँ पर जो तथ्य ध्यानाकर्षित कर रही है वह यह है कि मास्को ने इस नई यात्रा की शुरुआत का फैसला चीन के हाथ को थामते हुए किया है। समग्रता में देखें तो यह फैसला यूरोपीय, यूरेशियाई एवं अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के लिए बेहद महत्व का साबित हो सकता है।

संयुक्त बयान जारी किये जाने के दो दिन बाद 13 सितंबर के दिन रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव राज्य संचालित रोसिया-1 टीवी चैनल के प्रतिष्ठित मास्को. क्रेमलिन. पुतिन. नामक प्रतिष्ठित कार्यक्रम में नजर आयेI यहाँ उनसे पश्चिमी प्रतिबंधों के साए के बारे में प्रश्न किये गए, जोकि एक बार फिर से रूस को "नेवलनी मामले" और विशेषकर नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन परियोजना की छाया में विशेष तौर पर जर्मनी की मुख्य भूमिका को लेकर उठाये गए थे। लावरोव ने निम्नलिखित शब्दों में अपने यूरोपीय साझीदारों के साथ रूस की गहरी असहमति को अभिव्यक्त किया:

"सैद्धांतिक तौर पर देखें तो इन वर्षों के दौरान भूराजनीतिक प्रतिक्रिया में यह पहचानने का काम हुआ कि हमारे पश्चिमी गैर-भरोसेमंद साबित हुए हैं, जिसमें दुर्भाग्यवश यूरोपीय संघ के सदस्य शामिल हैं। हमारे पास इस संबंध में अनेकों महत्वाकांक्षी योजनाएं थीं, जिनमें ऊर्जा क्षेत्र एवं उच्च प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में यूरोपीय संघ के साथ संबंधों को विकसित करने और आम तौर पर आर्थिक सहयोग को आगे बढ़ाने के रास्ते तय करने वाले दस्तावेज मौजूद थे। हम सभी एकल भू-राजनीतिक स्थान को साझा करते हैं। यूरेशियाई महाद्वीप में हमारे साझे भूगोल, प्रचालन-तंत्र एवं बुनियादी ढांचे को ध्यान में रखते हुए, हम सभी तुलनात्मक तौर पर इन चीजों से लाभान्वित हो सकते थे।

"निश्चित तौर पर यह हमारे और यूरोपीय संघ के साथ-साथ एससीओ, ईएईयू एवं आसियान सहित इस भूभाग पर मौजूद अन्य देशों के लिए एक गंभीर गलती होगी, जो कि एक दूसरे के निकटस्थ भी हैंI लेकिन लगातार तेजी से बढ़ती प्रतिस्पर्धात्मक दुनिया में अपने तुलनात्मक भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक लाभों को इस्तेमाल में नहीं ला पा रहे हैं। दुर्भाग्यवश यूरोपीय संघ ने संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ सुर में सुर मिलाने की अपनी क्षणिक चाहत की खातिर अपने भू-आर्थिक और दूरगामी हितों को तिलांजलि देने का फैसला लिया है, जिसे वे "रूस को दंडित करने" के तौर पर संदर्भित करते हैं। हम सब (रूस) अब इस सबके आदी हो चुके हैं। अब हम इस बात को समझ चुके हैं कि यूरोपीय संघ के साथ पूर्ण रूप से साझेदारी को पुनर्जीवित करने संबंधी हमारी सभी भावी योजनाओं में हमें एक सुरक्षा जाल की आवश्यकता पड़ेगी। इसका अर्थ यह हुआ कि हमें इस प्रकार से आगे कदम बढ़ाने की जरूरत है कि यदि  यूरोपीय संघ अपने नकारात्मक, विनाशकारी स्थिति पर अड़ा रहता है तो हम उसकी सनक पर निर्भर नहीं रहने जा रहे हैंI हम उन लोगों के साथ काम करते हुए अपने विकास के लिए खुद को तैयार कर सकते हैं, जो हमारे साथ एक समान और परस्पर सम्मानजनक तरीके से सहयोग करने के लिए तैयार हैं।

इस समय रूसी मष्तिष्क में पनप रही कड़वाहट की सीमा को सिर्फ 1990 में जर्मनी के एकीकरण के समय विकसित हो रही इतिहास की पुनरावृत्ति के परिप्रेक्ष्य से ही समझा जा सकता हैI रुसी-जर्मन सम्बंधों के प्रति यह उम्मीद उस महान घटना पर टिकी हुई थी (अन्यथा इनका अबतक का संत्रस्त इतिहास रहा है, जिसके बारे में कुछ भी कहना कम ही होगा) और उसके बाद के तीन दशकों के दौरान क्या निकल कर आया। यह पश्चिम के हिस्से की हर बार भूल जाने वाली बीमारी और स्पष्ट तौर पर राजनीतिक छल-प्रपंच वाली जटिल कहानी है।

