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तेलंगाना: उपेक्षित और धमकाए गए आदिवासी एफआरए के दावों के लिए अपने आंदोलन को करेंगे तेज़ 

जनवरी 2017 से लेकर जुलाई 2020 के बीच में तेलंगाना में एफआरए के तहत मात्र 145 नए पोडू भूमि के दावों पर ही भूमि के पट्टों को आवंटित किया गया था। 
तेलंगाना: उपेक्षित और धमकाए गए आदिवासी एफआरए के दावों के लिए अपने आंदोलन को करेंगे तेज़ 

हैदराबाद: पिछले कुछ दिनों से तेलंगाना में एजेंसी/अनुसूचित क्षेत्रों में आदिवासी समुदाय के किसान, वन विभाग के अधिकारियों द्वारा पोडू भूमि पर (आदिवासियों एवं अन्य वनवासियों द्वारा वन्य भूमि पर खेती-बाड़ी करने) वृक्षारोपण को स्थापित करने के प्रयासों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। बुधवार के दिन जब वन विभाग के अधिकारी भद्राद्री कोथागुडेम जिले के अन्नापुरेडयपल्ली और लक्ष्मीदेवी पल्ली मंडलों में पोडू भूमि को समतल करने में व्यस्त थे तो वामपंथी दलों और सैकड़ों की संख्या में आदिवासियों ने मिलकर इस कदम का विरोध किया।

इसी प्रकार का विरोध प्रदर्शन मंगलवार के दिन राज्य में महबूबाबाद (वारंगल) जिले के गुडुर मंडल में लाइन थांडा में भी देखने को मिला। उस दौरान जब वन विभाग के अधिकारियों ने विरोध कर रहे आदिवासियों को इलाके से जबरन हटाने की कोशिश की तो बनोथ पार्वती नाम की एक आदिवासी महिला ने कीटनाशक खाकर आत्महत्या करने का प्रयास किया। स्थानीय किसानों द्वारा उसे बचाया गया और पास के एक सरकारी अस्पताल में  ले जाया गया था।

खम्मम जिले के सीपीआई(एम) नेता भुक्या वीराभद्रम का आरोप था कि राज्य के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव राज्य में लंबे समय से लंबित पड़े पोडू भूमि के मुद्दे का हल निकाल लेने के अपने चुनावी वायदे को पूरा कर पाने में विफल रहे हैं। वीराभद्रम के अनुसार “आदिवासी संगठनों द्वारा राज्य सरकार से काफी समय से इस बात की मांग की जा रही है कि वह इस मामले को सुलझाने के लिए अधिकारियों, विशेषज्ञों एवं आदिवासी संगठनों की एक समिति का गठन करें, जिससे कि वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत आदिवासियों के बीच भूमि के पट्टों के आवंटन के काम को पूरा किया जा सके। लेकिन अधिकारियों द्वारा राज्य में वन क्षेत्र के आधार को बढाने के इरादे से तेलंगाना कु हरिथा हरम योजना के नाम पर खेती के तहत आने वाली भूमि पर जबरन वृक्षारोपण के प्रयास किये जा रहे हैं।”

2015 के बाद से ही हरिथा हरम वृक्षारोपण को लेकर चलाए गए तमाम अभियानों के दौरान आदिवासी किसानों और वन विभाग के बीच में संघर्ष और हिंसा की कई घटनाओं की खबरें देखने को मिली हैं। खम्मम जिले में करेपल्ली, कामेपल्ली जुलूरुपाडू, एनकूर, कोनीजेरला और सत्तूपल्ली मंडलों में आदिवासियों ने वन अधिकारियों द्वारा उत्पीड़न और जबरन बेदखल करने के खिलाफ अनेकों विरोध प्रदर्शनों का नेतृत्व किया है। 

आदिवासी संगठनों के अनुसार जब अनुसूचित जनजातीय एवं अन्य पारंपरिक वनवासी समुदाय (वन अधिकार मान्यता) अधिनियम, 2006 या वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) को अमल में लाया गया था तो उस दौरान तत्कालीन आंध्र प्रदेश राज्य में करीब 25 लाख एकड़ की वन्य भूमि आदिवासियों के हाथ में खेती के तहत पाई गई थी।

जनजातीय मामलों के मंत्रालय से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक जुलाई 2020 के अंत में (अंतिम उपलब्ध डेटा) जहाँ सरकार को तेलंगाना में कुल 1,86,679 दावे प्राप्त हुए थे, जिसमें से (1,83,252) निजी दावे और 3,427 सामुदायिक दावे थे)। लेकिन सिर्फ 93,639 दावों में ही तेलंगाना में भूमि के पट्टे वितरित किये गए थे। 

जनवरी 2017 और जुलाई 2020 के बीच राज्य में एफआरए के तहत सिर्फ 145 नए पोडू भूमि के दावों पर ही भूमि के पट्टे दिए गए थे। 

तेलंगाना गिरिजम संघम के महासचिव आर. श्री राम नाइक के अनुसार “राज्य में हजारों की तादाद में ऐसे आदिवासी हैं जिनके द्वारा वन प्रशासन से मिलने वाले उत्पीड़न और अपने खुद के दयनीय जीवन के हालात जैसी ,तमाम वजहों से राज्य में भूमि के पट्टों के लिए आवेदन करना अभी शेष है। कई मामलों में प्रशासनिक अधिकारियों ने आदिवासियों के दावों के अनुसार भूमि के पट्टों का आवंटन नहीं किया है।” उन्होंने आगे बताया कि राज्य में आदवासी संगठनों द्वारा इस मुद्दे पर एक गोल-मेज सम्मेलन का आयोजन किया जा रहा है और भूमि पट्टों के वितरण की मांग को लेकर राज्यव्यापी विरोध प्रदर्शन शुरू होने जा रहे हैं।

नाइक के अनुसार “ज्यादातर मामलों में वन अधिकारियों ने आदिवासियों के खिलाफ यह घोषणा कर झूठे मामले दर्ज किये हैं कि उन्होंने 31 दिसंबर, 2005 (आदिवासियों के लिए भूमि के पट्टों के आवंटन की अंतिम तिथि) के बाद जाकर वन भूमि पर अपना कब्जा जमाया हुआ है। हालांकि वास्तविक स्वामित्व का पता लगाने के लिए प्रशासन को ग्राम सभाओं का रुख करना चाहिए था। कई आदिवासी परिवारों के लिए तो पोडू भूमि ही उनके पूर्वजों से विरासत में हासिल एकमात्र संपत्ति के तौर पर है। यदि उनसे उनकी जमीनों को जबरन छीन लिया जाता है, तो इससे उनकी रोजी-रोटी पर ही भारी संकट खड़ा हो जाने वाला है।”

इस बारे में वीराभद्रम का कहना था कि “केंद्र और राज्य सरकारों की ओर से जानबूझकर ऐसे प्रयास किये जा रहे हैं जिससे कि एफआरए या अन्य कानून जो आदिवासी अधिकारों को मंजूरी देते हैं, को ईमानदारी से लागू न किया जाए। मिसाल के तौर पर यदि सरकार चाहे तो हरिथा हरम वृक्षारोपण अभियान को खाली पड़ी सरकारी जमीनों, बंदोबस्ती वाली भूमि और अन्य जमीनों पर स्थापित कर सकती है। लेकिन अगर उन्होंने कॉर्पोरेट हितों का पोषण करने के लिए आदिवासियों की पोडू भूमि को खाली कराने की योजना बना रखी है तो ऐसे में वंचित समुदायों के पास अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता है।” 

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Telangana: Ignored and Threated, Adivasis to Intensify Stir for FRA Claims

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