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हमें धन के वितरण और उसके लोकतंत्रीकरण की ज़रूरत क्यों है?

अमेरिकी पूंजीवादी मॉडल ख़ुदगर्ज़ी और विद्वेष को पोषित करता है
wealth redistribution

अपने संपूर्ण इतिहास में पूंजीवाद जहां कहीं भी आया और प्रमुख आर्थिक व्यवस्था के तौर पर स्थापित हो गया, वहां-वहां इसने धन के पुनर्वितरण को लेकर संघर्षों को ही भड़काया। दूसरे शब्दों में कहा जाये, तो यह प्रणाली हमेशा एक विशेष तरीक़े से धन का वितरण करती है और इस तरह, उस ख़ास तरीक़े के वितरण से असंतोष पैदा करती है। जो लोग असंतुष्ट हैं, वे लोग धन के इस पुनर्वितरण के लिए शांतिपूर्वक या हिंसक रूप से कम या ज़्यादा, पूरी चेतना या बिना चेतना के संघर्ष करते हैं। यह संघर्ष सामाजिक रूप से विभाजनकारी होते हैं और कभी-कभी तो गृहयुद्ध के स्तर तक चले जाते हैं।

फ़्रांसीसी क्रांति दरअस्ल फ़्रांसीसी सामंतवाद के अंत और उसके पूंजीवाद में बदल जाने का विभाजान बिन्दु रही थी। क्रांतिकारियों ने जो नारे थे, उनमें यह वादा निहित था कि इस संक्रमण के साथ "स्वतंत्रता,  समानता,  बंधुत्व" आयेगा। दूसरे शब्दों में समानता को पूंजीवाद की स्थापना के लिए एक अहम पूरक या उत्पाद होना था, आख़िरकार सामंतवाद के उत्पादन वाले लॉर्ड-सर्फ़ संगठन की जगह पूंजीवाद की बहुत अलग नियोक्ता-कर्मचारी प्रणाली को जगह लेनी थी।

यह उम्मीद की गयी थी कि पूंजीवाद की तरफ़ जाता यह संक्रमण फ़्रांसीसी सामंतवाद की घोर असमानताओं को मिटा देगा। इसी तरह,  अमेरिकी क्रांति ने सिर्फ़ अपने ब्रिटिश औपनिवेशिक स्वामी ही नहीं, बल्कि जॉर्ज III की सामंती राजशाही से भी ख़ुद को अलग किया। "सभी लोगों को समान बनाया गया है", यह वाक्य पूंजीवाद के साथ समानता को लेकर उसकी गहन प्रतिबद्धता का एक केंद्रीय विषय था।

फ़्रांस,  संयुक्त राज्य अमेरिका और उनसे कहीं आगे जाकर पूंजीवाद ने अपनी उपलब्धि या कम से कम सामान्य रूप से समानता के लक्ष्य के सिलसिले में ख़ुद के  औचित्य को सही ठहराया। इस समानता में कम से कम सैद्धांतिक और मौखिक तौर पर ही सही, धन और आय का वितरण शामिल तो था। लेकिन, शुरू से ही सभी पूंजीवाद अपने वास्तविक व्यवहारों में बराबरी और ग़ैर-बराबरी को लेकर दिखावटी प्रेम के बीच के अंतर्विरोधों से जूझते रहे।

एडम स्मिथ कुछ हाथों में "स्टॉक के संचय" (धन या "पूंजी") को लेकर तो चिंतित थे, लेकिन उन्हें बाक़ियों को लेकर चिंता नहीं थी। थॉमस जैफ़र्सन और अलेक्ज़ेंडर हैमिल्टन के पास एक स्वतंत्र संयुक्त राज्य के भविष्य को लेकर इस लिहाज़ से अलग-अलग नज़रिया थे कि क्या यह धन समानता को सुरक्षित रख पायेगा या नहीं, जिसे बाद में "जैफ़र्सियन लोकतंत्र" क़रार दिया गया।

