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विवाह बचाने से बड़ा है व्यक्ति का मूल अधिकार

महिलाओं के संवैधानिक अधिकार के निर्धारण में उन सामाजिक मूल्यों और कानूनी मान्यताओं को बाहर निकालना जरूरी है जो अभी तक महिलाओं के अस्तित्व की आजादी में बंधन की तरह काम करते आ रहे हैं।
सांकेतिक तस्वीर

भारतीय  संविधान की खूबसूरती यह है कि यह मैं, आप  और हम जैसी संभावनाओं को शामिल करता है और समय और समाज  की परिपक्वता के हिसाब से न्यायलय को न्यायिक संवेदनशीलता के तहत  व्याख्या करने की सहूलियत देता है। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने 158 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को असंवैधानिक बताते हुए रद्द कर दिया। यह धारा व्यभिचार को अपराध करार देती है यानी कि विवाहित औरत द्वारा अपने पति के अलावा  किसी और मर्द के साथ यौन सम्बन्ध बनाना गैरकानूनी है। लेकिन इसके लिए सजा की भुक्तभोगी विवाहित औरत न होकर वह मर्द होगा जिसके साथ औरत ने व्याभिचार का संबंध स्थापित किया है। यह धारा विवाह के उस सदियों पुराने सिद्धांत पर आधारित है जिसके तहत विवाह के सम्बन्ध में मर्द औरत की मर्जी का मालिक हो जाता है और केवल मर्द को मिलने वाली सजा   इस सामाजिक  मान्यता पर आधारित है, जिसके तहत मर्द को औरतों के इर्द गिर्द घूमते रहने  वाला समझा जाता है। पीठ ने कहा कि यह महिला को गरिमा के अधिकार का उल्लंघन करती है जिसके परिणामस्वरूप संविधान के अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होता है।

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा की संविधान पीठ ने ये फैसला सुनाया।

मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने जस्टिस एएम खानविलकर के साथ मुख्य फैसला सुनाते हुए कहा कि ''एक सभ्य समज के लिए व्यक्ति की गरिमा एक पवित्र सीमा का निर्धारण करती है। एक सभ्यता उस समय सम्मान हासिल करती है जब वह महिलाओं के व्यक्तिगत दायरों का सम्मान करने लगती है। इसका मतलब यह हुआ कि जब महिलाओं को समाज में बराबरी के भावना के साथ देखना शुरू कर दिया जाता है। एक औरत से यह नहीं कहा जा सकता है कि वह वैसे ही अपने लिए सोचे जिस तरह से समाज या मर्द उसके लिए सोचता है। इस तरह की सोच से एक औरत की मूल पहचान की हत्या होती है। इसलिए अब यह समय आ गया है कि कहा जाए कि विवाह सम्बन्ध में मर्द, औरत का मास्टर यानी मालिक नहीं होता है। विवाह संबंधों में भी बराबरी की भावना ही संबंधों पर हुकूमत करेगी। अब विवाह संबधों से जुड़ी सारी पुरानी मान्यताओं और अवधारणाओं की तिलांजलि दे देनी चाहिए। एक वक़्त में जो कानून और नियम जरूरी  हो सकते हैं वही नियम और कानून वक्त के दूसरे दौर में गैरजरूरी भी हो सकते हैं। एक लिंग की किसी दूसरे लिंग पर संप्रभुता गलत है। धारा 497 साफ तौर पर मनमानी है। 

मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि व्यभिचार के इस कानून की वजह से त्रिपक्षीय भुलभुलैया बनती थी। जिसमें संविधान की भावना के अनुसार नहीं बल्कि चली आ रही मान्यताओं के अनुसार किसी को दोषी और पीड़ित की श्रेणी में रखा जाता था। लिंग के आधार पर किया जाने वाला भेदभाव संविधान के अनुच्छेद  14 का उल्लंघन था। अब एक ऐसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है जिसके मूल में बराबरी की भावना काम करती हो।"

