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बजट-2021-22: संकट के बीच लंबी-लंबी डींगे

2020-21 के बजट में 2,10,000 करोड़ रु की जो महत्वाकांक्षी विनिवेश योजना रखी गयी थी, उसके लगभग पूरी तरह से विफल होने को देखते हुए, यह स्पष्ट नहीं है कि सार्वजनिक उत्पादक परिसंपत्तियों को बेचने का यह उद्यम कितना सफल होगा।
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वित्त मंत्री, निर्मला सीतारमण अपने बजट भाषण में श्रोताओं को यह यकीन दिलाने की कोशिश कर रही थीं कि उनका 2021 का बजट, महामारी पर जीत को मुकम्मल करने जा रहा है और अर्थव्यवस्था का कोविड-उत्तर विस्तार उन्मुक्त करने जा रहा है।

दुतरफा दावे

इसके लिए, उन्होंने अपने बजट भाषण में दो प्रकार के दावों पर खासतौर पर जोर दिया। इनमें पहला था, यह दावा कि यह बजट भारतीय शासन के जनता के स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित करने के मामले में, एक नयी शुरूआत को दिखाता है। यह शुरूआत, स्वास्थ्य के क्षेत्र के लिए आवंटन में 137 फीसद की अभूतपूर्व बढ़ोतरी के जरिए की गयी है। जहां 2020-21 के बजट में इस मद में सिर्फ 94,452 करोड़ रु0 आवंटित किए गए थे, 2021-22 के बजट में स्वास्थ्य के लिए पूरे 2,23,846 करोड़ रु का आवंटन किया गया है।

और दूसरा है कि इसका एलान कि राजकोषीय घाटे को खास सीमा में रखते हुए, राजस्व खर्चों की भरपाई करने की चिंताओं से ऊपर उठते हुए, सरकार अब पूंजीगत खर्च करने पर ध्यान केंद्रित कर रही है। मकसद यह है कि अर्थव्यवस्था को ढांचागत क्षेत्र की वृद्घि के जरिए आगे धकेला जाए और यह ऊंची वृद्घि दर की ओर ले जाएगा। पूंजीगत खर्चा, जो 2020-21 के बजट में 4.12 लाख करोड़ रु रखा गया था, 2021-22 के बजट में 5.54 लाख करोड़ रु कर दिया गया है। इसके साथ ही निजी वित्त को वृद्घि का औजार बनाए जाने के कदम उठाए जा रहे हैं, जिसे बैंकिंग तथा बीमा क्षेत्र में निजी क्षेत्र के प्रवेश के जरिए तथा एक नयी विकास वित्त संस्था शुरू करने के जरिए, ताकतवर बनाया जाना है। और भांति-भांति की रियायतों के जरिए निजी निवेशों को आकर्षित किया जा रहा है। इस सब के योग से बिजली क्षेत्र से लेकर, सडक़ों से बंदरगाहों, हवाई अड्डों व रेल्वे तक, विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक वृद्घि को उत्प्रेरित किया जाएगा।

कोविड नहीं निपटा पर सरकार ने हाथ खींच लिया

इस, प्रकटत: दुतरफा रूपांतरणकारी एजेंडा पर ऐेसे समय पर ध्यान केंद्रित किया गया है, जब वी अक्षर के आकार में आर्थिक बहाली के सारे दावे अपनी जगह हैं, उसके बावजूद कोविड महामारी तथा उसके जवाब में सरकार द्वारा थोपे गए लॉकडाउन से भडक़े संकट से, अब भी हमारा पीछा नहीं छूटा है। इतना ही नहीं, इस दौरान सरकार ने जिन कई-कई उत्पे्ररण पैकेजों की घोषणा की थी, उनमें केंद्र सरकार द्वारा खर्चे में जीडीपी के करीब 1.5 फीसद के बराबर ही अतिरिक्त खर्चे करने का प्रस्ताव था। इन कदमों से खाद्यान्न, मनरेगा के अंतर्गत रोजगार तथा नकदी हस्तांतरणों के रूप में, सिर्फ एक न्यूनतम मदद मुहैया करायी गयी थी और इस संकट की मार झेल रही जनता को, आधे-अधूरे तरीके से ही बचाव मुहैया कराया जा सका था। इसलिए, बजट से यह उम्मीद की जाती थी कि वह सिर्फ उत्तर-कोविड भविष्य को ही नजर में नहीं रखेगा बल्कि इस संकट की जनता को जो भारी कीमत चुकानी पड़ी है, उसकी भरपाई के बहुत हद तक अधूरे पड़े रह गए काम को पूरा करने पर भी ध्यान देगा।

