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क्यों भारतीय मुस्लिमों को लगता है कि उनके नेताओं ने उन्हें धोखा दिया?

इस संकट में कश्मीरियों के साथ खड़ा रहकर उनके ज़ख़्मों पर कुछ वक्त के लिए मरहम लगाया जा सकता है। 5 अगस्त के बाद कश्मीर जाने वाले पत्रकार, नेता, एक्टिविस्ट, फैक्ट फाइंडिंग टीम के लोगों में कोई भी मुस्लिम नहीं था, न ही किसी धारा का धार्मिक-राजनीतिक नेता था।
Why Indian Muslims Feel Let Down by Their Leaders
Image Courtesy: Wikimedia Commons

अगस्त की शुरूआत में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) के नेता सीताराम येचुरी को श्रीनगर हवाईअड्डे पर हिरासत में लेकर दिल्ली वापस भेज दिया गया था। येचुरी 9 अगस्त को कश्मीर में अपनी पार्टी के इकलौते विधायक और साथी यूसुफ तारागामी से मिलने पहुंचे थे।केंद्र की कश्मीरबंद की कार्रवाई के चार दिन बाद यह घटना हुई थी। केंद्र सरकार ने यह कदम अनुच्छेद 370 को हटाकर, जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के बाद की थी।

वापस भेजे जाने के बाद भी येचुरी ने हार नहीं मानी। वे सुप्रीम कोर्ट पहुंचे और उन्होंने कई बीमारियों से ग्रसित, स्वास्थ्य सेवा के जरूरतमंद साथी तारागामी से मिलने और उनकी मदद करने की अनुमति मांगी। कई सुनवाइयों के बाद, 30 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट की अनुमति के बाद येचुरी श्रीनगर जाने में कामयाब रहे। हालांकि कोर्ट की अनुमति में कई तरह की पाबंदियां थीं। जैसे येचुरी को किसी भी तरह की राजनीतिक गतिविधि करने की मनाही थी (जैसे यह एक अपराध हो)।

लेकिन येचुरी सिर्फ एक पार्टी के नेता थे, जो उनकी पार्टी के ही एक प्रतिनिधि के हालात के बारे में फिक्रमंद थे। कश्मीर घाटी में 80 लाख मुसलमान हैं और सभी को 60 दिनों से घरों में बंद कर रखा है। इनमें से हजारों को स्वास्थ्य संबंधी मदद की जरूरत है। घाटी के लोग केंद्र की इस कार्रवाई से परेशान हैं और उनमें नाराजगी है।

इस संकट में कश्मीरियों के साथ खड़ा रहकर उनके जख्मों पर कुछ वक्त के लिए मरहम लगाया जा सकता है। 5 अगस्त के बाद कश्मीर जाने वाले पत्रकार, नेता, एक्टिविस्ट, फैक्ट फाइंडिंग टीम के लोगों में कोई भी मुस्लिम नहीं था, न ही किसी धारा का धार्मिक-राजनीतिक नेता था।

चलिए, भारतीय मुस्लिमों के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाले सबसे मुखर नेता एआईएमआईएम के सांसद असदुद्दीन ओवैसी की बात करते हैं। अपने गृह राज्य तेलंगाना और आंध्रप्रदेश से आगे, ओवैसी की पार्टी उत्तरप्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में अपनी जमीन बनाने की कोशिश कर रही है। लेकिन कश्मीरी मुस्लिमों के दर्द में ओवैसी की बेरुखी की वजह क्या है? क्यों औवेसी इस मानवीय संकट से मुंह फेर रहे हैं? आखिर कश्मीर के विशेष दर्जे और 35A के खात्मे के खिलाफ वे संसद के अंदर और बाहर काफी मुखर रहे हैं।

औवेसी और दूसरे मुस्लिम नेताओं का कश्मीर जाकर, वहां के लोगों की दयनीय स्थिति की खबर लेने में रुचि न होना हैरान करने वाली बात है। कश्मीरियों के साथ जो हो रहा है उसे एक मानवीय संकट के तौर पर देखा जा रहा है।लेकिन ये लोग चुपचाप खड़े देख रहे हैं।

