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व्यापम और आसाराम प्रकरणों में मौतों के अंतर्सम्बन्ध

किसी राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दल का दायित्व होता है कि वह प्रत्येक राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय घटना पर अपने दल की नीतियों के अनुसार अपना रुख स्पष्ट करे। उसके ऐसा न करने के पीछे यह समझना कठिन नहीं होता कि वह दल उस विषय पर अपनी राय को साफ साफ नहीं बतलाना चाहता और इस तरह एक ओर तो अपने समर्थकों को असमंजस में छोड़ता है और दूसरी ओर अपने अवसरवादी रुख से समाज को धोखा देना चाहता है। भारतीय जनता पार्टी इस या उस बहाने से अनेक मामलों में ऐसा ही रुख अपनाती है। जो पार्टी अक्सर ‘जाँच जारी है’ या ‘मामला न्यायालय में है’ कह कर अपना दामन बचा जाती है उसी पार्टी के गृहमंत्री समेत लगभग प्रत्येक बड़े नेता ने व्यापम की सीबीआई जाँच शुरू होते ही मध्य प्रदेश सरकार के मुख्य मंत्री को निर्दोष बताना शुरू कर दिया। क्या गृहमंत्री, जिनके कार्यक्षेत्र में सीबीआई काम करती है, के इस बयान से सीबीआई के जाँच अधिकारियों की जाँच प्रभावित नहीं हो सकती है?
                                                                                                                          
 
इसी दौरान, जब इस कांड में हुयी एक मौत की जाँच करने वाले राष्ट्रीय चैनल से जुड़े एक पत्रकार की असमय और अस्वाभाविक मृत्यु हो गयी तब व्यापम घोटाले की जाँच का जिम्मा सीबीआई को सौंपा गया था, और तब ही एक और बड़ी घटना घटी। वह घटना बाबा भेष में रहने वाले आसाराम और उसके बेटे से जुड़े बलात्कार प्रकरण से सम्बन्धित नौवें गवाह पर हमला होने और इन हमलों में तीसरी मौत होने की थी। इस हत्या ने पूरे देश को हिला दिया तथा भारी पूंजी एकत्रित करने वाली धार्मिक संस्थाओं और न्याय के उपकरणों पर गम्भीर सवाल खड़े किये। इस दौरान इन हमलों और हत्याकांडों पर जाँच की शिथिलता के कारण और जाँच और न्याय व्यवस्था पर पड़ने वाले धन के दबाव भी चर्चा में रहे। प्रत्येक न्यायप्रिय व्यक्ति ने इन हमलों पर दुख व्यक्त किया और लगातार जाँच के निष्कर्षहीन रहने की निन्दा की। यह विचारणीय है कि इस मामले में भी भाजपा से जुड़े नेताओं के स्पष्ट विचार सामने नहीं आये व मुखर से मुखर प्रवक्ता दाँएं बाएं करते दिखे। क्या केन्द्र में सत्तारूढ राजनीतिक दल ऐसी महत्वपूर्ण घटनाओं पर अस्पष्ट और उदासीन हो सकता है? 
 