इस लिहाज से यह बजट निराश करने वाला है। महामारी से निपटने के मामले में यह एक ही काम करने का वादा करता है और यह है, महामारी पर अंकुश लगाने के लिए टीकाकरण के लिए, 35,000 करोड़ रु का प्रावधान। यह राशि राज्यों को दी जाएगी ताकि अपनी आबादी का टीकाकरण करने के उनके खर्चे की आंशिक रूप से भरपाई की जा सके और उम्मीद की जा रही है कि इसके बल पर, इस महामारी के खिलाफ झुंड प्रतिरोधकता हासिल कर ली जाएगा। जहां तक बाकी की जरूरतों का सवाल है, यह बजट तो ऐसा अभिनय करता है कि लड़ाई तो पहले ही जीती जा चुकी है। वास्तव में, महामारी तथा उसके सरकार के प्रत्युत्तर के चलते पैदा हुए सामाजिक व आर्थिक संकट से पिसकर रह गए समाज के कमजोर तबकों को जो थोड़ी-बहुत मदद मुहैया भी करायी गयी थी, उसमें भी इस बजट में भारी कटौती कर दी गयी है।

घातक कटौतियां

मिसाल के तौर पर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम (मगनरेगा) को लिया जा सकता है। इसके तहत, 2020-21 में 1,11,500 करोड़ रु के खर्च का (संशोधित) अनुमान है, जबकि बजट में 61,500 करोड़ रु0 की राशि ही रखी गयी थी और 2019-20 में इस मद में वास्तविक खर्चा 71,687 करोड़ रु का रहा था। अपनी आजीविका से हाथ धो बैठे मजदूरों ने, जिनमें ग्रामीण इलाकों में लौटे प्रवासी मजदूर भी शामिल हैं, मगनरेगा की ही शरण ली है और इसके चलते ही, इस मांग-संचालित योजना के लिए आवंटन में तेजी से बढ़ोतरी हुई थी। जाहिर है कि यह तो किसी भी तरह से नहीं कहा जा सकता है कि हालात सामान्य हो चुके हैं। इसके बावजूद, 2021-22 के बजट में मगनरेगा के लिए आवंटन सिर्फ 73,000 करोड़ रु रखा गया है।

ऐसी ही तस्वीर, खाद्य सब्सीडियों के मामले में देखने को मिलती है। संशोधित अनुमानों के अनुसार खाद्य सब्सीडी, 2020-21 में बढक़र, 4,22,618 करोड़ हो गयी थी, जबकि बजट में इसके 1,15,570 करोड़ रु रहने का अनुमान लगाया गया था और 2019-20 में इस मद में वास्तविक आवंटन, 1,08,688 करोड़ रु का ही था। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (एनएफएसए) के दायरे में आने वाले परिवारों के लिए 5 किलोग्राम मुफ्त अनाज मुहैया कराने के फैसले से, इस मद में खर्च में भारी बढ़ोतरी हुई थी। अब यह तो कोई भी नहीं कह सकता है कि आने वाले वर्ष में, जब बहाली से बहुत सारे लोग अछूते ही रह जाने वाले हैं, मुफ्त या कम कीमत पर खाद्यान्न के वितरण पर आधारित, एक मजबूत खाद्य सुरक्षा प्रबंध की जरूरत नहीं होगी। इसके बावजूद, 2021-22 में खाद्य सब्सीडी के लिए बजट आवंटन, 2020-21 में वास्तव में जितना खर्च किया गया था, उससे आधे से थोड़ा सा ही ऊपर रह गया है। इस पैसे के एक हिस्से का इस्तेमाल, भारतीय खाद्य निगम तथा अन्य एजेंसियों के बकाया को चुकाने में भी चला जाएगा। इस तरह, जहां 2020-21 में सरकार के पास, महामारी तथा लॉकडान के मारों के लिए, यह मदद मुहैया कराने के सिवा कोई रास्ता ही नहीं था, चाहे बहुतों से लिए यह मदद सीमित ही रही हो, सरकार अब आर्थिक संकट के पीछे छूट चुके होने के अपने दावे का ही सहारा लेकर, इस मदद से हाथ ही खींच रही है।