यह तो वर्तमान दौर में “गुप्त सूची से हटा दिए गए” अभिलेखीय सामग्रियों के उपलब्ध होने का फायदा है- विशेष तौर पर वर्ष 1990 से संबंधित मिखाइल गोर्बाचेव के सहयोगी रहे सोवियत राजनीतिज्ञ अनातोली चेर्न्याएव की बेहद जरुरी डायरी- जोकि रूस के पश्चिम के साथ जटिल संबंधों को शीत-युद्ध युग के बाद एक बार फिर से पुनर्निर्माण को संभव बनाने की संभावनाओं को समेटे हुए थी। 

स्मृति के साथ इच्छाओं का घालमेल 

स्मृतियों को तरोताजा करने पर हम पाते हैं कि जर्मन एकीकरण के जर्मन बीज गोरबाचेव के पेरेस्त्रोइका में छिपे हुए थे, जोकि अंतर्राष्ट्रीय जीवन में वैश्वीकरण की परिघटना की विशाल पृष्ठभूमि में अंतर्निहित थे, और 1980 के दशक के दौरान क्षितिज पर प्रकट हुए थे। गोर्बाचेव के सुधार कार्यक्रमों ने समूचे पूर्वी यूरोप के तरंगित कर डाला था, जो कि पहले से ही असंतोष की उबकाई ले रहा था, और राजनीतिक उथल-पुथल की लहरों ने करीब-करीब उस क्षेत्र को रातोंरात बुहारना शुरू कर दिया था, जो अंततः पूर्वी जर्मनी की ग्रेनाइट सरीखी दीवारों के आगे चकनाचूर हो गईं, जो कि बदलाव के प्रति अभेद्य बनी हुई थी। (एक बिंदु तो ऐसा भी आया जब पूर्वी जर्मनी की कम्युनिस्ट सरकार ने पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त शैली की सोवियत राज्य-संचालित मीडिया सामग्री को अपने देश में प्रचारित करने पर प्रतिबन्ध लगाना शुरू कर दिया था और जनता की राय को भ्रमित करने का काम किया।)

बहरहाल स्थायी तौर पर विभाजित जर्मनी के बीच बर्फ के समान जमे रिश्तों में आशा की एक किरण पहली बार तब नजर आने लगी, जिसमें जर्मनी का एकीकरण अब कोई दिवास्वप्न नजर नहीं आ रहा था जब तक कि गोर्बाचेव मास्को में सत्ता में बने रहुए थे और उनका सुधार कार्यक्रम जारी रहता है। इसमें कोई शक नहीं कि पश्चिम ने गोर्बाचेव के बारे में चापलूसी के प्रति उनकी संवेदनशीलता को भांपकर उनकी जी-हुजूरी में जुट गया था। (इस प्रकार की कई घटनाओं के लघु चित्र चर्नियाव की डायरी में बिखरे पड़े हैं।)

हम इस बात को भूल रहे हैं कि जब पश्चिम जर्मनी के करीबी नाटो सहयोगी- ब्रिटेन और फ्रांस ने "जर्मन प्रश्न" की नई हलचलों को भाँपना शुरू किया, तो उन्होंने गोर्बाचेव को इस संबंध में आगाह किया था कि वे अपनी पसंद को लेकर काफी जल्दबाजी कर रहे हैं। उन्होंने स्पष्ट किया था कि अभी यूरोप एक एकीकृत जर्मन राष्ट्र के लिए तैयार नहीं है। तत्कालीन ब्रिटिश प्रधान मंत्री मार्गरेट थैचर ने इसी दौरान गोर्बाचेव के साथ व्यक्तिगत तौर पर वार्ता के लिए मास्को के लिए उड़ान भरी थी। तो इसी तरह फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति फ़्रन्कोइस मितरां ने भी रूस का दौरा किया था। वैसे देखें तो पश्चिमी देशों के नेताओं में यह थैचर ही थीं जिन्होंने सबसे पहले 1980 के दशक की शुरुआत में ही सोवियत राजनीति में एक उभरते हुए सितारे के तौर पर गोर्बाचेव को पहचान लिया था, जिनके साथ पश्चिम को "व्यापार" में कोई दिक्कत नहीं होने वाली थी। लेकिन विडंबना यह है कि जब बात जर्मन प्रश्न को लेकर आई तो गोर्बाचेव ने एंग्लो-फ्रेंच आपत्तियों को दरकिनार कर दिया। लेकिन मुद्दा यह है कि सोवियत संघ- जैसा कि वास्तव में रूसी संघ के वर्तमान उत्तराधिकारी राज्य के साथ है- ने पहले से ही अपने मानस से किसी भी प्रकार के बदला लेने वाली मानसिकता या जर्मनी के प्रति पूर्वजों के समय से चली आ रही रुसी जनता के प्रति भयावह अपराधों वाली आशंकाओं को सिरे से निकाल दिया था, जो रूसी लोगों के उपर ढाए गए थे। (द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजी आक्रमण के कारण तकरीबन 2.5 करोड़ सोवियत नागरिक हताहत हुए थे।)

