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टीपू सुल्तान और बीजेपी की इतिहास से लड़ाई

भावनाओं के साथ एक बार फिर: इतिहास कोई पौराणिक कथा नहीं है।
tipu sultan
एंग्लो मैसूर युद्ध, नासा की वॉलॉप्स फ़्लाइट फैसिलिटी पेंटिंग का एक दृश्य

एक नए अंग्रेज़-मैसूर युद्ध की शुरुआत हो चुकी है: आरएसएस ने इस बार अंग्रेज़ों से गठजोड़ कर भारतीय इतिहास में टीपू सुल्तान के योगदान को छीनने की कोशिश की है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री बीएस येदुरप्पा के मुताबिक़ 18वीं शताब्दी में मैसूर के राजा रहे टीपू सुल्तान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं थे। यह इतिहास की किताबों से उन्हें हटाने के लिए दिया गया अजीब तर्क है।

आरएसएस के इतिहास के स्कूल में पढ़े लोगों के लिए यह समझना मुश्किल है कि अंग्रेज़-मैसूर युद्ध भारत की आज़ादी के लिए नहीं हुआ था। बल्कि यह अंग्रेज़ों के साम्राज्यवादी युद्धों में से एक था। जैसे बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला द्वारा लड़ी गई प्लासी की लड़ाई और कई अन्य लड़ाईयां और युद्ध। तो साफ़ है कि नवाब, राजा और राजकुमार स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं थे। क्योंकि बंगाल, मैसूर समेत दूसरे राज्यों ने अपनी स्वतंत्रता तब तक नहीं खोई थी।

टीपू और दूसरे राजाओें में सिर्फ़ इतना अंतर नहीं है कि उन्होंने दूसरों की अपेक्षा अंग्रेज़ों से ज़्यादा लंबा युद्ध लड़ा या उन्हें कई लड़ाईयों में हराया। दरअसल टीपू रॉकेट विज्ञान जैसे कई क्षेत्रों के जनक थे। मैसूर आकर वॉडेयार राजाओं से सत्ता छीनने के पहले टीपू का पिता हैदर अली, आर्कोट के नवाब की फौज़ में रॉकेट प्लाटून का नेतृत्व करते थे। अंग्रेज़-मैसूर युद्ध के दौरान वॉडेयार अंग्रेज़ों के पक्ष में थे और उन्हें टीपू की हार के बाद मैसूर के तख़्त के रूप में ईनाम भी मिला।

इस बात पर शक की गुंजाईश नहीं है कि बीजेपी सावरकर की तरह, जिन्होंने जेल जाने के बाद अंग्रेज़ों को माफ़ीनामा लिखा, वॉडेयार को भी भारतीय राष्ट्रवादी घोषित कर देगी।

आरएसएस और इसके मानने वालों का इतिहास, विज्ञान और दंतकथाओं से अजीब संबंध रहा है। वे दंतकथाओं की कल्पनाओं को असली इतिहास की तरह पेश करते हैं। जब असली इतिहास की बात होती है तो उन्हें लगता है कि इसपर सर्जिकल स्ट्राइक होनी चाहिए। इससे अकबर, टीपू और कांग्रेस नेता जवाहर लाल नेहरू को हटाया जाना चाहिए।

वैज्ञानिक कल्पनाओं के अभाव में वे मानकर चलते हैं कि अब आगे कुछ भी खोजा जाना संभव नहीं है और अतीत में हमारे साधु-संतों ने सभी चीज़ें खोज ली हैं। जबकि यही वैज्ञानिक कल्पनाएं नए विज्ञान की जनक होती हैं। 

यही दीनानाथ बत्रा का इतिहास और विज्ञान है, जिसे पहले गुजरात की स्कूली किताबों में शामिल किया गया। अब कई राज्यों समेत केंद्र में बीजेपी की सरकार है, जिस तरह से टीपू को हटाया जा रहा है, वह तो मात्र एक झलक है कि आगे छात्रों को किस तरह की शिक्षा मिलेगी। एक ऐसा इतिहास होगा जिसमें गांधी की हत्या करने वाले गोडसे को राष्ट्रवादी कहा जाएगा, सावरकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के जनक होंगे और गांधी की एकमात्र उपलब्धि प्रधानमंत्री मोदी के स्वच्छ भारत अभियान से जुड़ाव होगी।