ओवैसी एक वकील भी हैं। इसके बावजूद वे कश्मीर जाने की अनुमति लेने के लिए कोर्ट नहीं गए। उनके तर्क के हिसाब से तो कश्मीर जाने की ओवैसी की इच्छा येचुरी से ज्यादा होनी चाहिए थी। अगर येचुरी अपने एक साथी के लिए कोर्ट जा सकते हैं, तो ओवैसी अपने लाखों मुस्लिम भाइयों के लिए क्यों नहीं?

सिर्फ औवेसी ही नहीं, उत्तरप्रदेश में रामपुर के चमक-दमक वाले सांसद और वकील आजम खान भी कश्मीर पर चुप हैं। 2017 में बीजेपी से हारने के पहले कई बार सरकार बनाने वाली समाजवादी पार्टी में आजम खान को मुस्लिमों का बड़ा चेहरा माना जाता था।

आजम खान की कानूनी ताकत अलग-अलग मामलों में दर्ज 80 मुकदमों से निपटने में लगी है। इतने प्रभावी आदमी को कश्मीर जाने के लिए अपनी कानूनी टीम को बस एक एप्लीकेशन ही तो लगाने को कहना होगा। सोचने वाली बात है कि आखिर ऐसा क्या है जो आजम खान और उनके वकीलों को ऐसा करने से रोक रहा है।

कश्मीर से बाहर के मुस्लिमों ने कभी-कभार ही घाटी में अपने समुदाय के भाइयों के साथ खुद को खड़ा किया है। लेकिन हाल की सरकारी कार्रवाई और जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे के छिनने के बाद, कश्मीर से बाहर के मुस्लिमों को यह कदम देश को धर्म के आधार पर बांटने वाला लगता है। हालांकि मुस्लिम नेताओं को यह बात अच्छी तरीके से पता है, इसके बावजूद भी वे सावधान हैं। उन्हें लगता है कि कश्मीरी मुस्लिमों के साथ खड़े होने पर ध्रुवीकरण और बढ़ेगा।

पर मुस्लिम नेताओं का यह कदम दोमुंहा लगता है। कुछ दिन पहले लोकसभा सदस्यों के शपथ ग्रहण समारोह में 27 मुस्लिम सांसदों में से ज्यादातर ने धार्मिक मुस्लिम नारों को लगाकर खुद की धार्मिक पहचान दृढ़ता से बताई थी। एक तरह से यह लोग दिखाना चाहते थे कि वे बिना किसी डर या संकोच के मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें से कई शिकायत करते रहे हैं कि 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व कम होता जा रहा है। इसके बावजूद इन 27 सांसदों में से एक भी कश्मीर जाने की अनुमति लेने के लिए सुप्रीम कोर्ट नहीं पहुंचा। क्या यह लोग कश्मीर के 80 लाख मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व नहीं करते?

कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद एक अपवाद हैं। एक कश्मीरी होने के नाते, घाटी जाकर वहां की स्थिति देखने की उनकी इच्छा आसानी से समझी जा सकती है। अब मुस्लिमों के सबसे बड़े हिस्से सुन्नियों के सबसे अहम धार्मिक नेता मौलाना महमूद मदनी और उनके चाचा अरशद मदनी की बात करते हैं। देवबंद स्थित सबसे बड़े मुस्लिम धार्मिक संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद में महमूद मदनी महासचिव हैं और अरशद मदनी अध्यक्ष।

देवबंद मदरसा कई बार फतवा जारी करता है और अपने लाखों समर्थकों से इन्हें शब्दश: मानने की अपेक्षा रखता है। इसके बावजूद 12 सितंबर 2019 को हुई वार्षिक बैठक में संगठन ने  कश्मीर के विशेष दर्जे के खात्मे के समर्थन में प्रस्ताव पास कर दिया। संगठन ने 35A को निरस्त किए जाने का भी समर्थन किया. जबकि यह कश्मीरी आबादी में राज्य समर्थित जातीय और धार्मिक बदलावों शुरूआती पहल है।

