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गहराइयां में एक किरदार का मुस्लिम नाम क्यों?

हो सकता है कि इस फ़िल्म का मुख्य पुरुष किरदार का अरबी नाम नये चलन के हिसाब से दिया गया हो। लेकिन, उस किरदार की नकारात्मक भूमिका इस नाम, नामकरण और अलग नाम की सियासत की याद दिला देती है।
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Image Courtesy: The Quint

अपने कथानक में कई ट्विस्ट लिए हुए फ़िल्म गहरायां दर्शकों को अपने आगोश में बनाये रखने की कोशिश करती नज़र आती है। ऐसा ही एक ट्विस्ट इस फ़िल्म के आख़िर में आता है, जिससे दर्शक यह सोचते हुए हैरत में पड़ जाते हैं कि आख़िरकार अलीशा (दीपिका पादुकोण) का अंजाम क्या होगा। हालांकि, जब हम लेखकों की टीम (शकुन बत्रा, फ़िल्म के निर्देशक, आयशा देवित्रे, सुमित रॉय और यश सहाय) की उनकी सरलता के लिए सराहना करते हैं, तो यह फ़िल्म हमें इस सवाल के साथ तो छोड़ जाती है कि उन्होंने एक अहम किरदार का नाम ज़ैन ही क्यों चुना?

यह सवाल इसलिए उठता है, क्योंकि अगर सीधे-सीधे शब्दों में कहा जाये, तो गहराइयां एक ऐसी प्रेम कहानी वाली फ़िल्म है, जो लीग से हटकर है। इस फ़िल्म के चार अहम किरदारों- अलीशा, करण (धैर्य कारवा), टिया (अनन्या पांडे) और ज़ैन (सिद्धांत चतुर्वेदी) का महज़ब से कोई लेना-देना नहीं है। इनके बीच महज़ शारीरिक और भावनात्मक अंतरंगताएं ही हैं। गहराइयां अंतर-धार्मिक सम्बन्धों का ज़िक़्र तक नहीं करती है,वह उसे छूती भी नहीं है।

ऐसे में इस बात से हैरत होती है और समझ से बाहर भी है कि फ़िल्म गहराइयां के लेखकों ने अपने एक किरदार के लिए अरबी नाम क्यों चुना। ज़ैन का मतलब सौंदर्य या लावण्य या अलंकरण होता है। मुमकिन है कि लेखक महानगरीय मध्यम वर्ग के बीच दूसरी संस्कृतियों से नाम उधार लेने वाली उस उभरती हुई प्रवृत्ति को प्रतिबिंबित कर रहे हों, जिसके तहत अक्सर ये लोग अपने बच्चों के नाम अरबी या अफ़्रीकी शब्दों में रख लेते हैं।

ज़ैन को एक ऐसे सौंदर्य के रूप में चित्रित किया गया है, जो इतना दिलकश है कि अपने लचीलेपन को तराशते हुए अलीशा को अभिभूत कर देता है। लेकिन, उसका शारीरिक आकर्षण उसके किरदार के एक स्याह पहलू को छुपा लेता है। मुश्किल यही है कि गहराइयां बारीक़ी के साथ मुसलमानों की रूढ़िवादी छवियों को ही पुष्ट करती नज़र आती है।

हालांकि,ऐसा होने के पीछे लेखकों की मंशा तो नहीं लगती। लेकिन, हिंदी फ़िल्म उद्योग की कहानी कहने की रवायत को देखते हुए यह सवाल तो पैदा होता ही है कि क्या मुस्लिम नाम वाले किरदार की यह ख़ासियत उनके बारे में फैलायी गयी आम धारण से पूरी तरह अलग हो सकती है, भले ही ग़लत तरीक़े से यह धारणा उनके समुदाय के साथ जोड़ दी गयी हों ? आख़िरकार, नाम, नामकरण और नाम बदलने की राजनीति से जूझना तो पड़ता ही है।

आम चलन तो यही है कि अंतर्धार्मिक रोमांस से जुड़ी हिंदी फ़िल्में लड़कियों को मुस्लिम नाम और लड़कों को हिंदू नाम देती हैं। इस परंपरा का पालन इस बात को सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि हिंदू भावनाओं को ठेस न पहुंचे। पद्मावत से उठा तूफ़ान याद है न ? हालांकि,इस चलन के लिहाज़ से केदारनाथ, माई नेम इज़ ख़ान जैसी फ़िल्में और पद्मावत और जोधा अकबर जैसी बायोपिक्स फ़िल्में अपवाद हैं।

इस्लामी आतंकवादियों या दुबई से संचालित डॉन का किरदार निभाने वाले किरदारों के नाम भी मुस्लिम नाम ही रखे जाते हैं। या फिर उन्हें मुस्लिम भूमिका निभाने वाले अभिनेताओं को दे दिया जाता है।वर्ना हिंदी फ़िल्मों के लेखक हिंदू नामों का इस्तेमाल बाक़ी किरदारों के लिए करते हैं।यह बात कुछ मायनों में इसलिए समझ में आती, क्योंकि हिंदू भारत की आबादी का 80 प्रतिशत हैं।

