कॉन्ट्रैक्ट पर खेती करने वाले सौदों में छोटे किसानों को क्यों नुकसान उठाना पड़ता है
अनुबंध (Contract) पर खेती का विस्तार हाल के दशकों में तेजी से बढ़ा है और भारत भी ऐसा लगता है कि अपने हालिया लागू कानूनों, दिशानिर्देशों और नियमों के तहत इस दौड़ में खुद को शामिल करने के लिए तैयार कर रहा है। ठेके या अनुबंध खेती से जुड़े अनुभवों की अगर बात करें तो विकसित देशों के साथ-साथ जिन भी विकासशील देशों में इसे लागू किया गया है, वे अनुभव बताते हैं कि कैसे छोटे और साधारण किसानों को इस सारे तामझाम के कारण बेहद बुरे अनुभवों से गुजरना पड़ा है। खासतौर पर हमें उन अनुबंधों के परीक्षण की आवश्यकता है जिसमें किसानों को बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के साथ नत्थी कर दिया गया, क्योंकि ये कॉर्पोरेट ही हैं जो विश्व खाद्य और फार्मिंग सिस्टम में काफी तेजी के साथ खुद को विस्तारित कर पाने में सक्षम हैं।
इन अनुबंधों के बारे में सबसे पहली ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये अनुबंध दो बेहद असमान साझीदारों के बीच में किये जाते हैं। जहाँ एक तरफ एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी होती है जिसके पास क़ानूनी और वित्तीय संसाधनों का जखीरा मौजूद रहता है तो वहीँ दूसरी ओर छोटे कृषक होते हैं, जो शायद मामूली पढ़े लिखे हों और अक्सर क़ानूनी मुद्दों की शायद ही उन्हें कोई समझ हो, जटिलताओं की तो बात करना ही फिजूल है। आर्थिक दृष्टि से देखें तो छोटा किसान अक्सर इतनी मुश्किलों में घिरा रहता है कि वह किसी भी प्रकार के अग्रिम भुगतान या कर्जे की पेशकश को ठुकरा दे, यह उसके लिए काफी मुश्किल हो जाता है। और यहीं पर वह इस सबके दीर्घकालिक दुष्प्रभावों को नजरअंदाज कर बैठता है।
इन अनुबंधों में आमतौर पर फसल की मजबूत गुणात्मक जरूरतों को उल्लखित किया जाता है जिसे इसकी शर्तों के अनुसार ही निभाना भी पड़ता है। आम तौर पर कम्पनी का प्रतिनिधि ही इस बात को तय करता है कि कोई फसल किस मात्रा में निर्धारित गुणात्मक मानदण्डों को पूरा कर पा रही है, जिसे उसके द्वारा ही तय किया जाता है। और इस प्रकार अनुबंध की शर्तों के मुताबिक़ तय कीमत से काफी कम कीमत पर फसल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बेचना पड़ता है, खासतौर पर खराब होने वाली उपज के मामले में, जिसे जल्द बेचना जरुरी होता है। अब चूँकि कई कम्पनियाँ विशिष्ट खेती की वस्तुओं पर अपना विशेषाधिकार रखती हैं, तो ऐसे में वे किसी खास फसल की खरीद में एकाधिकार की स्थिति में रहती हैं, और किसी दूसरी कंपनी को उन उत्पादों को बेचने का सवाल ही नहीं उठता। और इस प्रकार वे न सिर्फ गुणात्मक मानदंडों को तय करते हैं बल्कि उनका फैसले को ही स्वीकार करने की मजबूरी हो जाती है, क्योंकि ऐसे में किसान के उत्पाद का मुश्किल से ही कोई अन्य खरीदार होता है।
एक दूसरा कारक तकनीक और इनपुट पैकेज का भी है, जिसका निर्धारण भी अनुबंधित कम्पनी ही करती है। चूँकि अनुबंधों में गुणवत्ता मानदण्ड बेहद महत्वपूर्ण होता है, ऐसे में कॉर्पोरेट खरीदारों की शर्त यही रहती है कि जिन तकनीक और इनपुट को उनके द्वारा चुना गया है, उसे ही किसान को अनुपालन करना होगा। अक्सर देखा गया है कि कीटनाशक, उर्वरक एवं खेती में काम आने वाले उपकरणों को या तो इसी कम्पनी द्वारा निर्मित किया जाता है या उसके सहयोगी निर्माता द्वारा इसे तैयार किया जाता है। अनुबंध की शर्तों से बंधे किसानों के पास अक्सर कम लागत वाले अन्य विकल्पों को अपनाने की स्वतंत्रता नहीं रह जाती।