इस कानून की वजह से निजता पर हमला होता था। और किसी की  निजता को उजागर कर इसे  अपराध की अवधारणा में शामिल करना कहीं से भी उचित नहीं है। इसलिए इस कानून के पीछे अपराध की अवधारणा नहीं बल्कि सामाजिक नैतिक दबाव की भूमिका होती थी। जब  विवाह के पक्षकार  विवाह से जुड़ी अपनी नैतिक प्रतिबद्धता खो देते हैं तो इसका मतलब यह नहीं हुआ कि वह कानून के नजर में अपराधी हैं। यह उनकी व्यक्तिगत नैतिकता से जुड़ा मसला है यानी कि  यह पक्षकारों पर निर्भर करता है कि वह ऐसी स्थिति से कैसे निपटें। वह चाहें तो साथ-साथ रह सकते हैं और चाहें तो तलाक लेकर अलग हो सकते हैं। यह पूरी तरह से किसी की निजता से जुड़ा मसला है। जिसे सामाजिक नैतिक संदर्भों की वजह से आज तक अपराध माना जा रहा था।

मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि अगर व्यभिचार के तहत किसी को अपराधी बनाया जा रहा है तो इसका यह मतलब है कि उसे सजा दी जा रही है जो विवाह के भीतर नाखुश है।  इसलिए धारा 497 असंवैधानिक है और इसे व्यभिचार भी नहीं मानना चाहिए।

न्यायाधीश नरीमन ने कहा व्यभिचार कानून के तहत किसी को सजा अभी तक इसलिए दी जाती थी क्योंकि वह किसी मर्द की संपति यानी कि औरत के साथ छेड़छाड़ करता था। तकरीबन हर तरह के पुरातन समाजों में इसके लिए सजा दी जाती थी। अब वह पुरातन समय पूरी तरह से बीत चुका है। अब उस समय के तर्क लागू नहीं हो सकते हैं। अब धारा 497 की संविधान के जरिए दी गए संवैधानिक गारंटी में हस्तक्षेप करता है। इसलिए इस कानून को खारिज किया जाता है। हो सकता है कि बहुमत इस कानून को खारिज करने के खिलाफ राय रखता हो लेकिन तीन तलाक के मसले पर भी ऐसा ही हुआ था, जो सही था उसके तहत फैसला लिया गया था और इसके पक्षधर अल्पमत में थे। यह भी कहना गलत है कि व्यभिचार कानून का उद्देश्य विवाह के स्थायित्व को बचाना था क्योंकि अगर विवाह में दरार आ गई है और दो लोग पूरी तरह से सामाजिक नैतिक दबाव में एक दूसरे के साथ रह रहें हैं तो यह उनके निजता के अधिकार प्रताड़ित करना कहा जाएगा।

न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि हमारा संविधान अधिकारों की जमापूंजी और बहुत सारी आज़ादी या स्वतंत्रताओं का उत्सव है। औरतों के अस्तित्व पर अब तक सामाजिक मूल्यों और सामाजिक संस्थानों का कब्जा रहा है।  इसलिए महिलाओं के संवैधानिक अधिकार के निर्धारण में उन सामाजिक मूल्यों और कानूनी मान्यताओं को बाहर निकालना जरूरी है जो अभी तक महिलाओं के अस्तित्व की आजादी में बंधन की तरह काम करते आ रहे हैं। इस तरह से धारा 497 किसी औरत के सम्मान के खिलाफ है। आज़ादी  मानव अस्तित्व का हिस्सा है। धारा 497 ने औरत के चुनने के अधिकार को समाप्त करने का काम किया है। औरत को इस कानून में संपत्ति की तरह माना गया है।

न्यायाधीश इंदु मल्होत्रा का फैसला है कि ऐतिहासिक मान्यताओं के तहत विवाह जैसी संस्थाओं में व्यभिचार जैसे शब्दों की उपज होती है। यह शब्द एक तरह के भ्रष्टाचार की तरफ इशारा करता है जिसकी उपज इस मान्यता से होती है कि औरत के ऊपर मर्द का राज होता है और विवाह के बाद एक औरत मर्द के खिलाफ जाकर व्यवहार नहीं कर सकती है। इसलिए धारा 497 किसी व्यक्ति के मिले मौलिक  अधिकार का उल्लंघन करती है और यह असंवैधानिक है ।

इस तरह से इस पूरे फैसले को एक वाक्य में समझना हो तो यह कहा जा सकता है कि हम सभ्यता के ऐसे दौर में पहुंच चुके हैं जहां विवाह बचाने से ज्यादा जरूरी है कि व्यक्ति के मूलाधिकारों को बचाया जाए ।

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