फ़िल्म निर्माताओं की ज़िम्मेदारी इतिहास के प्रति है—द कश्मीर फ़ाइल्स पर जाने-माने निर्देशक श्याम बेनेगल

जाने-माने निर्देशक, पटकथा लेखक और वृत्तचित्र फ़िल्म निर्माता श्याम बेनेगल 'बंगबंधु' शेख मुजीबुर्रहमान की ज़िंदगी पर आधारित एक बायोपिक फ़िल्म-मुजीब: द मेकिंग ऑफ़ ए नेशन पर काम कर रहे हैं। भारत और बांग्लादेश में फ़िल्मायी गयी यह फ़िल्म इसी साल रिलीज होने वाली है। पिछले महीने बेनेगल ने मुंबई में राष्ट्रीय फ़िल्म विकास निगम (NFDC) में अपनी इस फ़िल्म का पोस्टर जारी किया।
1934 में जन्मे बेनेगल भारत में समानांतर सिनेमा के अग्रदूत हैं और उन्होंने अपने पचास साल के करियर में कई उत्कृष्ट कृतियों का सृजन किया है। अरविंद दास ने उनसे उनकी आने वाली फ़िल्म, भारत में सिनेमा और फ़िल्म निर्माताओं की भूमिका के बारे में बात की। प्रस्तुत है उस बातचीत का संपादित अंश:
आप पचास सालों से फ़िल्में बना रहे हैं। आप 87 साल के हो चुके हैं, फिर भी आप रोज़ दफ़्तर जाते हैं। क्यों? वह क्या है, जो आपसे यह सब करवा रहा है?
यह तो बस काम ही है,जो मुझे चलाता रहता है। फ़िलहाल मैं शेख मुजीबुर्रहमान पर एक बड़ी फ़िल्म पूरी करने जा रहा हूं। यह उनकी ज़िंदगी पर आधारित फिल्म है। शायद सितंबर के आख़िर में रिलीज हो।
इससे पहले आपने महात्मा गांधी और सुभाष चंद्र बोस पर फ़िल्में बनायी थीं। मुजीबुर्रहमान पर बन रही यह फिल्म बाक़ी फ़िल्मों से कैसे अलग है ?
यह एक ऐतिहासिक जीवनी है।यह बहुत हद 'द मेकिंग ऑफ़ द महात्मा' या 'नेताजी सुभाष चंद्र बोस: द फ़ॉर्गॉटन हीरो' की तरह ही है। यह हमारे उपमहाद्वीप की एक अहम शख़्सियत को लेकर है। शेख़ मुजीब एक ऐसे शख़्स थे, जिन्होंने एक नये राष्ट्र-बांग्लादेश का निर्माण किया था। उनकी कहानी बहुत ही दिलचस्प है, और वह एक मोहक शख़्स भी थे। वह किसी संपन्न परिवार से नहीं थे। उनकी पृष्ठभूमि जवाहरलाल नेहरू या गांधी जैसी नहीं थी। नेहरू एक बहुत ही जाने-माने वकील के बेटे थे; उनका परिवार प्रतिष्ठित था। महात्मा गांधी सौराष्ट्र में दीवानों वाले परिवार से आते थे। ज़्यादातर राजनीतिक हस्तियां ऐसी ही पृष्ठभूमि से आयी हैं, लेकिन शेख़ मुजीब बहुत ही मामूली जगह से थे। वह एक कामकाजी व्यक्ति थे। इसका मतलब इस तरह समझा जा सकता है कि अगर मिसाल के तौर पर नेहरू के उस फ़ैसले को लें,जिसमें उन्होंने तय किया था कि उन्हें काम करने की कोई ज़रूरत नहीं है, तो इसका मतलब तो यही था कि उनके पास पहले से ही एक विशेष पृष्ठभूमि थी, समाज में उनके पिता की हैसियत थी और उनके पास बहुत सारे पैसे थे। लेकिन, शेख मुजीब उच्च-मध्यम वर्ग नहीं,बल्कि एक आम मध्यमवर्गीय परिवार से आते थे। उनके पास न तो बहुत सारी ज़मीन थी और न ही कोई ज़मींदारी थी।
यह फ़िल्म एक सहयोगी परियोजना है; क्या आप इस बारे में कुछ विस्तार से बता सकते हैं?
हां,बिल्कुल। यह भारत और बांग्लादेश सरकारों के बीच एक सहयोगात्मक उद्यम है। हाल ही में हमने बांग्लादेश की 50वीं जयंती और शेख मुजीब की 100वीं जयंती मनायी थी। जब हमने इस फ़िल्म को बनाना शुरू किया था, तब तक देर हो चुकी थी, इसीलिए यह फ़िल्म उन समारोहों का हिस्सा नहीं बन सकी।
सत्तर के दशक में आपने अंकुर, निशांत, मंथन बनायी और बाद के दशकों में मम्मो, सरदारी बेगम और जुबैदा आयी। आपने जीवनी पर आधारित फ़िल्मों का भी निर्देशन किया है। यह सफ़र काफ़ी लंबा रहा है, जिसमें कई विषय शामिल रहे हैं। इस दायरे का आपके लिए क्या मायने है?
हर एक फ़िल्म सीखने की एक सतत प्रक्रिया होती है। फ़िल्म बनाना अपने परिवेश, अपने लोगों, अपने देश के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानने जैसा है। फ़िल्म बनाते हुए खुद को शिक्षित करने की प्रक्रिया से गुज़रने की तरह है।
आपकी कई फ़िल्में सामाजिक मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। एक बार आपने कहा था कि सिनेमा समाज को नहीं बदल सकता, लेकिन यह बदलाव का माध्यम ज़रूर बन सकता है। क्या आप अब भी ऐसा मानते हैं?