इसके विपरीत ब्रिटेन और फ्रांस का अभी भी यही मानना था कि एक मजबूत जर्मनी न तो उनके हित में है और ना ही समग्रता में यूरोपीय हितों के अनुरूप ही यह कदम होगा। वे इस बात से आशंकित थे कि कुछ अंतराल के बाद ही एकीकृत जर्मनी एक बार फिर से यूरोप में शीर्ष कुत्ते के तौर पर अपने रोल में आकर निगरानी का काम शुरू कर सकता हैI एक बार फिर से वह महाद्वीप की राजनीति पर हावी होना शुरू कर देगा, जैसा कि 20वीं शताब्दी में पहले भी वह दो बार वह कर चुका है। अमेरिका ने बीच की स्थिति अपनाते हुए अपनी उत्तर-अटलांटिक नेतृत्व के लिहाज से स्व-हितों के अनुरूप एक कठोर शर्त रखी कि एकीकृत जर्मनी को अभी भी नाटो के भीतर ही रखा जाना चाहिए। मूल रूप से नाटो को लेकर अमेरिका का गणित अभी भी लॉर्ड इस्माई की मशहूर कहावत के इर्द-गिर्द ही घूम रहा था – जिसके अनुसार पश्चिमी गठबंधन का अर्थ था "सोवियत संघ को बाहर रखना, अमेरिकियों को अंदर रखना और जर्मनों को नीचे दबाकर रखना।"

जैसा कि कहावत मशहूर है कि भिखारियों को उनके मन-मुताबिक चीजें नहीं मिलतीं, यहाँ पर प्रार्थी के तौर पर पश्चिम जर्मनी भी हांगकांग-शैली वाले "एक देश, दो सिस्टम" सूत्र के साथ शुरुआत करने पर राजी हो गया था, यदि सिर्फ गोर्बाचेव पश्चिम और पूर्वी जर्मनी के बीच एक संघ के विचार को स्वीकार कर लेते। इस "बहुध्रुवीय" डिप्लोमेटिक तकरार वाली लंबी कहानी को सार-संक्षेप में रखते हुये कह सकते हैं कि इस मामले में गोर्बाचेव ने अपने स्वयं के पोलित ब्यूरो के भीतर मौजूद कट्टरपंथियों के तर्कों की अनसुनी कर दी थी- जिन्होंने एक साल के भीतर ही उनके खिलाफ तख्तापलट की साजिश रचने का काम किया था, जिसने अंततः सोवियत संघ के ही भरभराकर ढहाने का काम कियाI इसके साथ ही गोर्बाचेव ने पूर्वी जर्मनी के विरोध प्रदर्शनों की अनदेखी करते हुए दोनों जर्मनी के एकीकरण के लिए हरी झंडी फहराने के लिए जर्मन चांसलर हेलमुट कोहल (और अमेरिकी विदेश मंत्री जेम्स बेकर) के साथ आगे बढ़कर समझौता किया।

कुछ हल्कों से प्राप्त जानकारी के अनुसार कोहल-गोर्बाचेव के साथ हुई इस युगांतकारी मुलाकात के बाद कोहल इतने रोमांचित थे कि बाकी की सारी रात उन्होंने मास्को की सड़कों पर ही घूमने में बिता दी थी- वे भगवान से मिले इस अप्रत्याशित उपहार के चलते रात भर सो नहीं सके। कोहल एक व्यावहारिक इन्सान थे जिन्होंने जर्मनी के पश्चिमी सहयोगियों द्वारा इसके एकीकरण को लेकर थोपी गई कठिन शर्तों को उस समय स्वीकार कर लिया था। और इस प्रकार मित्र राष्ट्रों द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से जर्मनी के उपर अपने अधिकारों को त्यागने और अपनी सेनाओं को वापस लेने के बदले में जर्मनी ने पोलैंड के साथ ओडर-नीइस लाइन को अपनी सीमा के तौर पर स्वीकार किया और पूर्वी जर्मन क्षेत्र से परे अपने सभी क्षेत्रीय दावों का परित्याग कर दिया (प्रभावी रूप से जर्मनी के पूर्वी प्रान्तों के ज्यादातर पोलैंड और पुराने सोवियत संघ के इलाकों पर दावा त्याग दिया)।