पिछले दशकोंक का इतिहास बताता है कि भाजपा हिन्दू समाज से जुड़े प्रत्येक पंथ के संस्थानों का तुष्टीकरण करने के चक्कर में अनेक धार्मिक संस्थाओं के अन्धविश्वासो. उनके अनेक आश्रमों में पल रहे अनाचार, भ्रष्टाचार, और आर्थिक सामाजिक अपराधों के खिलाफ मुँह नहीं खोलना चाहती। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि वह इन्हीं संस्थानों से मिले समर्थन से चुनावी लाभ पाती रही है भले वे समाज के लिए कितने भी गैरकानूनी और घातक कार्यों में लिप्त हों। आसाराम प्रकरण भी उनमें से ही एक है। आसाराम के ऊपर न केवल गम्भीर आरोपों पर प्रकरण दर्ज हैं अपितु उनका पूरा इतिहास ही तरह तरह के रहस्यों से भरा हुआ है। उन पर धर्म के नाम पर भूमि व भवनों पर अवैध कब्जों से लेकर सरकारी व सेना की जमीनों पर भी अतिक्रमण के आरोप लगे हैं। कुछ ही वर्षों में उनकी दौलत में अकूत वृद्धि हुयी है। भाजपा के अधिकांश प्रमुख नेता उनके आश्रम में जाते रहे हैं व उनके चरण स्पर्श से लेकर गले लगने तक के फोटो सूचना माध्यमों में भरे पड़े हैं। उल्लेखनीय है कि जब दक्षिण के एक शंकराचार्य पर लगे गम्भीर आरोपों पर उन्हें कानून के अनुसार गिरफ्तार करने की नौबत आयी थी तो गिरफ्तारी के विरोध में भाजपा नेताओं ने दिल्ली में धरना देने का कार्यक्रम बनाया था। उन दिनों भाजपा हाल ही में केन्द्र से अपदस्थ हुयी थी व उनके धरने में बहुत कम लोग जुटे थे, तब आसाराम ने संख्या बड़ाने के लिए अपने सैकड़ों अनुयायियों को भेज कर भाजपा का सम्मान बचाया था। यही कारण था कि आसाराम ने तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को कभी अधिक महत्व नहीं दिया था व अतिक्रमण विरोधी अभियान में उनके अहमदाबाद स्थित आश्रम का कुछ भूभाग आ जाने पर उनके प्रति असम्मानजनक शब्दों का प्रयोग किया था। इसका परिणाम यह हुआ था कि गुजरात में आसाराम के पुत्र नारायण स्वामी के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट निकल गया था। स्मरणीय है कि उस दौरान नारायण स्वामी को शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने मध्य प्रदेश में शरण दी थी और जब वे भाग कर इन्दौर पहुँचे थे तो कैलाश विजयवर्गीय ने शिवराज से उनकी एक घंटे गुप्त वार्ता करवायी थी। पिछले दिनों जब बलात्कार के आरोप में आसाराम की गिरफ्तारी के लिए राजस्थान की पुलिस उनके पीछे आयी थी तो भी उन्होंने मध्य प्रदेश के भोपाल व इन्दौर में ही शरण ली थी और उन्हें इन्दौर से ही गिरफ्तार किया गया था। उल्लेखनीय यह भी है इतने गम्भीर और शर्मनाक आरोप में उनकी गिरफ्तारी होने पर मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ भाजपा के सारे प्रमुख नेता उनके पक्ष में उतर आये थे जिनमें कैलाश विजयवर्गीय, उमाभारती व छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री रमन सिंह व तत्कालीन गृहमंत्री ननकी राम आदि भी थे। संयोग से इसी दौरान नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित किया जा रहा था और उनके निर्देश पर समस्त समर्थकों ने चुप्पी ओढ ली थी।
अभी हाल ही में भाजपा नेताओं के आर्थिक भ्रष्टाचरण के चर्चित होने के समानांतर उनका झुकाव फिरसे आसाराम की ओर हो रहा है और उसके एक वरिष्ठ नेता सुब्रम्यम स्वामी  आसाराम की जमानत कराने के लिए वकालत करने पहुँच गये हैं। आसाराम के प्रमुख पक्षधर कैलाश विजयवर्गीय को भाजपा का राष्ट्रीय महासचिव मनोनीत किया गया है। वैसे भी भाजपा नेता आतंक से लेकर हत्या के आरोपों से घिरे भगवा भेष धारियों की पक्षधरता में कभी पीछे नहीं रही है।
 
उल्लेखनीय है कि धार्मिक संस्थानों और राजनीतिक दलों दोनों के आर्थिक स्त्रोत पारदर्शी नहीं हैं न ही उनके व्यय ही पारदर्शी होते हैं। नेताओं पर करोड़ों रुपयों के लेन देन के आरोप लगते रहे हैं और बाबाओं के आश्रमों में करोड़ों के खजाने मिलते रहे हैं। सवाल है कि क्या इनके बीच में कुछ धन का आदान प्रदान होता रहता है? जब भी धार्मिक आश्रमों के खजानों की जानकारी सार्वजनिक होती है तो उनके यहाँ सोने चाँदी के साथ ढेर सारी नगदी भी मिलती है। सवाल यह उठता है कि इन आश्रमों में इतनी नगदी क्यों और कैसे एकत्रित रहती है? यदि उनका धन अवैध नहीं है तो उस राशि को बैंकों में जमा कर ब्याज पाने के साथ साथ सुरक्षा भी क्यों नहीं करते?  
 
वैसे तो न्यायपालिका स्वतंत्र है किंतु न्याय गवाहों सबूतों और सरकारी वकील द्वारा प्रकरणों के प्रस्तुतीकरण पर निर्भर करता है। कहने की जरूरत नहीं कि अगर गवाहों की हत्याएं हो रही हों और अपराधियों को खोजने में पुलिस सफल नहीं हो पा रही हो तथा जाँच अधिकरण व सरकारी वकीलों को राज्य सरकार की कृपा की अपेक्षाएं हों तो निष्पक्ष व स्वतंत्र न्यायपालिका भी न्याय कैसे दे पायेगी। उजैन में प्रो. सबरवाल का प्रकरण अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है।
 
क्या राजनीतिक दलों, उसके नेताओं और कथित धार्मिक संस्थाओं के बीच धन सम्पत्ति के लेन देन पर कोई जाँच प्रकाश डाल सकेगी? 
 
डिस्क्लेमर:- उपर्युक्त लेख में वक्त किए गए विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं, और आवश्यक तौर पर न्यूज़क्लिक के विचारों को नहीं दर्शाते ।
 
 

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