तीसरा यह कि किसी कंपनी को सिर्फ जिस फसल की उसे जरूरत है, उसे उसी से मतलब रहता है (या जिस फसल चक्र की उसे जरूरत होती है) भले ही मिट्टी की उर्वरता, संवर्धित पानी के इस्तेमाल और अन्य महत्वपूर्ण पर्यावरणीय दृष्टिकोण से इस सबका क्या असर पड़ रहा हो, उसे इस सबसे कोई सरोकार नहीं रहता। जबकि फसल चक्र की समय-सीमा और मिश्रित खेती की व्यवस्था में इन सभी पहलुओं का आमतौर पर ध्यान रखा जाता है, लेकिन कम्पनी का किसी गाँव से जुड़ाव तो मात्र कुछ वर्षों का ही रहता है। इस छोटी सी अवधि में इसका जुड़ाव गाँव से मात्र खरीद को लेकर और यह सुनिश्चित करने पर लगा रहता है कि उसे क्या लाभ हासिल हो रहा है। इसके बाद उस गाँव की जमीन, पानी और पर्यावरण का क्या हो रहा है यह उसकी चिंता का विषय नहीं रहता है।
एक बार जब अनुबंधित खेती का दायरा किसी देश या क्षेत्र में व्यापक स्तर पर फ़ैल जाता है तो इस बात की पूरी-पूरी संभावना रहती है कि कृषि वास्तविक खाद्य और पोषण की जरूरतों या खाद्य सुरक्षा से विमुख हो सकती है। खेतीबाड़ी में अनुबंधों के चलते जो कंपनी की जरूरत होगी उसी के अनुरूप खेती कराई जाती है, जोकि वैश्विक माँग और कम्पनियों के पास उपलब्ध कच्चे माल और अन्य आवश्यकताओं के हिसाब से तय होने लगती है। इस बात की पूरी संभावना बनी रहती है कि खेतीबाड़ी अब स्थानीय खाद्य पदार्थों और पोषण को ध्यान में रखकर करने के बजाय भोजन और उपभोग सनक और फैशन के अनुरूप ढल जाए।
अंतिम बात लेकिन जो कम महत्वपूर्ण तथ्य नहीं वह यह है कि ये कम्पनियाँ इन विशाल ग्रामीण भूभागों में अपने बिचौलिए या एजेंट को अपने साथ शामिल कर लेते हैं। ये एजेंट आम तौर पर इन गाँवों में अपनी ताकतवर पकड़ और अपने राजनीतिक जोड़तोड़ के नाते चुने जाते हैं। इस प्रकार शक्तिशाली सहयोगियों के कई गुट तैयार हो जाते हैं जो कंपनी के हितों के अनुरूप अपने हितों को ढूंढ निकालते हैं और किसानों की एकता नहीं होने देते। अपनी बढ़ती हुई ताकत और अनुचित अनुबंधों के बल पर ये साधारण काश्तकारों की बढ़ती मुश्किलों के कारण ये ताकतवर समूह एक बार फिर से छोटे किसानों की कीमत पर और अधिक जमीनों को खरीदने में सक्षम हो जाते हैं। कुल मिलाकर सारी व्यवस्था ही ग्रामीण असमानता को बढ़ाने वाली साबित होती है।
संयुक्त राज्य अमेरिका में एक क्षेत्र जिसमें अनुबंध खेती का काम काफी तेजी से पनपा (सत्तर और अस्सी के दशक के दौरान) वह मुर्गी पालन का था। जॉर्ज एंथन द्वारा लिखित और डेस मोइनेस रजिस्टर में प्रकाशित उत्तरी अलबामा में इस विषय पर व्यापक तौर पर उद्धृत रिपोर्ट में इस तीव्र विकास के चरण में बताया गया है कि “जिन किसानों से मैंने बात की थी, उनका कहना था कि जब कभी उन्हें लगता था कि अब वे अपना कर्ज चुकता करने की स्थिति में आने वाले हैं, समायोजक हर बार आकर नए ‘सुधारों’ जैसे कि गैस हीटर, इंसुलेटेड मुर्गी घरों और स्वचालित फीडिंग उपकरणों के साध धमक पड़ते थे। एक बार आप कर्जे की चपेट में आ गए तो किसानों को उस व्यवसाय में रहने के लिए मजबूर कर दिया जाता था, लेकिन धंधे में बने रहने के लिए उन्हें और भी गहरे कर्ज के दलदल में धंसने के लिए मजबूर कर दिया जाता था। उन किसानों में से एक ने खुद को और अन्य मुर्गी पालकों को ‘नए गुलामों’ के तौर पर व्याख्यायित किया....”