इतिहास और विज्ञान का यही दृष्टिकोण प्रधानमंत्री मोदी का भी है। रिलायंस हॉस्पिटल के एक नए विंग के उद्धाटन के दौरान उन्होंने कहा कि जेनेटिक्स और अंग प्रत्यर्पण प्राचीन भारत में उपलब्ध थे। उन्होंने कहा, "मेरा कहने का मतलब है कि हम वो देश हैं जिसके पास यह क्षमताएं थीं। हमें इनको दोबारा पाना होगा।'' कोई विज्ञान की ज़रूरत नहीं है, केवल संस्कृत पढ़िए।

कोई विकास की जरूरत नहीं है, केवल प्राचीन ज्ञान को दोबारा पाना होगा, और हां, किसी तरह के असली इतिहास की नहीं, बल्कि दंतकथाओं की ज़रूरत है। बस हमें अपने प्राचीन संतों की राह पर चलना है जिन्होंने कभी कोई इतिहास नहीं लिखा। इसलिए हमें इतिहास की जानकारी के लिए मेगस्थनीज़ जैसे ग्रीक और ह्वानसांग जैसे बुद्ध साधु के लेखन पर निर्भर होना पड़ता है।

इतिहास पर ऐसे ही नज़रिये के चलते 102वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में दो स्पीकर ने प्राचीन उड्डयन तकनीकी पर ''पेपर'' पेश किए। इनमें से एक रिटार्यड पायलट कैप्टन आनंद जे बोडस थे। यह पेपर वैमानिका शास्त्र पर आधारित था। संस्कृत के इस शास्त्र को कथित तौर पर संत भारद्वाज ने ''दिव्य दृष्टि'' के ज़रिये सुब्बार्या शास्त्री को प्रेषित किया था।

शास्त्री 1866 से लेकर 1940 तक ज़िंदा थे, वहीं भारद्वाज कम से कम 2,000 साल पहले इस दुनिया में थे। इस पुराने शास्त्र की एकमात्र प्रमाणिकता शास्त्री का यही दावा है कि भारद्वाज एक दिन उनके सपने में आए और उन्हें पूरा शास्त्र बताकर चले गए। बोडस के पेपर में लिखे कुछ शानदार नमूने इस तरह हैं, "आधुनिक विज्ञान अवैज्ञानिक है" और वैदिक या प्राचीन भारत में एक हवाई जहाज़ ''एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप, एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक चला करता था, जो दाएं और बाएं के साथ-साथ पीछे भी चल सकता था। ध्यान रहे आधुनिक विमान पीछे नहीं चल सकते, वे केवल सामने की तरफ़ उड़ सकते हैं।''

भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलोर के 5 प्रफ़ेसर की टीम ने वैमानिका शास्त्र का गहरा अध्ययन किया। वे इस परिणाम पर पहुंचे कि यह प्राचीन लेखन नहीं है, बल्कि इसे 20वीं सदी में लिखा गया। उन्होंने यह भी कहा कि यह घटिया दर्जे का विज्ञान है और लेखन में बताया गया कोई भी निर्माण कभी उड़ नहीं पाया होगा।

इस तरह के मिथकों के उलट, हमारे यहां विज्ञान और प्रौद्योगिकी में बड़ी उपलब्धियां हासिल की गई हैं, जिन्हें आज हिंदू विरोधी कहकर ख़ारिज किया जा रहा है। यूरोपीय लोगों के रॉकेट की खोज से पहले हैदर अली और टीपू सुल्तान रॉकेट क्षेत्र में जनक बन चुके थे। अंग्रेज़-मैसूर युद्ध में उन्होंने रॉकेट से अंग्रेज़ों को बहुत नुकसान पहुंचाया। 1780 में पोल्लिलुर में हुए दूसरे अंग्रेज़-मैसूर युद्ध में अंग्रेज़ों की हार में इन रॉकेट ने बड़ी भूमिका निभाई

अब्दुल कलाम, जिनके बारे में पूर्व संस्कृति मंत्री महेश शर्मा कहते हैं कि वे मुस्लिम होने के बावजूद राष्ट्रवादी थे, उन्होंने अपनी आत्मकथा में बताया है कि कैसे नासा के वैलप फ़्लाइट फ़ैसेलिटी की यात्रा के दौरान उन्होंने रॉकेट क्षेत्र में टीपू के योगदन के बारे में जाना। अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ टीपू द्वारा इस्तेमाल किए गए रॉकेट के इस्तेमाल किए जाने संबंधी एक तस्वीर वहां मुख्य रिसेप्शन में लगी हुई है।