नामकरण की यह राजनीति हमारे रोज़-ब-रोज़ की ज़िंदगी में व्याप्त है। हम किसी शख़्स का नाम सुनते हैं और उसकी धार्मिक पहचान जान जाते हैं। कोई भी नाम असल में किसी भी शख़्स की हमारी शुरुआती बोध को पैदा कर देता है। नाम में निहित सांस्कृतिक प्रवृत्तियों से कोई बच भी नहीं सकता। पहले की तरह अब भी एक हिंदू लड़की और एक मुस्लिम लड़का अपनी पहली डेट पर भी उन सामाजिक जटिलताओं से अच्छी तरह वाकिफ़ होते हैं, जिनसे उनका सामना उनके परिचितों के बीच बनते रिश्ते की स्थिति में होता है।

हिंदुस्तान में इस तरह का नाम मायने रखता है। यही वजह है कि भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज कर दिया है।इस बदले हुए नाम को मीडिया ने बहुत ही जल्द अपना लिया है। इलाहाबाद नाम से मुसलमान होने का संदेश जाता है, जिसे भाजपा हिंदुस्तान से मिटाना चाहती है। स्वयंभू हिंदू रक्षा समूह इस तरह के उन अंतर्धार्मिक जोड़ों की पहचान करते हैं, जो ख़ुद के नाम से विशेष विवाह अधिनियम के तहत शादी करने का विकल्प चुनते हैं, और जब वे शादी के बंधन में बंधने के लिए अदालत आते हैं, तो उन्हें परेशान किया जाता है।

ऐसा लगता है कि गहराइयां के लेखक नामों की इस राजनीति से पूरी तरह बेख़बर हैं। ऐसा नहीं हो सकता कि वे जानबूझकर हिंदी फ़िल्म उद्योग के किरदारों के नामकरण की इस परंपरा को धता बता रहे थे, क्योंकि गहराइयां, आख़िरकार ज़ैन को उन विशेषताओं से लवरेज दिखाती है, जिन्हें आमतौर पर नकारात्मक माना जाता है। इस बात को समझने के लिए ज़रूरी है कि संक्षेप में इस फ़िल्म की कहानी पर ग़ौर फ़रमाया जाये।

यह फ़िल्म ख़ास तौर पर एक योग प्रशिक्षक अलीशा को लेकर है, जो करण के साथ एक ऐसे रिश्ते में फंसी हुई है,जिसका कोई भविष्य नहीं है।करण उपन्यास लेखन के लिए विज्ञापन की नौकरी छोड़ दी है। उसकी नीरस हो चुकी ज़िंदगी में अलीशा की अमीर चचेरी बहन टिया और उसके साथी ज़ैन दाखिल होता है, जो ज़मीन-ज़ायदाद के ख़रीद-फ़रोख़्त करने वाले उद्योग का उभरता हुआ एक शख़्स है। जुनून और प्यार अलीशा और ज़ैन को एक गुपचुप रोमांस में ले जाते हैं।

जब वे अपने रिश्ते को सार्वजनिक करने का फ़ैसला कर लेते हैं,उसी दरम्यान ज़ैन वित्तीय परेशानियों में पड़ जाता है। उसे इस परेशानी से टिया का परिवार ही उबार सकता है। ज़ैन को टिया के साथ तब तक रहना पड़ सकता है,जब तक कि वह आर्थिक झटके से नहीं उबर जाता। लेकिन,यह बात अलीशा को इसलिए मंज़ूर नहीं है कि वह ज़ैन के बच्चे की मां बनने वाली है। अब यह रिश्ता अंधी गली फंसा हुआ दिखता है,जिससे ज़ैन अलीशा को मारने के लिए सोचना लगता है। क्या ज़ैन इसमें कामयाब हो पाता है ? इसके बाद तो फ़िल्म में एक के बाद एक ट्विस्ट आते जाते हैं।

ज़ैन टिया के साथ रिश्ते में होता है, लेकिन अलीशा के साथ अपनी मुलाक़ात के कुछ ही दृश्यों में इश्क़बाज़ी करने लगता है। अलीशा की तरफ़ से भी माक़ूल जवाब मिलता है। अलीशा की बेवफाई को शादी नहीं करने को लेकर उसके जुनून के तर्क से सही ठहराया गया है; यह उसकी ऐसी पसंद थी,जो उसके दर्दनाक बचपन के तजुर्बे से प्रभावित थी। लेकिन,टिया को धोखा देने वाले ज़ैन को लेकर इसी तरह की व्याख्या करने वाले कारण नहीं दिये गये हैं। ज़ैन को लेकर गढ़ी गयी यह छवि हिंदू दक्षिणपंथी रूढ़िवादियों की ओर से मुसलमानों को लेकर बेकाबू कामेच्छा वाली चिर-परिचित छवि से मेल खाता है।