एक एकीकृत जर्मनी में इसके सशस्त्र बलों की अधिकतम संख्या 370,000 कर्मियों तक ही रखी जा सकती हैI इसके साथ-साथ परमाणु, जैविक और रासायनिक हथियारों के निर्माण, कब्जे, और नियंत्रण को हमेशा के लिए परित्याग करने और एनपीटी के नियमों को अपने यहाँ हमेशा के लिए जारी रखने की शर्त शामिल थी। संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुसार ही यह विदेशों में सैन्य बलों को की तैनाती कर सकता था, किसी भी प्रकार के भविष्य के क्षेत्रीय दावों को नहीं करने वाला था (पोलैंड के साथ एक अलग संधि, जिसमें वर्तमान साझा सीमा की पुष्टि, जोकि अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत बाध्यकारी होगी एवं प्रभावी तौर पर पुराने जर्मन क्षेत्रों जैसे कि बाल्टिक तट पर कैलिनिनग्राड के रूसी एन्क्लेव के दावे को त्यागना) इत्यादि शामिल था।

स्पष्ट रूप से जर्मन बदले की आग की संभावित वापसी के तौर पर न तो कुछ भी भुलाया गया या माफ़ ही किया गया था। लेकिन तब से इन तीन दशकों के दौरान काफी कुछ बदल चुका है। कई फॉल्ट लाइनें उभर कर सामने आ चुकी हैं। शुरुआत के तौर पर देखें तो जर्मनी ने पिछड़े हुए पूर्वी जर्मन हिस्से को सफलतापूर्वक एकीकृत करने का काम किया, खुद को विशिष्ट जर्मन अनुशासन और कठोरता के तहत दोबारा से निर्मित किया और यूरोप के पावरहाउस के तौर पर एक बार फिर से उछलकर वापस आ चुका हैI (जो अब ब्रेक्सिट और ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के बाद इसमें और अधिक बल मिल जाता है।) दूसरा, पोलैंड भी एक क्षेत्रीय शक्ति के तौर पर कूदना शुरू कर चुका है और इसे जर्मनी और रूस के साथ पुराना हिसाब भी चुकता करना है। (पोलैंड ने हाल ही में जर्मनी से युद्ध के हर्जाने का दावा किया है और वायसग्राद समूह का गठन करके यूरोपीय संघ के जर्मन नेतृत्व के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहा है, ताकि पूर्व वारसॉ समझौते में शामिल देशों एवं बाल्टिक राज्यों को अपनी छत्रछाया में ले सके।) इसमें यह भी जोड़ते चलें कि वारसा में एक दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी सरकार सत्ता में है, जोकि जर्मनी में समर्थित तथाकथित उदारवादी मूल्यों के विरुद्ध है और बेहद उत्सुकता के साथ अमेरिकी सैन्य अड्डों की इकाइयों को इस मिट्टी में जमाने की इच्छा रखता है।

इस बीच जर्मन मानसिकता भी रूस को लेकर बदल चुकी है, जिसके पीछे नेतृत्वकारी स्थिति में एक समय रहे समूचे नेतृत्व में बदलाव के चलते ऐसा संभव हो सका है जो "ओस्टपोलिटिक" के प्रति समर्पित थे, जिसे पहली बार विली ब्रांट द्वारा प्रस्तावित किया गया थाI यह  इस विश्वास पर आधारित था कि रूस के साथ एक मजबूत संबंध मूल तौर पर जर्मन हित में रहने वाला है। सत्ता के जर्मन चांसलर गेरहार्ड श्रोएडर से एंजेला मर्केल के बीच के संक्रमण ने ओस्टपोलिटिक युग के एक अंत को चिन्हित किया है, जोकि रूस के प्रति जर्मन नीतियों के प्रमुख आधार और जर्मन विदेश नीति के प्रमुख नमूने के तौर पर अबतक चिन्हित था।

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ओस्टपोलिटिक के पचास वर्ष: आधुनिक यूरोपीय इतिहास के सबसे प्रतिष्ठित संकेतों में से एक, विली ब्रांट वारसॉ घेट्टो विद्रोह के नायकों के स्मारक के समक्ष प्रायश्चित की मुद्रा में घुटनों के बल बैठे हुए, 7 दिसंबर, 1970