इंडियन एयरोनॉटिक्स के पुरोधाओं में से एक, रोड्डम नरसिम्हा ने रॉकेट क्षेत्र में टीपू और हैदर अली की खोजों पर शोध किया है। 1985 में प्रकाशित किए गए एक पेपर, ''रॉकेट्स इन मैसूर एंड ब्रिटेन, 1750-1850 AD'' में रोड्डम ने गनपाउडर और 11वीं शताब्दी में चीन में खोजे गए शुरुआती रॉकेट्स की चर्चा की है। उन्होंने ''फॉयर एरो'' के उपयोग और उनके वैश्विक प्रसार, जिसमें भारत भी शामिल है, में इस यात्रा को बताया। चीन के लोगों ने मंगोलों के ख़िलाफ़ इन रॉकेट का इस्तेमाल किया। बदले में मंगोलों ने बड़ी संख्या में 13वीं और 14वीं शताब्दी के दौरान चीनी लोगों और यूरोपियों के ख़िलाफ़ इनका उपयोग किया।

13वीं शताब्दी में तोपों की खोज के बाद रॉकेट का इस्तेमाल कम हो गया। क्योंकि अब यह बहुत प्रभावी नहीं रह गए थे। 

रोड्डम ने रॉकेट क्षेत्र में टीपू और हैदर अली के बड़े योगदान का विश्लेषण किया है। उन्होंने बताया कि टीपू़-हैदर ने अपने रॉकेट में बांस या पेपर की जगह मैटल कैशिंग उपयोग किया। धातु से बने यह रॉकेट दो किलोमीटर तक जा सकते थे। यह इनकी रेंज और वजन ले जाने की क्षमता में एक बड़ा इज़ाफ़ा था।

चौथे अंग्रेज़-मैसूर युद्ध में टीपू की हार के बाद अंग्रेज़ बड़ी संख्या में रॉकेट लेकर इंग्लैंड गए। वहां विलियम कॉन्ग्रीव ने उनका वैज्ञानिक अध्ययन किया और पाया कि मैसूर के रॉकेट यूरोप में इस्तेमाल किए जाने वाले रॉकेट से ज़्यादा लंबी रेंज रखते थे। मैसूर के रॉकेट पर आधारित कॉन्ग्रीव के काम से जो रॉकेट बने उनका इस्तेमाल अंग्रेज़ों ने पहले फ़्रेंच और बाद में विद्रोही उपनिवेशों के ख़िलाफ़ किया।

अमेरिका के राष्ट्रगान में कुछ पंक्तियां इस तरह हैं, "और रॉकेट की लाल रोशनी, हवा में फटते बम से सबूत मिला कि हमारा झंडा अभी भी वहां बुलंद है।" जिन रॉकेट की यहां चर्चा हुई वे कॉन्ग्रीव रॉकेट थे, जिनका इस्तेमाल ब्रिटेन ने 1812 में बाल्टीमोर की लड़ाई में उपनिवेशों के खिलाफ किया था। बाल्टीमोर में फ़ोर्ट मैकहेनरी पर बमबारी के वक़्त, इस कविता को लिखने वाले 'फ्रांसिस स्कॉट की' को ब्रिटेन के एक जहाज़ पर बंदी बना लिया गया था। वे बमबारी के गवाह बने और उन्होंने अपना झंडा फहराते हुए देखा, जो रॉकेट की रोशनी से चमक रहा था। यही घटना ऊपर लिखी इस कविता का हिस्सा है।

रोड्डम के पेपर में बताया गया कि कॉन्ग्रीव रॉकेट विज्ञान को और आगे ले जा सके, क्योंकि वे विज्ञान और प्रौद्योगिकी को एकसाथ लाने में कामयाब रहे और उन्होंने क्रमबद्ध प्रयोग किए। लेकिन भारत को मैसूर रॉकेट की तकनीक को आगे ले जाने के लिए ISRO के बनने का इंतजार करना पड़ा। 

रोड्डम के अध्ययन से हमें यह भी पता चलता है कि इतिहास से किस तरह का व्यवहार करना चाहिए। इसे किसी मिथकीय अतीत की अनुपयोगी वीरता के तौर पर नहीं, बल्कि इसे जानने के लिए कड़ी मेहनत और विश्लेषण की ज़रूरत होती है। उन्होंने यह भी बताया कि भारत में जो खोजें हुईं, उनके लिए कैसे दुनिया के ज्ञान का इस्तेमाल किया गया और कैसे उनमें दूसरी खोजों का भी योगदान था। हां, भारत के पास विज्ञान और गणित में महान परंपरा मौजूद थी। इसे इतिहास के खोखले दावों से नहीं, बल्कि बेहतर विज्ञान से ही वापस पाया जा सकता है।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Tipu Sultan and BJP’s War on History

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