संयुक्त राज्य अमेरिका में समानता को लेकर सैद्धांतिक और मौखिक प्रतिबद्धताओं और ग़ुलामी की वास्तविकताओं और इसके बाद व्यवस्थागत नस्लवादी असमानताओं के बीच एक अजीब सी विसंगति रही और यह विसंगति हमेशा ही बनी रही। इसी तरह लिंगगत असमानतायें भी समानता के प्रति इन प्रतिबद्धताओं की विडंबना को सामने लाती रहीं। सार्वभौम मताधिकार की महज़ औपचारिक राजनीतिक समानता को हासिल करने में पूंजीवाद को सदियों लग गये।

इस तरह, इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ज़्यादतर दूसरे पूंजीवाद की तरह अमेरिकी पूंजीवाद भी धन की असमानता की वास्तविकता के बीच व्यापक रूप से परेशान करने वाले उस विरोधाभास को सामने लाता है,  जो इसे पैदा करता है और जो अपनी प्रवृत्ति के हिसाब से गहरा होता जाता है (जैसा कि थॉमस पिकेटी ने अपने निष्कर्ष में दिखाया है) और समानता को लेकर इसकी महज़ दिखायी जाने वाली प्रतिबद्धता सामने आती रही है। इस तरह से धन के पुनर्वितरण के प्रयास कमोवेश समान वितरण की ओर बढ़ते हैं।लेकिन, वे उन समाजों को भी चिंताजनक रूप से विभाजित करते हैं जहां पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था प्रचलित है।

धन का पुनर्वितरण उन लोगों से धन लेकर किया जाता है, जिनके पास धन है और जिनके पास धन नहीं है, उन्हें दिया जाता है। जिनके धन का पुनर्वितरण किया जाता है, वे इससे नाराज़ होते हैं या फिर इसका विरोध करते हैं,  जबकि जिन्हें धन के पुनर्वितरण के दौरान धन मिलता है, वे उस धन को पाने को सही ठहराने के लिए तर्क गढ़ते हैं। इस तरह के पुनर्वितरण से जुड़े दोनों पक्ष एक दूसरे को अक्सर बुरा ठहराते हैं। राजनीति आम तौर पर वह मैदान बन जाती है, जहां इस पुनर्वितरण को लेकर एक दूसरे को बुरा ठहराया जाता है और दोनों के बीच संघर्ष होते हैं। पुनर्वितरण के चलते धन से वंचित होने के जोखिम वाले लोगों का लक्ष्य या तो इस पुनर्वितरण का विरोध करना होता है या फिर इससे बचना होता है। अगर विपक्ष दुष्कर या दुसाध्य होता है, तो ऐसे में उनका किसी तरह बच निकलना ही उनकी वैकल्पिक रणनीति होती है।

इस तरह, अगर पूंजीपतियों के मुनाफ़े पर ग़रीबों को धन के इस पुनर्वितरण के लिहाज़ से कर लगाया जाना होता है, तो बड़े व्यवसाय, छोटे या मझोले व्यवसायों के कंधे पर इस कराधान के बोझ को डाल दिये जाने को लेकर राजनीतिक रूप से आगे बढ़ सकते हैं। वैकल्पिक रूप से सभी व्यवसाय इस तरह के पुनर्वितरण के लिए लगाये जाने वाले करों के बोझ को उच्च वेतन वाले कर्मचारियों के पारिश्रमिक और वेतन पर डालने और उन्हें व्यावसायिक लाभ से वंचित करने को लेकर लामबंद हो सकते हैं।

धन के पुनर्वितरण से जिन्हें धन हासिल होता है, उन्हें उन समानांतर राजनीतिक समस्याओं का भी सामना करना होता है, जिन्हें धन इस पुनर्वितरण को अंजाम देने में भूमिका निभानी होती है। सवाल है कि जिन्हें इस पुनर्वितरण से धन हासिल होता है, वे क्या सभी मुनाफ़े पर लगाये जाने वाले कर का समर्थन करेंगे या धन के उस पुनर्वितरण के लिए बड़े-बड़े व्यवसायों पर लगाये जाने वाले कर का समर्थन भी करेंगे, जिसका प्रवाह छोटे या मझोले व्यवसायों की तरफ़ हो ? या फिर क्या यह भी हो सकता है कि कम-वेतन पाने वाले पुनर्वितरण के लिए लगाये जाने वाले कर को लेकर उच्च पारिश्रमिक पाने वाले श्रमिकों को निशाने पर रखे ?