मर्केल की निगाहें जर्मनी के यूरोप के उपर नेतृत्व को लेकर टिकी हुई हैं। उन्होंने रूस के साथ जर्मनी के मेलजोल को चुनने और त्यागने का काम शुरू कर दिया था, जिसका अर्थ 1990 के "2 + 4 संधि" के कोने का पत्थर था।

बियर, प्रेटज़ेल रोटी और बावेरियाई ब्रास-बैंड 

इस सबके चलते रूस की सीमाओं की ओर नाटो के पूर्ववर्ती विस्तार और वर्तमान में एक तरफ अमेरिका, यूरोपीय संघ और नाटो के बीच बढ़ती भू-राजनीतिक प्रतियोगिता के साथ-साथ दूसरी ओर रूस के सोवियत गणराज्य के बाद की रुसी पश्चिमी सीमाओं, ब्लैक सी और काकेशस में जारी तनाव को बढ़ा दिया है। इस बीच रूस यूरोपीय संघ और यूरेशियन इकोनॉमिक यूनियन के बीच एक प्रकार के समझौते की मांग कर रहा है और एक बिंदु पर उसने अटलांटिक से प्रशांत तक के एकताबद्ध यूरोप की अवधारणा को आगे बढ़ाया था, लेकिन मर्केल ने इस बारे में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है।

इस बीच जर्मन सैन्यवाद के आरंभिक संकेत दिखने शुरू हो चुके हैं। मई 2017 में अपनी एक हैरान कर देने वाली टिप्पणी में, जिसे मर्केल ने जर्मन चुनाव अभियान के दौरान कहा था कि यूरोप अब राष्ट्रपति ट्रम्प और ब्रेक्सिट को चुने जाने के बाद से अमेरिका और ब्रिटेन पर "पूरी तरह से निर्भर" नहीं रह सकता है। मर्केल ने दक्षिणी जर्मनी के म्यूनिख में एक चुनावी रैली में एक भीड़ को संबोधित करते हुए कहा था कि वो समय जिसमें हम दूसरों पर पूरी तरह से निर्भर रह सकते थे, वो अब समाप्त होने को है। मैंने इसे अनुभव किया है कि ... हम यूरोपीय लोगों को अपनी किस्मत की बागडोर अपने हाथों में ले लेनी चाहिए।'' 

आंशिक तौर पर यह टिप्पणी हो सकता है कि "बीयर के लिए धन्यवाद, प्रेट्ज़ेल रोटी और बावेरियन ब्रास-बैंड द्वारा भीड़ को उत्तेजित करने वाली लग सकती है" जैसाकि बीबीसी के एक संवावदाता ने म्यूनिख में उस सुहावने दिन व्यंग्यात्मक लहजे में इसे नोट किया थाI लेकिन इसमें चौंकाने वाली बात यह थी कि मर्केल के शब्द असामान्य तौर पर भावुकता से भरे और बेबाक थे। इस संदेश की अनुगूँज पूरे यूरोप और रूस में प्रतिध्वनित हुई थी: हर प्रकार से ट्रम्प के अमेरिका और ब्रेक्सिट वाले ब्रिटेन के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखें - लेकिन हम अब उन पर और भरोसा नहीं कर सकते।'

इसके चलते कुछ अटकलें लगीं कि मर्केल के नेतृत्व में जर्मनी ने अब अमेरिका से दूरी बनानी शुरू कर दी है। हालाँकि वास्तव में यह मर्केल और राष्ट्रपति ट्रम्प के बीच के संबंधों के परीक्षण वाला मसला साबित हुआ था, न कि जर्मन गॉलिस्ट के तौर पर उनके खुद के आसन्न परिवर्तन का कोई मुद्दा था। वास्तव में देखें तो ये अटकलें जिस तेजी से पैदा होनी शुरू हुई थीं, उसी गति से खत्म भी हो गई थी। असल बात तो यह है कि मर्केल की पीढ़ी वाले जर्मन नेताओं की पीढ़ी कट्टर तौर पर "अटलांटिकवादी" है - जैसा कि वे खुद हैं - जो जर्मन-अमेरिकी संबंधों (ट्रम्प को दरकिनार) में सर्वसमावेशी "साझा उदारवादी मूल्यों" को प्रमुखता देती हैं, और इसे ट्रांस-अटलांटिक गठबंधन के मूल के तौर पर देखती हैं। इस प्रकार वे नाटो के एक मजबूत यूरोपीय स्तंभ के प्रति प्रतिबद्ध हैं। इसे दो बार फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रोन के स्वतंत्र यूरोपीय बल की संकल्पना से हटाया जा चुका है।