सत्ताधारी पार्टी की नजर में अच्छे बनने की इस कोशिश के बाद देवबंद ने मानवीय आधार पर भी कश्मीरियों से संपर्क करने की कोशिश नहीं की। मदनी की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में कश्मीर जाने की एक याचिका तक दाखिल नहीं की गई।

इसकी जगह अरशद मदनी ने सितंबर की शुरूआत में दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सुप्रीमो मोहन भागवत से मुलाकात की। बैठक के बाद उन्होंने कथित तौर पर कहा कि आरएसएस हिंदू राष्ट्र का विचार छोड़ सकता है।

कभी घोर विरोधी रहे देवबंद को अब आरएसएस से दिक्कत नहीं है। एक गंभीर और नाजुक मुद्दे पर संगठन के ताजा रुख से तो ऐसा ही लगता है। तभी तो कश्मीर पर सरकार की कार्रवाई के एक हफ्ते के भीतर संगठन ने समर्थन का प्रस्ताव पारित कर दिया। सिर्फ इतना ही नहीं, संगठन ने सरकार के ट्रिपल तलाक को आपराधिक बनाए जाने वाले कानून और असम की तर्ज पर देश में नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन बनाए जाने वाले प्लान का समर्थन किया है। ट्रिपल तलाक पर सरकारी कानून का पहले संगठन ने विरोध किया था।

कुछ उड़ती खबरों की मानें तो संगठन की विदेशी फंडिंग, खास तौर से सऊदी अरब और मध्य-पूर्वी देशों से आने वाली मदद पर सरकार ने शिकंजा कसा है। पहले इन दावों पर यकीन नहीं किया जाता था। लेकिन अब विदेशी फंडिंग समेत मदनी के गैरकानूनी निर्माण और अतिक्रमण से जुड़ी चर्चाएं तेज हैं।

एक और सुन्नी धार्मिक नेता, दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी और बरेली मदरसे के आला हजरात ने भी कश्मीर जाने के लिए कोई कदम नहीं उठाए।

सबसे अहम शिया नेता कल्बे जव्वाद ने अनुच्छेद 370 को हटाए जाने का न केवल समर्थन किया, बल्कि इसे सही ठहराया। 6 अगस्त 2019 को कार्रवाई के एक दिन बाद ही जव्वाद की वेबसाइट Siasat.com पर यह स्टेटमेंट छपा: इस कदम के बाद कश्मीर को दूसरे राज्यों के जैसा दर्जा मिल गया है। जव्वाद  ने कश्मीरियों से कहा कि अगर वे खुद को भारत का हिस्सा समझते हैं, तो उन्हें दूसरे नागरिकों की तरह सभी अधिकार मिल जाएंगे।

या तो जव्वाद  चालाक है या वे अपने समर्थक शिया लोगों की सामान्य बौद्धिकता पर भरोसा नहीं करते। उनकी बात से पता चलता है कि वे कश्मीरी में अधिकारों को छीना जाना कश्मीरियों के लिए अच्छा मानते हैं। वो मानकर चलते हैं कि शिया मुस्लिम, जो बेहतर शिक्षित और बौद्धिक हैं, उन्हें पता नहीं कि अनुच्छेद 370 और 35A से कश्मीरी लोगों को दूसरे भारतीय लोगों से ज्यादा अधिकार मिले हुए थे।

जावेद लगातार सरकार के पक्ष में खड़े हुए हैं। उन्होंने भी कश्मीर जाने के लिए अनुमति लेने की कोई कोशिश नहीं की। जबकि कश्मीर की 25 फीसदी आबादी शिया है। ध्यान रहे येचुरी ने सिर्फ एक साथी का जिक्र किया था और यह उनके लिए कश्मीर जाने की अनुमति लेने की लिए काफी था।

