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सरकार को मानसून सत्र में महत्वपूर्ण विधेयकों को जल्दबाज़ी में आगे नहीं बढ़ाना चाहिए

एक उदार विधायी प्रक्रिया क़ानूनों को लोगों के अनुकूल बनाती है, इसलिए इसे लागू करना आसान होता है। समस्या, केंद्र द्वारा किसी भी अन्य विचार को तरजीह न देने, और केवल अपने विचार चाहने में है।
सरकार को मानसून सत्र में महत्वपूर्ण विधेयकों को जल्दबाज़ी में आगे नहीं बढ़ाना चाहिए

केंद्र सरकार ने जिस अप्रत्याशित हड़बड़ी के साथ 2020 में तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को संसद में पारित किया था, उनके कारण किसानों को एक साल तक बड़े पैमाने के आंदोलन को जारी रखना पड़ा। सरकार को 2021 के अंत में इन कानूनों को रद्द करना पड़ा और नतीजतन किसानों ने अपने कृषि कानून विरोधी आंदोलन को स्थगित कर दिया था। सिद्धांत को माने तो, सरकार उस अनुभव से एक महत्वपूर्ण सबक के सकती थी। सरकार, भविष्य में किसी भी विधायी परिवर्तन से पहले हितधारकों के साथ अधिक व्यापक परामर्श कर सकती है, और विशेष रूप से उन मसलों पर जो लाखों लोगों को प्रभावित करते हैं।

हालांकि, लगता तो ऐसा है कि सरकार ने ऐसा कोई सबक नहीं सीखा है, क्योंकि सरकार फिर से महत्वपूर्ण कानूनों में बदलाव की तैयारी कर रही है, बिना इस बात पर विचार किए कि वे बदलाव लोगों को कैसे प्रभावित करेंगे, खासकर जो कमजोर वर्गों से जुड़े हैं। सरकार का रवैया इस बात से स्पष्ट होता है कि वह किस तरह से बिजली अधिनियम, 2003 में संशोधन कर रही है। लेकिन पर्यावरण से संबंधित अन्य कानून भी हैं, उदाहरण के लिए, जहां इसकी प्रवृत्ति समान रूप से दिखाई देती है। ऑल इंडिया पावर इंजीनियर्स फेडरेशन ने बिजली अधिनियम में सरकार के संशोधनों की आलोचना की है, फिर भी, संगठन का कहना है, सरकार ने अधिनियम में महत्वपूर्ण बदलावों को आगे बढ़ने का निर्णय लेने से पहले उनसे या अन्य हितधारकों से परामर्श नहीं किया है।

फेडरेशन के अनुसार, संशोधित कानून उपभोक्ताओं को नुकसान पहुंचाएगा क्योंकि यह उनके बिलों में इजाफा कर सकता है-जैसा कि उन शहरों में हुआ है जहां बिजली की आपूर्ति निजी खिलाड़ियों के हाथों में चली गई है। इसमें कहा गया है कि अगर इस क्षेत्र का और निजीकरण किया गया तो बिजली कंपनियों के कर्मचारियों के साथ, खासकर राज्यों में, को भी नुकसान होगा। संशोधनों में बिजली क्षेत्र में पहले से कहीं अधिक निजी भूमिका की परिकल्पना की गई है। विशेषज्ञों ने बिजली क्षेत्र के निजीकरण के खिलाफ चेतावनी देते हुए, रसोई गैस की कीमतों और राज्य के स्वामित्व वाली दूरसंचार कंपनी बीएसएनएल से तुलना की है। एक और चिंता का विषय यह है कि संशोधित कानून राज्य के स्वामित्व वाले बिजली वितरकों को बुनियादी ढांचे के रखरखाव के बोझ तले दबा देगा, जबकि निजी खिलाड़ी मुनाफा कमाएंगे।

यहां तक कि सार्वजनिक क्षेत्र और सेवाओं पर बने जन आयोग ने भी, निजीकरण पर सरकार द्वारा नए सिरे से जोर देने से नुकसान होने की चेतावनी दी है। इसकी चेतावनियों के अनुरूप, विद्युत अधिनियम के तहत संशोधन, आकर्षक ग्राहकों, जैसे कि औद्योगिक बिजली उपभोक्ताओं को, निजी क्षेत्र की ओर धकेल देंगे। इस बीच, सभी नागरिकों की बिजली जरूरतों को पूरा करने के लिए जिम्मेदार सरकारी कंपनियां कमजोर हो जाएंगी। लाभप्रद ग्राहकों से वंचित सरकारी कंपनियां, जिन्होंने वितरण नेटवर्क में भारी निवेश किया है, उन्हें घाटे की राह पर चलने पर मजबूर होना पड़ेगा। 

इसके दो प्रतिकूल प्रभाव पड़ेंगे। सबसे पहले, राज्य सरकारों पर वित्तीय बोझ बढ़ेगा, जिससे उनकी पहले से ही माली हालत और खराब हो जाएगी। दूसरा, खेती जैसे प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के लिए उपलब्ध सीमित सब्सिडी वाली बिजली प्रभावित होगी। गरीब उपभोक्ताओं के लिए नियमित बिजली आपूर्ति बीते दिनों की बात हो जाएगी। इन कारणों से, किसान आंदोलन कई वर्षों से इन और अन्य संशोधनों का विरोध कर रहे हैं।