अनुबंध खेती को लेकर एक और व्यापक पैमाने पर बहस में मेक्सिको के ज़मोरा और जकोना इलाकों के सन्दर्भ में अध्ययन को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया है। अर्नेस्ट फेडेर की पुस्तक स्ट्रॉबेरी इम्पीरियलिज्म: ऐन इन्क्वारी इंटू द मैकेनिज्म ऑफ़ डिपेंडेंसी इन मेक्सिकन एग्रीकल्चर में इसका विस्तार से वर्णन किया गया है। इस अध्ययन में स्ट्राबेरी उगाने के लिए अनुबंध खेती के प्रभावों का अध्ययन किया गया है जिसमें कुछ शक्तिशाली स्थानीय लोग भारी संख्या में गरीब अस्थाई श्रमिकों के शोषण के मामले में सहयोगी और भागीदार बन जाते हैं, जबकि इन पीड़ितों में महिलाओं और बच्चों की एक महत्वपूर्ण संख्या शामिल है। भारी मात्रा में कीटनाशकों के नजदीकी सम्पर्क में रहने से बच्चों के बीच में स्वास्थ्य सम्बन्धी गंभीर खतरे उत्पन्न हुए हैं।
कुछ समय पहले इस लेखक ने अनुबंध खेती की एक अन्य व्यवस्था को राजस्थान के उदयपुर जिले के कोटरा इलाके में बीटी कॉटन बीजों पर आधारित आदिवासी किसानों (यहाँ तक कि इन परिवारों के बच्चे तक इसमें शामिल थे) के शोषण को होते देखा था। यहाँ के किसानों ने बताया था कि उन्हें प्राप्त होने वाले भुगतान का दारोमदार बीजों पर अनुमोदन प्राप्त करने वाली अपारदर्शी प्रणाली पर निर्भर था। यह एक ऐसी प्रणाली थी, जिसपर उनका कोई नियन्त्रण नहीं था और उन्हें स्वीकृत या असफल दरों को ख़ामोशी से स्वीकार करना पड़ता था। कभी-कभी तो इसकी वजह से उनकी महीनों की मेहनत से पूरी तरह से जाया चली जाती है, कडुवाहट के साथ उन्होंने इसकी शिकायत की। महँगे रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के छिड्काव को लेकर वे नियम कानूनों से बंधे हुए थे। लोगों का मानना था कि कीटनाशकों की वजह से स्वास्थ्य संबंधी खतरे काफी बढ़ गये थे। भूमि की उर्वरता पर भी इसका बेहद खराब असर पड़ा था। गेहूँ, मक्का, बाजरा और दाल जैसी आत्म निर्भरता पर आधारित स्थानीय खाद्य सुरक्षा वाली फसलों के उत्पादन को भी काफी नुकसान हुआ है। इन सब कारकों के बावजूद यह व्यवस्था टिकी रही क्योंकि कम्पनियों द्वारा तैनात स्थानीय एजेंटों ने स्थितियों पर अपनी मजबूत पकड़ बना रखी थी, जिससे कि वे अपने रिशेतादारी वाले संबंधों को भुना सकने की स्थिति में थे, और आर्थिक तौर पर कष्ट झेल रहे आदिवासी खेतिहरों को जरूरत पर एकमुश्त भुगतान कर देते थे।
भारत में अनुबंध खेती के तेजी से विस्तार करने से पहले इन सभी कारकों पर अच्छी तरह से विचार करने की आवश्यकता है। अनुबंध खेती के तेजी से विस्तार के आधार पर कृषि विकास का यह मॉडल कई चूकों और खतरों से भरा पड़ा है और भारत के वर्तमान संदर्भ को देखते हुए इसको अमली जामा पहनाने की पहल निश्चित तौर पर उचित नहीं है।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार के साथ-साथ कई सामाजिक आंदोलनों से जुड़े रहे हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें
Why Small Cultivators Lose in Contract Farming Deals
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