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विश्लेषण : कैसे कृषि-उत्पादन व्यापार क़ानून में बदलाव भूख को लाभ के व्यवसाय में बदल देगा

और फिर भी, इसे किसानों के लिए ‘आज़ादी’ और देश के लिए ‘आत्मनिर्भरता’ के नाम पर  प्रचारित किया जा रहा है!
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नरेंद्र मोदी सरकार ने चुपचाप, और बड़ी ही फुर्ती से बिना कोई समय गँवाये खेती, बिक्री, अनाज़ के भंडारण और कृषि उपज की कीमतों जैसे - खाद्य अनाज, सब्जियों, आदि से संबंधित कानूनों में बदलाव का प्रस्ताव किया और तुरंत उन्हे लागू भी कर दिया। इन प्रमुख आयामों से संबंधित तीन अध्यादेशों को 5 जून की देर रात को राष्ट्रपति ने सहमति दे दी थी, और वे सभी कानून "एक ही बार में" लागू हो गए। पिछले महीने ही इन्हें वित्त मंत्री ने अपने तथाकथित प्रोत्साहन पैकेज के हिस्से के तौर पर रखा था और मंत्रिमंडल ने कुछ ही दिनों पहले इसकी मंजूरी दी थी।

इन बदलावों को लेकर मुख्यधारा के मीडिया में बहुत अधिक उत्साह देखा गया- इस नीतिगत बदलाव पर सिर्फ वाम दलों को छोड़कर ज्यादातर राजनीतिक दल चुप्पी साधे हुए हैं। इससे ऐसा लगता है कि सरकार किसानों को अपनी उपज का "सर्वोत्तम मूल्य हासिल करने के लिए" उन्हे "कहीं भी" उपज बेचने की मोहलत दे रही हैं, और इससे उनकी चौतरफ़ा तरक्की होगी, सरकार की इस कवायद को मध्यम वर्ग का बड़ा हिस्सा इसे निर्विवाद रूप से हज़म भी कर गया।

जहाँ तक किसानों का सवाल है, वस्तुतः उनके सभी संगठनों ने इन थोक परिवर्तनों का विरोध किया है। जब भारत में कोविड़-19 महामारी फ़ैली हुई है और लोग अपना जीवन बचाने का संघर्ष कर रहे हैं, तो ये बदलाव निर्णायक रूप से कृषि उत्पादन और व्यापार को बड़ी कंपनियों और व्यापारियों के हवाले कर देंगे, और इस प्रकार, देश में खाद्य सुरक्षा को बड़ा भारी खतरा पैदा हो जाएगा जिस देश में लगभग 20 करोड़ लोग भूखे रहते हैं।

आइए देखेँ आखिर यहाँ हुआ क्या है और इससे किस तरह का रायता फैलेगा:

आवश्यक वस्तु अधिनियम (ECA) में परिवर्तन

1955 में पारित इस कानून ने भारत सरकार को व्यापारियों या कंपनियों को खाद्यान्न स्टॉक रखने की मात्रा सीमित रखने का अधिकार दिया था, और सरकार को ही उनकी कीमतों को तय करने का हक़ था। अब तर्क यह दिया जा रहा है कि तब भारत में खाद्यान्न का संकट होता था, और तब यह कानून जरूरी था, लेकिन अब जब हमारे पास भरपूर उपज और पर्याप्त कृषि उत्पादन है, इसलिए अगर इसे बेकार नभी कहा जाए तो कम से कम यह एक बाधा जरूर है। 

इसलिए, नए अध्यादेश में यह कहते हुए सरकार ने एक उप-धारा को सम्मिलित कर लिया है जिसके मुताबिक केवल युद्ध, अकाल, प्राकृतिक आपदा आदि जैसी असाधारण परिस्थितियों में ही सरकार ऐसे खाद्य पदार्थों की आपूर्ति को नियंत्रित कर सकती है, जिसमें अनाज, दालें, आलू, प्याज, खाद्य तिलहन और तेल आदि शामिल हैं", और उनकी मूल्य सीमा केवल तभी नियंत्रण की जाएगी जब (होर्टीकल्चर उत्पाद) की 100 प्रतिशत और गैर-सड़ने वाले उत्पाद के दाम 50 प्रत्यिशत पार कर जाएंगे।

यह दलील विवादास्पद और साफ़ तौर पर गलत है। नीचे दिए गए चार्ट में अनाज और दालों की उपलब्धता पर एक नज़र डालें, और इसके लिए यहाँ विभिन्न वर्षों का सरकार का खुद का आर्थिक सर्वेक्षण का डेटा का उपयोग किया गया हैं।

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अनाज की उपलब्धता ऊपर और नीचे होती है और वैसे भी उसकी उपलब्धता को मानसून निर्धारित करता है, लेकिन 1965 और 2019 के बीच, प्रति दिन प्रति व्यक्ति सेवन में वृद्धि मात्र 26 ग्राम है या 6 प्रतिशत खाने की है। यह इतना आश्वस्त होने के लिए काफी नहीं है, क्योंकि एक ही खराब मानसून इसे नीचे ले आता है।