अनाश्चर्यजनक तौर पर वे रूस को अपने वैल्यू सिस्टम के प्रतिविरोधी के तौर पर देखते हैं जोकि लोकतांत्रिक सिद्धांतों, कानून के शासन, मानवाधिकारों, बोलने की आजादी इत्यादि के ईर्द-गिर्द है। वे रूस की ओर से संभावित आक्रामक, मुखर नीतियों और रूस द्वारा स्थापित अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को कम से कम चार बार परिवर्तित करने को एक बड़ी चुनौती के रूप में देखते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो वे राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के नेतृत्व में रूस के एक बार फिर से उभर कर सामने आ खड़ा होने से बुरी तरह से बौखलाए हुए हैं।

अपने दूसरे कार्यकाल की समाप्ति के दौरान जब 2007 में पुतिन ने फ़ेडरल टैक्स सर्विस के पूर्व प्रमुख अनातोली सेर्द्यकोव को रुसी सेना में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए और सुधारों को अंजाम तक पहुँचाने के लिए रक्षा मंत्री के तौर पर नियुक्त किया तो शुरू-शुरू में पश्चिमी विश्लेषकों ने इसकी खिल्ली उड़ाई थी। लेकिन जैसा कि अगस्त 2008 में रूस-जॉर्जिया संघर्ष ने बड़े पैमाने पर रूसी सैन्य परिचालन की विफलताओं का खुलासा किया, तो ऐसे में क्रेमलिन ने अपनी सैन्य क्षमताओं को मजबूत करने को लेकर पहले से भी अधिक दृढ़ता दिखानी शुरू की। और इस प्रकार, एक व्यापक सुधार के कार्यक्रम ने रूसी सशस्त्र बलों के सभी पहलुओं पर अपनी छाप डालनी शुरू कर दीI इसमें सशस्त्र बलों के कुल आकार से लेकर इसके अधिकारी कॉर्प और कमांड सिस्टम, वृहद पैमाने पर 10-वर्षीय हथियार आधुनिकीकरण की योजना, सैन्य बजट, रणनीतिक परमाणु निरोधक और पारंपरिक बलों और रूसी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति एवं सैन्य सिद्धांत तक के लिए नई हथियार प्रणाली को चाक-चौबंद करने का काम सम्पन्न किया गया।

इसके साथ ही सोवियत संघ से विरासत में प्राप्त रूसी सशस्त्र बलों की बल संरचना और संचालन को बदलने में किसी भी पिछले प्रयासों की तुलना में इस बार के सुधार कार्यों को काफी ऊँचे स्तर पर चलाया। 2015-2016 आते-आते जो पश्चिमी विश्लेषक शुरू में इसको लेकर संशय में थे, वे अब उठकर बैठने लगे और ध्यान देना शुरू किया कि किस प्रकार रूस अपने सशस्त्र बलों के एक बड़े आधुनिकीकरण के बीच से गुजर रहा था, जो कि रूस के निष्ठुर ताकत को बहाल करने की पुतिन की महत्वाकांक्षा से प्रेरित एवं 2004 और 2014 के बीच में तेल की बढ़ी हुई कीमतों के चलते क्रेमलिन के राजस्व में धन के प्रवाह से संचालित था। ब्रुकिंग्स स्थित रुसी विशेषज्ञ स्टीवन पिफर ने फरवरी 2016 में लिखा था आधुनिकीकरण के इस कार्यक्रम में रूसी सेना के सभी हिस्सों को शामिल किया गया है, जिसमें रणनीतिक परमाणु, गैर-परमाणु के साथ पारंपरिक बल शामिल हैं। अमेरिका को इस बारे में ध्यान देना होगा। रूस ... जबर्दस्त मुसीबत खडी करने की हैसियत रखता है। इसके अलावा हाल के वर्षों में क्रेमलिन ने सैन्य बलों के इस्तेमाल में एक नई किस्म की तत्परता दिखाई है।” (यूक्रेन और सीरिया में रूसी सैन्य हस्तक्षेप के फ़ौरन बाद ही पिफर इस बारे में लिख रहे थे।)