स्वास्थ्य पर खर्च में बढ़ोतरी की अजीब दास्तान

इन सचाइयों की रौशनी में रखकर देखने पर, इस बजट की स्वास्थ्य तथा पूंजीगत खर्चे के रूपांतरणकारी एजेंडा की हवाबाजी, सबसे पहले तो इसी की तिकड़म लगती है कि इस संकट से बुरी तरह पिसते गरीबों को सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने में सरकार के हस्तक्षेप की अपर्याप्तता की ओर से ध्यान हटाया जाए। इस निष्कर्ष की पुष्टि तब हो जाती है जब हम उक्त घोषित एजेंडा की ठोस अंतर्वस्तु की नजदीक से जांच करते हैं, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि यह भारत को एक नये विकास पथ पर ले जाने वाला है। स्वास्थ्य पर खर्चे में 137 फीसद की बहुत भारी बढ़ोतरी का दिखावा करने के लिए, वित्त मंत्री ने इसके खर्चे के साथ 35,000 करोड़ रु की उस रकम को तो जोड़ा ही है जो सिर्फ आंशिक रूप से ही टीकाकरण के अपरिहार्य खर्च की भरपाई करेगी, इसके साथ ही इसमें कई ऐसे कार्यक्रमों पर प्रस्तावित खर्चों को भी जोड़ दिया गया है, जिन्हें गोल-मोल तरीके से ‘‘हैल्थ एंड वैलबीइंग’’ के खाते में डाल दिया गया है।

यह उल्लेखनीय है कि ‘‘हैल्थ एंड वैलबीइंग’’ के बजट में जो भारी बढ़ोतरी दिखाई गयी है, वह स्वास्थ्य व परिवार कल्याण विभाग (डीओएचएफडब्ल्यू) के वास्तविक आवंटनों में दिखाई नहीं देती है, जबकि स्वास्थ्य के क्षेत्र में किसी भी पहल के केंद्र में यही विभाग होगा। महामारी की गंभीरता का एहसास होने से पहले, 2020 के बजट में स्वास्थ्य विभाग के लिए 65,000 करोड़ रु का आवंटन रखा गया था। इसकी तुलना में, 2021 के बजट में इस विभाग के लिए आवंटन में सिर्फ 9.6 फीसद की साधारण सी बढ़ोतरी दिखाई देती है। इतना ही नहीं, 2020-21 में स्वास्थ्य विभाग के खर्च का संशोधित अनुमान 78,866 करोड़ रु रहा था और इसकी तुलना में 2021-22 का बजट आवंटन, वास्तव में 9.6 फीसद की कटौती को ही दिखाता है।

इतना ही नहीं, वित्त मंत्री ने ‘‘हैल्थ एंड वैलबीइंग’’ की मद में, 2021-22 के लिए जो आवंटन रखा है, उसमें जल तथा सेनिटेशन और स्वास्थ्य की मदों में, वित्त आयोग द्वारा तय किया गया 49,214 करोड़ रु का आवंटन भी शामिल है, जिसे न तो केंद्र के विवेक के आधीन आवंटन माना जा सकता है और न ही केंद्र की ओर से बढ़ाया गया आवंटन माना जा सकता है। लेकिन, और भी अचरज की बात यह है कि ‘‘हैल्थ एंड वैलबीइंग’’ के लिए आवंटन में से करीब 50,000 करोड़ रु जल जीवन मिशन पर खर्च के लिए हैं, जिसका लक्ष्य ग्रामीण और शहरी इलाकों, दोनों में ही घर-घर नल से पीने का सुरक्षित तथा पर्याप्त पानी मुहैया कराना है। माना कि पीने के सुरक्षित पानी के प्रावधान से, अच्छे स्वास्थ्य व खुशहाली की स्थिति में सुधार होता है, फिर भी इसे स्वास्थ्य पर होने वाले मूल खर्चे में नहीं जोड़ा जा सकता है। याद रहे कि ‘‘हैल्थ एंड वैलबीइंग’’ के बजट के इसी घटक में सबसे भारी बढ़ोतरी हुई है और 2020-21 के संशोधित अनुमान के 10,905.50 करोड़ रु से बढ़ाकर, 2021-22 के बजट में इसे 47,757.75 लाख करोड़ रु कर दिया गया है यानी 450 फीसद से भी ज्यादा। इस सारे खर्च की भरपाई, केंद्रीय सडक़ तथा बुनियादी ढ़ांचा फंड से हस्तांतरण के जरिए की जाएगी। इस फंड का मूल नाम, सेंट्रल रोड फंड था, जिसकी राशियां सडक़ तथा राजमार्गों के विस्तार में खर्च की जानी थीं और इस फंड में संसाधन, इसी काम के लिए लगाए गए विशेष सैस से आते थे। लेकिन, 2018 में इसका नाम बदल दिया गया और इसका उपयोग सामाजिक बुनियादी ढांचे के लिए वित्त जुटाने के लिए हो रहा है, जबकि सडक़ों व राजमार्गों जैसे क्षेत्रों में निवेश की भरपाई बढ़ते पैमाने पर, निजी वित्त से होने जा रही है।