बेशक, लेकिन, फ़िल्में (भी) जो कुछ कर सकती हैं, वह यह कि आपको अंतर्दृष्टि दे सकती हैं। हो सकता है कि आपको बहुत ज़्यादा सीखने की ज़रूरत न हो ! सिनेमा जो कुछ करता है, वह यही कि आपको न सिर्फ़ अपने ख़ुद के बारे में, बल्कि परिवेश, आपकी पृष्ठभूमि के बारे में भी एक अंतर्दृष्टि देता है; यह आपके देश, आपके इतिहास, और इसी तरह की बहुत सारी चीज़ों को लेकर अंतर्दृष्टि देता है।
आप सांसद भी रहे हैं। आज हम अपने चारों ओर संघर्ष और हिंसा देखते हैं। आप समकालीन समाज में सिनेमा की क्या भूमिका देखते हैं ? मसलन, हालिया फ़िल्म ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ बहुत ही ध्रुवीकरण कर रही है...
देखिए, समस्या यही है। फ़िल्मों का बहुत असर होता है, और वे दुनिया के बारे में आपकी सोच को आकार देने में भी भूमिका निभाती हैं। मैंने 'द कश्मीर फ़ाइल्स' नहीं देखी है, लेकिन मैंने (इसके बारे में) सुना है। फ़िल्म बनाते हुए आप (फ़िल्म निर्माताओं) की इतिहास के प्रति एक ज़िम्मेदारी होती है। आपकी फ़िल्म का जितना ही ज़्यादा प्रचार होगा, उसकी अहमियत उतनी ही कम होगी। सच तो यही है कि आप फ़िल्मों को प्रोपेगेंडा के तौर पर भी इस्तेमाल कर सकते हैं। लेकिन, जब आप इतिहास से जुड़ी कोई फ़ीचर फ़िल्म बना रहे होते हैं, तो आपमें एक हद तक वस्तुनिष्ठता होनी चाहिए। उस निष्पक्षता के बिना वह फ़िल्म तो प्रचार बन जाती है।
'समानांतर सिनेमा' के ज़रिये आपने बॉम्बे फ़िल्म उद्योग को कई अच्छे अभिनेताओं-अभिनेत्री दिये हैं। आपकी ऐसी ही तलाश में शबाना भी हैं, और उन्होंने एक बार कहा था कि आप एक असंतुष्ट गुरु हैं! आपको क्या लगता है कि उन्होंने आपको असंतुष्ट रहने वाला शख़्स क्यों बताया?
शबाना एक प्रशिक्षित अभिनेत्री हैं। मुझे ख़ुशी है कि वह सोचती हैं कि मुझे एक भूमिका निभानी है, लेकिन वास्तव में हक़ीक़त तो यही है कि उन्हें उस तरह की भूमिकाओं के चलते ही वह अवसर मिले, जिसके लिए मैंने उन्हें उपयुक्त पाया। उन्होंने इन अवसरों का भरपूर फ़ायदा उठाया और 'अंकुर', 'निशांत', 'मंडी' और दूसरी फ़िल्मों में अपने अभिनय की तारीफ़ बटोरी है। यह उनकी सहज और स्वाभाविक क्षमता थी। वह बहुत व्यक्तिवादी हैं। उन्होंने जो भी भूमिका निभायी, उन्होंने उन भूमिकाओं में ख़ुद को समा लिया। वह अपनी भूमिकाओं को ख़ुद का बना लेती थीं !
सिनेमा की मौजूदा स्थिति के बारे में आपका क्या कहना है?
सिनेमा बहुत बदल गया है। आज ज़रूरी नहीं कि आप सिनेमा हॉल में ही फ़िल्म देखने जायें, क्योंकि पूरा पैटर्न ही अलग हो गया है। टेलीविज़न के प्रसार के चलते अब ज़्यादातर लोग टीवी पर फ़िल्में देखते हैं। और ओटीटी प्लेटफ़ॉर्म के आने के साथ तो आपके पास अब एक वैकल्पिक गुंज़ाइश भी बन गयी है, जिसने सिनेमा की जगह ले ली है। आपको इन विभिन्न धारणाओं को लेकर समायोजन करना होगा। इसलिए, जब आप कोई फ़िल्म बनाते हैं, तो आप उसे बड़े पर्दे के सिनेमा हॉल में देखना चाहते हैं। लेकिन, आज सिनेमा हॉल में बहुत कम फ़िल्में देखने को मिलती हैं। आप इसे टेलीविज़न पर देखना पसंद करते हैं। और इस बात ने फ़िल्म निर्माताओं के फ़िल्म बनाने के तरीके पर असर डाला है।
ऐसे में आपको क्या लगता है कि सिनेमा का भविष्य क्या है?
बहरहाल, हमारी इस (भविष्य) पर नज़र हैं ! मुझे नहीं पता कि सिनेमा का भविष्य क्या होगा ! सिनेमा का भविष्य तो है, लेकिन जरूरी नहीं कि जैसा हमने सोचा हो,वह वैसा ही हो। सिनेमा जिस तरह आकार लेता है, इसमें प्रौद्योगिकी और इतिहास दोनों की भूमिका होती है। सिनेमा का रूप तो ख़ुद-ब-ख़ुद बदलता रहता है। साथ ही आप जिस तरह से फ़िल्में देखने जा रहे हैं, वह तरीक़ा भी भविष्य में हम किस तरह फ़िल्में बनाते हैं, इस पर असर डालेगा।
(अरविंद दास एक स्वतंत्र पत्रकार और मीडिया शोधकर्ता हैं।)
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
‘The More Propaganda Your Film has, the Less Valuable it Will be’—Shyam Benegal on The Kashmir Files
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