क्षेत्रों, जातियों और लिंगों के बीच धन के सभी तरह के दूसरे पुनर्वितरण, तुलनीय रणनीतिक राजनीतिक विकल्प को प्रदर्शित करते हैं।

इस तरह, पुनर्वितरण को लेकर होने वाले इस तरह के संघर्ष पूंजीवाद का आंतरिक तत्व हैं और हमेशा से रहे हैं। ये संघर्ष ज़रूरी तो हैं, लेकिन सामाजिक विभाजन को भी ये गहरा करते हैं। वे अक्सर हिंसक और सामाजिक रूप से विघटनकारी हो सकते हैं। ये संघर्ष व्यवस्था में बदलाव की मांग को प्रेरित कर सकते हैं। वे क्रांति के उत्प्रेरक के रूप में भी कार्य कर सकते हैं। चूंकि आम तौर पर ग़ुलामी और सामंतवाद जैसी पूर्व-पूंजीवादी आर्थिक व्यवस्था में समानता को लेकर सैद्धांतिक और मौखिक प्रतिबद्धतायें कम थीं, इसलिए उनके सामने पुनर्वितरण को लेकर होने वाले संघर्ष भी कम थे। ये संघर्ष आख़िरकार तब सामने आये, जब असमानतायें, असमानता के उन स्तरों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा चरम पर चली गयीं, जो कि पूंजीवाद में बार-बार पुनर्वितरण के संघर्षों को उकसाते हैं।

पूंजीवाद में धन के पुनर्वितरण पर विभाजनकारी संघर्षों का कोई "समाधान" कभी नहीं मिल पाया। पूंजीवाद गहरी होती धन की असमानताओं की वास्तविकताओं के साथ अपनी आत्मुमग्धता के रूप में समानता को लेकर सैद्धांतिक और मौखिक, दोनों ही तरह से अपील करता रहा है। धन की असमानता के आधार पर पूंजीवाद की आलोचना हर जगह व्यवस्था का पीछा करती है। पूंजीवाद के असमान स्तर पर धन के वितरण को लेकर विभाजनकारी सामाजिक संघर्ष जारी है। एक कामयाब पुनर्वितरण प्रणाली या व्यवस्था की तलाश और उसे लागू करने के अंतहीन प्रयास जारी हैं। हालिया कोशिशों में सार्वभौमिक बुनियादी आय को लेकर विभिन्न तरह के प्रस्ताव शामिल हैं।

पुनर्वितरण पर विभाजनकारी सामाजिक संघर्ष से बचने को लेकर जो समाधान है, उसमें पहली बात तो यही है कि धन का वितरण असमान नहीं हो। धन का असमान वितरण,  पुनर्वितरण के संघर्षों के मक़सद और प्रेरणा, दोनों को ख़त्म कर सकता है और इस तरह, "न्यायोचित" पुनर्वितरण के सूत्र या व्यवस्था की तलाश को लेकर अंतहीन और अब तक निष्फल रहे प्रयास भी बेकार जायेंगे। आगे का रास्ता तो यही है कि उत्पादन से सृजित होने वाले धन के वितरण के फ़ैसले को लोकतांत्रिक बनाया जाये।इसे उद्यम का लोकतंत्रीकरण, कार्यस्थलों को अपने मौजूदा पूंजीवादी संगठनों (यानी,  सार्वजनिक या निजी क्षेत्र में नियोक्ताओं और कर्मचारियों का पदानुक्रमित विभाजन) से श्रमिक सहकारी समितियों में परिवर्तित करके ही पूरा किया जा सकता है। इन समितियों में प्रत्येक कामगार के पास एक मताधिकार होता है,  और सभी बुनियादी कार्यस्थल की समस्याओं पर एक स्वतंत्र और खुली बहस के बाद बहुमत के आधार पर फ़ैसला लिया जाता है। यही वह समय होता है, जब उत्पादन का वितरण क्या होना चाहिए,  इस पर अलग-अलग विचार व्यक्त किये जाते हैं और लोकतांत्रिक तरीक़े से फ़ैसले लिये जाते हैं।