देसी-विदेशी दौलतमंदों के लिए ही है ये बजट

परंपरागत बुनियादी ढांचात्मक क्षेत्रों को निजी निवेशकर्ताओं को सौंपने की यह कोशिश, इस सरकार के रूपांतरणकारी एजेंडा के दूसरे पहलू की रीढ़ है। बजट में पूंजी व्यय के लिए जो आवंटन रखे गए हैं, किसी भी तरह से उस बुनियादी ढांचागत धक्के को अमल में लाने के लिए काफी नहीं होंगे, जो भले ही गोलमोल तरीके परिभाषित हो, महत्वाकांक्षी जरूर है। इसलिए, बजट में ऐसी प्रक्रिया का एलान किया गया है, जिसमें सरकार द्वारा दी जाने वाली सहायता के साथ, ढांचागत क्षेत्र में निजी निवेशों को आकर्षित करने को, बैंकिंग व बीमा के क्षेत्रों में निजी वित्तीय खिलाडिय़ों को लाए जाने को, जो ‘नवोन्मेषी’ वित्तीय रणनीतियां लागू करेंगे, जोड़ा जाएगा। इस तरह, सरकार द्वारा मुहैया कराए जाने वाले सीड मनी से, एक व्यापार-अनुकूल विकास वित्त संस्था को खड़ा किया जाएगा। इस ढांचागत जोर के लिए खुद सरकार द्वारा लगाया जाने वाला पैसा, उसकी मौजूदा परिसंपत्तियों को बेचकर जुटाया जाएगा। यह पैसा दो स्रोतों से आएगा--सार्वजनिक क्षेत्र की हिस्सा पूंजी की बिक्री और सार्वजनिक परिसंपत्तियों का मौद्रीकरण या उनकी बिक्री। सन 2021-22 के बजट में विनिवेश से प्राप्तियां 1,75,000 करोड़ रु रखी गयी हैं और सार्वजनिक क्षेत्र की कुछ बेहतरीन फर्मों तथा वित्तीय संस्थाओं को बिक्री के लिए बाजार में रखा जा रहा है। यहां तीन तत्व काम कर रहे हैं: हिस्सा पूंजी की बिक्री, रणनीतिक बिक्री और सार्वजनिक वित्तीय क्षेत्र का निजीकरण। वित्त मंत्री ने दो सार्वजनिक क्षेत्र बैंकों तथा एक आम बीमा कंपनी के निजीकरण / विनिवेश और एलआइसी का आइपीओ निकालने का, खासतौर पर जिक्र किया है। इस तरह के कदमों के साथ, सार्वजनिक क्षेत्र की एजेंसियों की ‘परिसंपत्तियों के मौद्रीकरण’ या उनकी बिक्री, खासतौर पर उनके हाथों में मौजूद जमीनों की बिक्री को और जोड़ दिया गया है और पूंजी खर्चों के लिए साधन जुटाने के लिए इसी सब पर भरोसा किया गया है, न कि कराधान से संसाधन जुटाने का।

2020-21 के बजट में 2,10,000 करोड़ रु की जो महत्वाकांक्षी विनिवेश योजना रखी गयी थी, उसके लगभग पूरी तरह से विफल होने को देखते हुए, यह स्पष्ट नहीं है कि सार्वजनिक उत्पादक परिसंपत्तियों को बेचने का यह उद्यम कितना सफल होगा। अगर, शेयर बाजार का सट्टाबाजाराना बुखार उतर गया, तब तो इसका कामयाब होना और भी मुश्किल हो जाएगा। फिर भी, जहां तक भी यह मंसूबा कामयाब होता है, इसका असली फायदा कोई साधारण भारतीयों को नहीं मिलेगा, जो अर्थव्यवस्था के उत्तर-कोविड नये उठान की उम्मीद लगाए हुए हैं बल्कि इसका फायदा मुट्ठीभर उद्योगपतियों और चहते विदेशी निवेशकर्ताओं को ही मिलेगा। यह बजट तो उनके ही लिए है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें

Union Budget: Hype in the Time of Pandemic Crisis

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