हाल के वर्षों में, निजी कंपनियों को अनुचित लाभ और अवसर मुहैया कराने में, सार्वजनिक क्षेत्र की शक्तियों का त्याग करने की प्रवृत्ति पर व्यापक चिंता जताई जा रही है। यह सार्वजनिक क्षेत्र की उन इकाइयों के लिए भी सही है, जिन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया है,जबकि  निजीकरण की वकालत के के लिए आमतौर पर सरकारी कंपनियों के "अक्षम" होने का कारण बताया जाता है जो अपने आप में कोई कारण नहीं है। सार्वजनिक क्षेत्र की बिजली वितरण कंपनियों, या उस मामले के लिए दूरसंचार, ने न केवल लाभ कमाया है, बल्कि दोनों लाभांश भुगतान के माध्यम से सरकार के राजस्व का स्रोत भी रही हैं। उन्होंने उस जरूरी जनहित की भूमिका निभाई है जो सार्वजनिक क्षेत्र को निभानी चाहिए।

यह समस्या सभी क्षेत्रों में है। जून के अंत में, पर्यावरण और वन मंत्रालय ने वन संरक्षण अधिनियम या एफसीए, 1980 के तहत मौजूदा नियमों को बदलने के लिए नए वन (संरक्षण) नियम, 2022 को अधिसूचित किया था। अधिक लाभ कमाने के अवसर पैदा करके यहां जनहित को दरकिनार किया जा रहा है वह भी शक्तिशाली निजी हितों के लिए ऐसा किया जा रहा है। एक ओर, इन प्रस्तावित बदलावों से जहां उद्योग लगाने या खनन के लिए वन संसाधनों को बेचने आसान होगा। वहीं दूसरी ओर वन भूमि के भीतर या आसपास रहने वाले आदिवासियों और अन्य समुदायों के अधिकारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।

जैविक विविधता अधिनियम, 2002 में एक और विचाराधीन संशोधन है। इन बदलावों के बाज़ारउन्मुख होने के लिए भी आलोचना की गई थी। शुक्र है, सरकार ने जैव विविधता (संशोधन) विधेयक, 2021 को संसद की संयुक्त समिति को भेज दिया है। हालाँकि, इसमें प्रस्तावित परिवर्तन अन्य कानूनों की तरह ही हैं- जनहित की कीमत पर संकीर्ण निजी हितों को बढ़ावा देने की इच्छा नज़र आती है। हर्बल उत्पादों के लिए बाजार बढ़ने के साथ, निर्माता मूल कानून में सुरक्षात्मक धाराओं से नाखुश हैं - विशेष रूप से स्थानीय समुदायों के साथ लाभ साझा करने का दायित्व उनकी आँख की किरकिरी है। संशोधन उनकी जरूरतों के अनुरूप हैं। उदाहरण के लिए, जब तक वे भारत में पंजीकृत हैं, तब तक यह परिवर्तन विदेशी कंपनियों के लिए भारत के जैव-संपदा तक पहुंच पर प्रतिबंध हटा देगा। 

एक साल पहले, महामारी से निपटने के लिए बनाए गए 125 साल पुराने औपनिवेशिक कानून को रद्द करने के सरकार के फैसले का कोई विरोध नहीं हुआ था। हालांकि, इस बात को लेकर विवाद था कि सरकार इसके स्थान पर क्या लाना चाहती है। नए कानून को एक विशेष सरकारी पैनल ने अंतिम रूप दिया, जिसे सार्वजनिक स्वास्थ्य विधेयक, 2022 कहा गया, इस तरह के कानून को लागू करने में यह 2017 के प्रयास को ही दोहराता है। 2017 के बिल में अत्यधिक ज़बरदस्ती और सत्तावादी होने की आलोचना को आकर्षित किया था। भारत में अचानक और लंबी अवधि के लिए लगाए गए गंभीर लॉकडाउन ने लोगों, विशेष रूप से प्रवासी श्रमिकों और उनके परिवारों के लिए अभूतपूर्व कठिनाई पैदा की थी। भविष्य पर असर डालने वाले इस तरह के कानून पर व्यापक सार्वजनिक परामर्श की जरूरत है ताकि आपत्तियों, विशेष रूप से अनावश्यक और अत्यधिक जबरदस्ती के प्रावधानों पर कम से कम बहस की जा सके।

इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस विषय से संबंधित किसी भी कानून में महामारी से निपटने के सार्वजनिक स्वास्थ्य पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए। आखिरकार, महामारी ने  दुनिया भर में करोड़ों लोगों को गरीबी में धकेल दिया गया था, क्योंकि राष्ट्रों ने, यहां तक ​​कि विकसित देशों ने भी, पर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढांचे में निवेश नहीं किया था। जबकि, इसी अवधि में अरबपतियों की संख्या और संपत्ति में भयंकर वृद्धि हुई है, इसलिए महामारी पर किसी भी नए कानून के पीछे की मंशा के बारे में संदेह होना लाजिमी है- क्या यह स्वास्थ्य देखभाल में सुधार करेगा या लोकतंत्र को दबा देगा?

विधायी परिवर्तनों को बढ़ावा देने वाले हितों पर उतना ही बहस करने की आवश्यकता है, जितना कि यह सुनिश्चित करने की, कि कानूनों के आधुनिकीकरण की आवश्यकता है ताकि देश के संसाधनों को अधिक से अधिक सार्वजनिक भलाई के काम में लगाया जा सके। वहां तक पहुंचने का एकमात्र उपयुक्त तरीका सार्वजनिक बहस है। अन्यथा, सरकारों में विश्वास कम हो जाएगा, क्योंकि लोग कानूनों में संशोधन पर विचार करने के उद्देश्यों के बारे में सोचेंगे। समय आ गया है कि भारत अपने सबसे महत्वपूर्ण संदर्भ में कानूनों पर चर्चा को  चलाए और: लोगों पर उनके प्रभाव, सार्वजनिक हित और पर्यावरण का ध्यान रखे।

लेखक कैंपेन टू सेव अर्थ नाउ के आनरेरी कन्वेनर  हैं। व्यक्त विचार निजी हैं।

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