आजम खान की तरह कल्बे जवाद के खिलाफ पुलिस ने कई मुकदमे दर्ज कर रखे हैं। इसमें  शियाओं के लिए चंदे के तौर पर अघोषित विदेशी धन इकट्ठा करने का भी आरोप शामिल है। यह आरोप जवाद के ही एक सहयोगी रहे वसीम रिजवी ने लगाए हैं। रिजवी फिलहाल शिया वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष हैं।

रिजवी को जवाद की सिफारिश पर ही वक्फ बोर्ड का अध्यक्ष बनाया गया था। लेकिन आज दोनों दुश्मन हैं। दोनों ही एक-दूसरे पर गंभीर आरोप लगाते रहते हैं। लेकिन किसी के पास इस मुश्किल घड़ी में कश्मीरियों का साथ देने का वक्त नहीं है। जवाद ने रिजवी के खिलाफ वक्फ बोर्ड की जमीन गलत तरीके से बेचने और जमीन हड़पने के आरोप लगाए हैं। रिजवी ने भी जव्वाद पर इसी किस्म के आरोप लगाए हैं। रिजवी भी समाजवादी पार्टी के करीबी हुआ करते थे। लेकिन बदलते राजनीतिक माहौल मे उन्होंने अपनी वफादारी बदल दी। इसी के चलते वे जव्वाद के प्रभावक्षेत्र में दखल बनाने में कामयाब रहे। ये अलग बात है कि जव्वाद खुद भी कई बीजेपी नेताओं के दोस्त हैं। इनमें राजनाथ सिंह भी शामिल हैं।

हालांकि रिजवी की जव्वाद की तरह शियाओं में कोई बहुत बड़ी पैठ नहीं है, न ही वे धार्मिक नेता हैं। जव्वाद के पास कोर्ट जाने के संसाधन मौजूद हैं, लेकिन बीजेपी नेताओं से दोस्ती के चलते वे भी चुप्पी मारकर बैठे हैं।

इस सबसे पता चलता है कि सिर्फ कश्मीरी मुस्लिम ही नहीं, भारत के 18 करोड़ मुस्लिमों के पास नेतृत्व नहीं है। वे केवल एक वोट बैंक हैं, जिनका इस्तेमाल धार्मिक और राजनीतिक नेता करते रहते हैं। लेकिन शायद ही वे कभी मुखौटे के दूसरी तरफ देखते हों। एक उदार नजरिए के तहत माना जा सकता है कि मुस्लिम संगठन और नेतृत्व उलझन में है। एक तरफ वो कश्मीर को एक ऐसे मुस्लिम मुद्दे की तरह देखते हैं, जिसके जरिए देश में ध्रुवीकरण की कोशिश हो रही है। दूसरी तरफ उन्हें बहुसंख्यक समुदाय सांप्रदायिक मुद्दों पर गुस्से में नजर आता है। शायद इसी के चलते अपने समुदाय की मंशा के बावजूद भी मुस्लिम नेतृत्व चुप है। जो भी वजह हो लेकिन इसके कारण कश्मीर और दूसरी जगह के मुस्लिम मजबूर और अकेले पड़ गए हैं।

मुस्लिम नेतृत्व अब खुद के हितों के लिए परेशान है। उनकी इस नई मूलभूत विशेषता को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। नहीं तो कश्मीर में जारी मानवीय संकट मुश्किलों में एक मौका साबित हो सकता था। देश की मुस्लिम आबादी के लिए यह मौका है कि वो अपने नेतृत्व को पहचान सके। ऐसा नेतृत्व जिसने एक मानवीय संकट को नजरंदाज कर दिया, इनमें से एक भी नेता कश्मीरियों की मदद के लिए आगे नहीं आया।

(लेखक एक इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया प्रैक्टिशनर, डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर और नेशनल जियोग्राफिक, बीबीसी समेत कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया संस्थानों के साथ काम कर चुके टीवी प्रोड्यूसर हैं।)

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