ज़ैन आपका रचनात्मक करण नहीं है, जो कि उपन्यास लिखने के सपने को पंख देता है। उनका जुनून पैसा और एक शानदार जीवन शैली है। यह विवादास्पद है कि क्या अलीशा को लेकर उसके जज़्बात गहरे हैं, क्योंकि अलीशा को तो वह मारने के लिए तैयार हो जाता है। उसकी आत्मा की गहराइयों में अंधेरा ही अंधेरा है।

ज़ैन के किरदार की इस व्याख्या को और मज़बूती तब मिलती है,जब टिया की मां उसे याद दिलाती है: क्या ज़ैन पर वह इतना भरोसा कर सकती है कि वह परिवार की संपत्ति को गिरवी रख कर उसे आर्थिक तंगी से उबार ले ? ज़ैन अमीर इसलिए है, क्योंकि उसे टिया के पिता का ज़बरदस्त संबल हासिल था। इस मामले पर लेखक बार-बार इसे दुरुस्त करने की कोशिश करते हैं। इसके बावजूद, वह मुस्लिम नाम वाला शख़्स नमकहराम हो जाता है, अलीशा के साथ एक रोमांचक रिश्ते में आसानी से फ़िसल जाता है।

सवाल है कि क्या ज़ैन ने कभी टिया से प्यार किया था ? या क्या ज़ैन ने बेहतर करियर बनाने के लिए टिया के परिवार की संपत्ति और नेटवर्क का फायदा उठाने के लिए नक़ली प्यार किया था ? बहरहाल, गहरियां से तो यही लगता है कि अगर मुस्लिम पुरुषों का मक़सद धर्म परिवर्तन नहीं है, तो कम से कम अपने पैसों के लिए हिंदू महिलाओं से प्यार का ढोंग ज़रूर करना है।

इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि इस फ़िल्म के लेखकों ने जानबूझकर मुसलमानों को बदनाम करने के लिए फ़िल्म की पटकथा लिखी है। फिर भी ऐसा ज़रूर लगता है कि उन्होंने हिंदुत्व की विचारधारा में इतनी गहराई से प्रवेश किया है,ताकि एक मुस्लिम नाम के साथ गढ़ा गया एक किरदार का चित्रण हिंदुत्व के विचारकों को नाराज़ नहीं कर पाये।

अब ज़रा गहराइयां के अलीशा और ज़ैन के बचपन के तजुर्बे के चरित्र-चित्रण की तुलना करें। अलीशा सोचती है कि उसकी मां ने उस शादी से बचने के लिए ख़ुद को फांसी लगा ली थी,जिसमें प्यार का कोई रस नहीं था। इसके लिए वह अपने पिता को दोषी ठहराती है। लेकिन, जैसे-जैसे गहराइयां आगे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे हमें पता चलता है कि अलीशा की मां अपनी नाकाम शादी के लिए ख़ुद ही ज़िम्मेदार थीं। यह ट्विस्ट उस रूढ़िवादिता को सामने ले आता है,जिसमें घर की ख़ुशी के काफ़ूर होने के पीछे की वजह के तौर पर हमेशा महिलाओं को ही ज़िम्मेदार ठहराया जाता है।

ज़ैन का बचपन हिंसा के बीच बीता था। उसके पिता को ज़ैन की मां को पीटने की आदत थी, यहां तक कि एक बार तो ज़ैन के पिता ने उसकी मां की बांह मरोड़ दी थी। और ग़ुस्से में ज़ैन ने अपने पिता को कूट डाला था और फिर घर से निकल गया था। आरे,क्या आपको पता नहीं कि मुस्लिम पुरुष हिंसक ही पैदा होते हैं ? वे अपने पिता को भी नहीं बख़्शते हैं।

जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि शायद अपने बच्चों का नाम ज़ैन रखने के फ़ैसले के पीछे की वजह आगे बढ़ते जोड़ों के बीच लयात्मक अरबी नाम रखने वाले नये चलन को दिखाता है। इससे महज़ इतना ही पता चल पाता है कि गहराइयां के लेखक मुसलमान होने के लक्षण को बाहरी होने से थोड़ा ज़्यादा मानते हैं। विडंबना यही है कि इसकी माने गये विदेशीपन को रेखांकित किया गया है, क्योंकि इस फ़िल्म में ज़ैन को अक्सर ज़ेन के रूप में ही संबोधित किया जाता है। काश कि शुद्ध उर्दू ज़बान के साथ इस फ़िल्म में यादगार छोटे किरदार निभाने वाले नसीरुद्दीन शाह और रजत कपूर ने इस फ़िल्म के क्रू को यह बताया होता कि ज़ेन ने ज़ैन के लालित्य और सौंदर्य से बिल्कुल जुदा कर दिया है।

लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके विचार निजी हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Why Does Gehraiyaan Have a Muslim Name for a Character?

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