किसी पुनर्वितरण की ज़रूरत नहीं हो, इसकी मजबूरी नहीं हो, या इसके लिए उकसाया नहीं जाये। इसके लिए कार्यस्थल के सदस्य किसी भी समय धन के वितरण की पहल पर फिर से बहस करने और नये सिरे से फ़ैसले लेने के लिए स्वतंत्र होते हैं। यही प्रक्रिया कार्यस्थल से जुड़े उन फ़ैसलों पर भी लागू होगी कि क्या-क्या उत्पादन किया जाये, इसके लिए कौन सी तकनीक अपनायी जाये और उत्पादन किस जगह किया जाये। सभी कामगार सामूहिक और लोकतांत्रिक तरीक़े से यह तय करते हैं कि श्रमिकों का यह समूह व्यक्तिगत तौर पर उनमें से प्रत्येक को कितना वेतन दे। वे यह भी तय करते हैं कि किसी भी उस अधिशेष का निपटान या आवंटन कैसे किया जाये, जो कुल व्यक्तिगत पारिश्रमिक और इस्तेमाल किये गये इनपुट के बाद बची हुई राशि है, जिसे उद्यम सृजित कर सकता है।

एक उदाहरण से इस बुनियादी बात को स्पष्ट किया जा सकता है। अपने जुड़वां बच्चों-मैरी और जॉन-को एक ऐसे पार्क में ले जा रहे माता-पिता की कल्पना कीजिए, जहां एक आइसक्रीम विक्रेता मौजूद हो। माता-पिता दो आइसक्रीम ख़रीदते हैं और दोनों मैरी को दे देते हैं। इससे जॉन दुखी हो जाता है और वह आइसक्रीम के उचित पुनर्वितरण की तलाश में भड़क उठता है। इसके बाद माता-पिता मैरी से एक आइसक्रीम लेकर जॉन को दे देते हैं। इससे बाक़ी दिन आक्रोश, कटुता, ईर्ष्या और ज़बरदस्त क्लेश में गुज़रता है और परिवार के सदस्यों बीच मतभेद पैदा हो जाता है। अगर स्नेह और भावनात्मक समर्थन समान रूप से वितरित और पुनर्वितरित होता है, तो गहरे और विभाजनकारी पीड़ा के अहसास से बचा जा सकता है। इससे जो सबक मिलता है, वह यह है कि हमें "बेहतर" या "यथोचित" पुनर्वितरण की ज़रूरत नहीं, बल्कि सबसे पहले कहीं ज़्यादा बराबरी और लोकतांत्रिक तरीक़े से धन को वितरित करने की ज़रूरत है।

रिचर्ड डी. एमहर्स्ट स्थित वुल्फ़ मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय में अवकाश प्राप्ति के बाद अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं,  न्यूयॉर्क स्थित न्यू स्कूल यूनिवर्सिटी के अंतर्राष्ट्रीय मामलों में स्नातक कार्यक्रम में एक गेस्ट प्रोफ़ेसर हैं।

यह लेख इंडिपेंडेंट मीडिया इंस्टीट्यूट की एक प्रोजेक्ट, इकॉनोमी फ़ॉर ऑल की तरफ़ से तैयार किया गया था।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Why We Need to Distribute and Democratise Wealth

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