निश्चित तौर पर मार्च 2018 में राष्ट्र के नाम एक संबोधन के दौरान पुतिन ने घोषणा की थी कि रूस की सेना ने पश्चिमी रक्षा सिस्टम को परास्त करने के उद्देश्य से नए रणनीतिक हथियारों के एक जखीरे के परीक्षण का काम पूरा कर लिया है। इसके लिए पुतिन ने बड़े स्क्रीन पर दिखाए जाने वाले वीडियो का इस्तेमाल किया, जिनमें से कुछ हथियारों के बारे में उन्होंने चर्चा की। उन्होंने बताया कि इन नए हथियारों ने नाटो के मिसाइल डिफेंस सिस्टम को "बेकार" बना डाला था। दिसंबर 2019 के अपने एक भाषण के दौरान पुतिन ने खुलासा किया कि रूस दुनिया का एकमात्र ऐसा देश बन चुका है जो हाइपरसोनिक हथियारों को तैनात करने जा रहा है। "अब हम एक ऐसी स्थिति में पहुँच चुके हैं जो आधुनिक इतिहास में अद्वितीय है, जिसमें वे (पश्चिम) हमें छूने की कोशिश में लगे हैं" उन्होंने कहा। "किसी भी अन्य देश के पास हाइपरसोनिक हथियार नहीं हैं, अंतरमहाद्वीपीय रेंज वाले हाइपरसोनिक हथियारों की तो बात ही नहीं कर सकते हैं।"

नपुंसक राष्ट्र और ट्रोजन हॉर्स    

यह कहना पर्याप्त होगा कि जर्मनी के "सैन्यीकरण" को परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। रक्षा मंत्री एनेग्रेट क्रैम्प-कर्रनबाउर ने हाल ही में अटलांटिक काउंसिल के साथ हुई एक बातचीत में कहा कि "रूस को यह समझना चाहिए कि हम ताकतवर हैं, और हम इसका पालन करने का भी माद्दा रखते हैं।" उनका कहना था कि 2030 तक जर्मनी 10 प्रतिशत नाटो जरूरतों को पूरा करने के प्रति प्रतिबद्ध है और उच्च रक्षा बजट एवं क्षमता निर्माण का कार्य जर्मनी के हित में है।

इसके बावजूद न तो जर्मनी और ना ही जापान "नव-सैन्यवाद" में एक बार फिर से कूद जाने के लिए स्वतंत्र हैं। न ही इस बारे में उनकी कोई स्वतंत्र विदेश नीति है। नव-सैन्यवादी रास्ते पर देश को ले जाने से पहले उन्हें कई घरेलू विरोधों से निपटना होगा। दोनों ही देशों के राष्ट्रीय डिस्कोर्स में अभी भी विश्व युद्ध के बाद के शांतिवाद का बोलबाला है, जिसमें सेना और उसकी प्रत्येक कार्यवाही पर सवाल उठाया जाता है। दोनों देशों के पास स्वंयसेवी सेनाएँ हैं, और बिना अमेरिकी समर्थन या सहमति के इनमें से कोई भी खुद के बल पर युद्ध शुरू करने में सक्षम नहीं हैI प्रभावी तौर पर दोनों ही सेनायें पूरक शक्तियों के तौर पर हैं और अपने बल पर इनकी कोई प्रमुख ताकत नहीं है। जर्मनी नाटो से बाहर निकलने को इच्छुक नहीं लगता, जबकि जापान सीधे तौर पर अमेरिका के साथ किये गए अपने सैन्य गठबंधन के करार की छतरी के सिवाय दूर-दूर तक किसी ठौर-ठिकाने के बारे में नहीं सोच सकता है। अंतिम विश्लेषण में दोनों देश सैन्य स्तर पर नपुंसक राष्ट्र की श्रेणी में आते हैं, जो पिछले विश्व-युद्ध में हारे हुए, शक्तिहीन अथवा राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी वाले देश हैं।

यह बात तय है कि रूस और चीन शर्तिया तौर पर जर्मनी या जापान के इस नकली नव-सैन्यवाद वाली घुड़की से प्रभावित नहीं होने जा रहे हैं। तो आखिर समस्या कहाँ पर है? इसका उत्तर यह है कि रूस और चीन को करीब लाने के लिए जो चीज जिम्मेदार है वह गठबंधन सिस्टम द्वारा प्रस्तुत चुनौती है, जिसे अमेरिका द्वारा इन दोनों देशों को उनकी सीमाओं में "घेरे" रखने के लिए इकट्ठा किया जा रहा है। पोलैंड के साथ कई अन्य मध्य और पूर्वी यूरोपीय देशों में राष्ट्रवादी भावनाओं का उभार देखने को मिल रहा है, जिसमें रूस विरोधी स्वर तेज हो रहे हैं। अमेरिका लगातार जर्मनी के उपर पोलैंड और बाल्टिक देशों के साथ रूस के मुद्दे पर आपसी सहमति बनाने के लिए दबाव बना रहा हैI इसके लिए शर्तिया तौर पर बर्लिन को मॉस्को के बारे में अपने पारंपरिक ओस्टपोलिटिक दृष्टिकोण के बचे-खुचे मोह से पीछा छुड़ाना होगा, और इसके बजाय एक विद्वेषी पद्धति में खुद को ढालना होगा।