दालों की स्थिति काफी खराब है, जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में देखा जा सकता है। 1965 की तुलना में, लोग प्रति दिन लगभग 14 ग्राम कम दाल खा रहे हैं - जो कि 22 प्रतिशत की कमी को दर्शाती है। याद रखें कि हाल के वर्षों में दाल की बड़ी उपलब्धता भारी आयात की वजह से हुई है। अगर आयात नहीं होता तो उपलब्धता काफी कम हो जाती।

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तो, स्टॉक और मूल्य पर प्रतिबंध हटाने का मतलब होगा कि बड़े व्यापारी (या उनके कार्टेल) बहुत अधिक स्टॉक जमा कर सकते हैं और इस प्रकार कीमतों में वृद्धि कर सकते हैं। यह कोई पुरानी बात नहीं है - यह प्याज के मामले में बार-बार हुआ है और होता है तब जब ईसीए लागू था। इस कानून के “परचकखे उड़ाना", जैसा कि कुछ मीडिया वाले उल्लासपूर्वक इसका वर्णन कर रहे हैं, व्यापारियों और कंपनियों के लिए एक बड़ा लाभ का मामला होगा क्योंकि वे खुद ही कीमतों को घुमाएंगे और भूख से लाभ कमाएंगे।

एपीएमसी क़ानून का ख़ात्मा करना 

शुक्रवार रात को जारी किया गया दूसरा अध्यादेश भारत में कृषि-उत्पाद बेचने और खरीदने की पूरी मौजूदा प्रणाली को खत्म ने का रास्ता साफ करता है। कृषि उपज मंडी समितियां (एपीएमसी) राज्य सरकारों द्वारा बनाए गए ऐसे क्षेत्र हैं जहां विभिन्न कृषि उपज किसानों द्वारा लाइसेंस प्राप्त व्यक्तियों या कमीशन एजेंटों को बेची जा सकती हैं। पूरे देश में ऐसी 2,477 प्रमुख मंडियाँ और 4,843 छोटे बाजार यार्ड हैं।

इस प्रणाली का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि लालची और शक्तिशाली व्यापारी तबका किसानों को कम कीमत देकर भगा न दें। ये बाजार खाद्यान्न की सरकारी खरीद के भी मुख्य केंद्र बन गए हैं। वर्षों से चल रही इस प्रणाली में काफी भ्रष्टाचार व्याप्त हो गया है, एजेंटों ने कीमतों में हेरफेर करने का एक शक्तिशाली कार्टेल बना लिया है, या चयनित विक्रेताओं के पक्ष में रिश्वत लेकर आदि मूल्य घूमा देते हैं, हालांकि, इस प्रणाली को पूरी तरह से खत्म करके, मोदी सरकार ने बच्चे के साथ नहाने के पानी को भी फेंक दिया है। अब कोई भी व्यापारी देश में कहीं भी किसी भी किसान से संपर्क कर सकता है और उसकी उपज खरीद सकता है।

चूंकि देश में 64 प्रतिशत किसानों के पास छोटी और सीमांत जोतें हैं, और इसलिए उनके पास  बेचने के लिए कम मात्रा में उत्पादन होता है, वे शायद ही किसी बाजार/कारोबारी के पास ले जाने लिए लंबी दूरी का परिवहन करने की स्थिति में होंगे जो उन्हे बेहतर कीमत प्रदान करता हो। असल में, उन्हें व्यापारियों द्वारा एक शॉर्टकट रास्ता पेश किया जाएगा जो फार्मगेट से ही, उनकी उपज खरीद लेंगे। इस प्रक्रिया में धन्नासेठों या बड़े धन वाले व्यापारियों की होगी, और वे सभी छोटी मछलियों को निगल लेंगे। और इस एकाधिकार की स्थिति में, वे कीमतों और अन्य शर्तों को भी खुद के फायदे के लिए तय करेंगे।

यहाँ यह भी ध्यान दें कि एपीएमसी राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। लेकिन ये अध्यादेश विशेष रूप से राज्य के कानूनों को दुर्बल बनाता है। इस बारे में पूछे जाने पर, कृषि मंत्री ने कथित तौर पर दावा किया कि कृषि व्यापार संविधान की केंद्रीय सूची में है और इसीलिए वे इस अध्यादेश को लाए हैं।