ठीक इसी तरह एशिया में देखें तो चीन को घेरने के लिए अमेरिका- जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया के साथ मिलकर चतुष्कोणीय गठबंधन का नेतृत्व कर रहा है। अमेरिका को उम्मीद है कि एशिया-प्रशांत क्षेत्र के देशों को चीन विरोधी दिशा में ढाला जा सकता है। इस मामले में भारत के साथ वाशिंगटन ने बढ़त बना ली है, वहीँ दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों ने अमेरिका और चीन के बीच में किसी एक पक्ष को चुनने से इंकार कर दिया है, और दक्षिण कोरिया की हालत किंतु-परंतु वाली बनी हुई है।

अमेरिका लगातार रूस और चीन के खिलाफ एकतरफा प्रतिबंधों को थोपता जा रहा है, जो अंतरराष्ट्रीय कानूनी मूल सिद्धांतों द्वारा समर्थित नहीं हैंI इसके साथ ही वह राष्ट्रीय कानून के अपरदेशीय उपयोग के जरिये अन्य देशों को अपने प्रतिबंधों एवं घरेलू कानून के माध्यम से अपने हिसाब से काम करने के लिए दबाव बढाता जा रहा है, जोकि अक्सर ही अंतरराष्ट्रीय कानून एवं संयुक्त राष्ट्र चार्टर का उल्लंघन करने वाला साबित हो रहा है। इसी तरह रूस के 11 बिलियन डॉलर वाली नॉर्ड स्ट्रीम 2 गैस पाइपलाइन परियोजना पर काम करने वाली यूरोपीय कंपनियों को भी अमेरिकी प्रतिबंधों की धमकी दी जा रही है।

इसी प्रकार श्रीलंका जैसे छोटे देशों को चीनी कंपनियों द्वारा चलाए जा रहे बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट को खत्म करने के लिए पहले से ही अमेरिका की ओर से हथियार के तौर पर प्रतिबंध थोपे जाने की धौंसपट्टी दिए जाने की चर्चा चल रही है। हिंद महासागर क्षेत्र में भारत वही भूमिका अपनाए हुए है जो पोलैंड ने यूरेशिया के पश्चिमी किनारे पर अमेरिकी क्षेत्रीय रणनीतियों के ट्रोजन घोड़े के तौर पर अपना रखा है। मालदीव में पिछले साल हुए सत्ता परिवर्तन को इसके तार्किक परिणिति तक पहुंचाया जा रहा है – अर्थात एक अमेरिकी बेस को तैयार करने का काम, जो डिएगो गार्सिया के अनुपूरक के तौर पर का काम करता है और हिंद महासागर में चीनी नौसेना पर निगरानी रखने और धमकाने के लिए एक "दूसरी श्रृंखला" को मजबूत करता है। भारत के समर्थन के बल पर अमेरिका इस समय नव-निर्वाचित श्रीलंकाई नेतृत्व पर सैन्य समझौते को जल्द से जल्द मंजूरी देने के लिए दबाव बना रहा है, विशेष तौर पर स्टेटस ऑफ़ फोर्सेज अग्रीमेंट को लेकरI जिसके तहत इस द्वीप पर अमेरिकी सैन्य कर्मियों को तैनात करने का मार्ग प्रशस्त हो जाने वाला हैI रणनीतिकार इसे एक विमान वाहक बेस के तौर पर इस्तेमाल किये जाने वाला बता रहे हैं।

एक बार फिर से अमेरिका मनमाने तरीके से अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार एजेंडे का राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल कर रहा है, और मानवाधिकार के मुद्दों का उपयोग चीन और रूस के आंतरिक मामलों में दखलंदाजी करने में कर रहा है। अमेरिका ने चीनी अधिकारीयों और संस्थाओं के खिलाफ शिनजियांग और हांगकांग में लिप्त होने के आरोप लगाते हुए प्रतिबंध लगा दिए हैं। इसी तरह रूस के खिलाफ भी रूसी विपक्षी कार्यकर्ता एलेक्सी नवालनी को कथित तौर पर जहर देकर मारने के आरोप के तहत पहले से ही पश्चिमी प्रतिबंधों को लेकर चर्चा चल रही है। रूस पहले से ही विभिन्न मुद्दों पर एक के बाद एक अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना करने को अभिशप्त है।

(इस तीन-हिस्सों वाले निबन्ध के पहले भाग को यहाँ देखा जा सकता है)

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Sino-Russian Alliance Comes of Age — II

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