यह ईसीए में बदलाव के साथ तफ़सील से काम करेगा: व्यापारी जितना चाहें उतना स्टॉक रखने में सक्षम होंगे। यह बड़ी कृषि-प्रसंस्करण यानि कृषि उत्पाद बनाने वाली कंपनियों को भी मदद करेगा, जिसमें विशाल विदेशी कंपनियाँ भी शामिल हैं, जो खुद के लाभ की खोज में स्वतंत्र रूप से खाद्यान्न या यहां तक कि सड़ने वाले उत्पाद की खरीद सस्ते में करेंगे। उदाहरण के लिए, एक बिस्कुट या ब्रेड उत्पादक अपनी इच्छा के अनुसार गेहूं का स्टॉक खरीदेगा और उसका स्टॉक करेगा, इससे गेहूं की कीमतों पर या गेहूं की उपलब्धता पर बड़ा प्रभाव पड़ सकता है, जो देश के कई हिस्सों में एक मुख्य खुराक़ है।

इस प्रकार, इस अध्यादेश के साथ, कृषि-उत्पादन व्यापार की पूरी प्रणाली का निजीकरण कर दिया गया है। अध्यादेश कानूनी उपायों की एक विस्तृत प्रणाली प्रदान करता है यदि भुगतान शर्तों के अनुसार नहीं किए जाते हैं। लेकिन, क्या छोटे किसान बड़ी कंपनियों को उस अदालत में ले जाएंगे जहां मामले को सालों घसीटा जाता हैं?

ठेके पर खेती 

तीसरा अध्यादेश इस बात का करार देता है कि किसान किस तरह से ठेके पर खेती करने के लिए प्रायोजक पार्टी के साथ समझौता कर सकता हैं, अर्थात, एक निश्चित मूल्य पर निश्चित मात्रा में कुछ तय उपज की खेती प्रदान करना। देश के विबिन्न हिस्सों में यह व्यवस्था पहले से ही चलन में है। एक निश्चित पैसे के वादे के कारण किसानों को यह व्यवस्था लाभकारी दिख सकती है।

लेकिन यहाँ इसकी कुछ खामियां मौजूद हैं:

पेशकश की गई कीमतें भविष्य में गिर सकती हैं क्योंकि प्रायोजक पार्टी (आमतौर पर एक बड़ी कंपनी, जो अक्सर कृषि-प्रसंस्करण में शामिल होती है) अपने हितों के मद्देनजर कीमतों का निर्धारण करेगी;

कंपनियां किसानों को कुछ खास किस्म की फसलों को उगाने के लिए बोल सकती हैं कैसे कि आलू (चिप्स के लिए) या टमाटर (केचप के लिए) और इस तरह का कोई भी कदम देश के खाद्यान्न उत्पादन को प्रभावित करेगा, जिससे अन्य कंपनियों के खाद्यान्न को आयात करने के दरवाजे खुल जाएंगे। दूसरे शब्दों में, देश की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है;

किसानों और कंपनियों के बीच समझौता असमान होगा क्योंकि कंपनी के पास कहीं अधिक संसाधन और ताक़त है। इसलिए, विवाद या शर्तों का समाधान बहुत असमान और अन्यायपूर्ण होगा;

नकदी फसल और अन्य जोतदारों को बाहर फेंक दिया जाएगा, हालांकि अध्यादेश कहता है कि उन्हें बाहर नहीं फेंका जाएगा। इसका अर्थशास्त्र भूमि मालिकों को बेदखली के  लिए प्रेरित करेगा।

कृषि श्रमिकों और उनके वेतन या अन्य अधिकारों का इस नई व्यवस्था में कोई स्थान नहीं होगा।

संक्षेप में, यह बदलाव किसानों के खिलाफ है और संतुलन को व्यापारिक घरानों और बड़े व्यापारियों के पक्ष में बदलकर रख देता है, जिसमें विदेशी एकाधिकार की कंपनियाँ भी शामिल होंगी।

एक पैकेज के रूप में देखा जाए तो ये तीन अध्यादेश, वर्तमान प्रणाली को बहुत अधिक व्यापार और व्यापारी-अनुकूल व्यवस्था के रूप में स्थापित कर देंगे। इन परिवर्तनों का लाभ उठाने के लिए न तो किसान, कृषि मजदूर और न ही भारत में आम नागरिक (उपभोक्ता) सामने आ पाएंगे। ये सभी बदलाव घरेलू और विदेशी दोनों तरह के एग्री-ट्रेडर्स या कृषि व्यापार और एग्री-प्रोसेसिंग कंपनियों के लिए बढ़े हुए मुनाफे का दरवाजा खोलना है।

सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों से लेकर स्वास्थ्य सेवा तक, शिक्षा से लेकर रक्षा तक और प्राकृतिक संसाधनों से लेकर अंतरिक्ष कार्यक्रम तक - यह फैसला मोदी सरकार द्वारा हर काम को निजीकरण करने के समग्र जोर के साथ फिट बैठता है। और यह सब "आत्मनिर्भर भारत" के निर्माण के नाम पर किया जा रहा है!

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

Explained: How Changes in Agri-Produce Trade Laws Will Turn Hunger into Profit-Making Business

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