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महामारी से निपटने में मोदी की विफलता से क्या हो सकता है भारतीय राजनीति में बदलाव

तथाकथित आकांक्षी भारत, इस समय पूर्व में रचे गये इस एक मिथक का दुष्परिणाम झेल रहा है कि मोदी के ‘गतिशील’ नेतृत्व में भारत ने कोरोना वायरस पर विजय पा ली है, अब उसकी दूसरी मारक लहर आने के बाद उनका क्रोध और हताशा जाहिर है कि चरम पर होगा।
महामारी से निपटने में मोदी की विफलता से क्या हो सकता है भारतीय राजनीति में बदलाव
चित्र दि ट्रिब्यून के सौजन्य से 

नई दिल्ली के अपोलो अस्पताल में  27 अप्रैल 2021 जनता के हिंसक गुस्से का प्रदर्शन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसकी सरकार के लिए एक गहन राजनीतिक चिंता का विषय होना चाहिए। यह कोविड-19 महामारी की दूसरी विनाशकारी लहर, जिसने पूरे भारत को अपनी गिरफ्त में ले चुका है, उसका पूर्वानुमान लगा सकने में मौजूदा सत्ता की अक्षमता-विफलता के विरुद्ध प्रबल जन असंतोष के खदबदाने का संकेत है। 
 
बहस का मुद्दा यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी क्या स्वयं के सर्वश्रेष्ठ प्रशासक होने की परिश्रमपूर्वक तैयार की गई और बहुप्रचारित की गई अपनी छवि की सुरक्षा करेंगे, अथवा, अपनी राजनीतिक जमा-पूंजी में-ज्यादा या कम-कटाव होते देखना पसंद करेंगे। यह तो आने वाले समय में ही पता चलेगा परंतु इसका एक संभावित संकेत 2 मई को घोषित होने वाले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव परिणामों से मिल सकता है।
 
खासकर, छठे, सातवें और आठवें चरणों में 114 सीटों के लिए हुए चुनावों के नतीजों पर गौर करना होगा। इन चरणों के चुनाव, 22 26 और 29 अप्रैल को हुए हैं और संयोग से इन्हीं तारीखों में देश में कोविड-19 से संक्रमित होने वाले मामले की रोजाना दर भी भयानक ऊंचाई पर पहुंच गई है। यही वह समय है, जब  पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी  ने चुनाव आयोग से बार-बार अनुरोध किया कि वह बाकी चरणों के चुनाव को एक साथ कराने पर विचार करे और राजनीतिक दलों के सघन प्रचार अभियान पर रोक लगाए। 
 
पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष और सांसद राहुल गांधी ने भी कोविड-19 के संक्रमण के खतरनाक स्तर पर पहुंचने का हवाला देते हुए सामान्य जन जीवन को संकट से बचाने के लिए अपना चुनाव प्रचार अभियान स्थगित कर दिया था।  इसके विपरीत, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने  अपनी चुनाव रैलियां को रोकने का फैसला तब किया जब भारत निर्वाचन आयोग ने बड़ी-बड़ी राजनीतिक सभाओं पर रोक लगा दी  और, जब  प्रचार अभियान में सब कुछ भुला कर मशगूल हो गये प्रधानमंत्री की राजधानी में गैर हाजिरी नोट की जाने लगी, और  वह राजनीतिक रूप से अमान्य कर दी गई। 

इस बात की अच्छी खासी संभावना है कि इन 114 सीटों के मतदाता  भाजपा के प्रति काफी कठोर होंगे और जनता की जान पर बन आये इस संकट से बहुत ही खराब तरीके से निपटने के चलते पार्टी की बंगाल में बढ़त बनाने की कवायद को नुकसान उठाना पड़ेगा।  निसंदेह इसका लाभ भाजपा के प्रतिद्वंदियों, और विशेष रूप से तृणमूल कांग्रेस को मिलेगा। 

लेकिन पश्चिम बंगाल से मिले संकेत के बावजूद,  क्या मोदी और भाजपा के खिलाफ टीपिंग पॉइंट अपने चरम पर पहुंच गया है अथवा या नहीं, इसका निर्णायक नहीं होगा क्योंकि संकट अभी गया नहीं है।  इस अनुमान के साथ कि स्थिति और विकराल होगी- इस आपदा से निपटने में चिकित्सा सेवा-सुविधाओं एवं इसका प्रबंधन करने वाली प्रशासनिक व्यवस्था के पूरी तरह ध्वस्त हो जाने से सबसे अधिक नुकसान मोदी के प्रति इस जन-विश्वास के टूटने से होगा कि वह संकट का हल करने में एक सक्षम व्यक्ति और प्रशासक हैं।  इस बात की भी तगड़ी संभावना है कि एक समय मोबाइल मोदी के सत्ता  तक पहुंचने का एक उपकरण हुआ करता था, वह अब उनके लिए अभिशाप हो सकता है। 

अपोलो की घटना

भाजपा के आधिपत्य को मिल रही राजनीतिक चुनौतियों को बेहतर तरीके से समझने के लिए अपोलो अस्पताल की घटना का समाजशास्त्रीय विश्लेषण उपयुक्त होगा। एक 62 वर्षीया कोरोना पीड़िता ने एक बिस्तर के इंतजार में रात भर छटपटा-छटपटा कर दम तोड़ दिया था। इस वाकये से बुरी तरह आहत पीड़िता के परिवार वाले और उनके परिजन अस्पताल में दोबारा लौटे थे। ये लोग पास की ही बस्ती मदनपुर खादर में रहते थे। 

एक समय यहां केवल बंजर जमीन थी, जिस पर अतिक्रमणकारियों ने अपनी झोपड़ी खड़ी कर ली थी,जो लगभग दो दशकों तक झुग्गी-झोपडी कालोनी के रूप में औपचारिक रूप से जानी जाती रही है। बाद में इसे दिल्ली विकास प्राधिकरण ने इसे पुनर्वास कालोनी के रूप विकास किया और इसे छोटे-छोटे भूखंडों में लोगों को लीज पर देना शुरू किया। दिल्ली में अन्य पुनर्वास कोलोनियों की तरह, यह भी सामाजिक तथा आर्थिक रूप से एक मिलेजुले समुदायों का घर है। 

उच्च मध्यवर्ग के रिहायशी इलाके के करीब बसी यह बस्ती शुरुआत से ही सामाजिक भेदभाव की शिकार रही है। यहां तक कि इनमें जो अमीर हो गये हैं, वे भी अपने प्रति किये जा रहे भेदभाव को महसूस करते हैं। भेदभाव यहां एक स्थिति है, जहां सालों से इन लोगों के लगातार रहते आने के बावजूद उनकी मानवीय-सामाजिक अस्मिता को उच्च मध्य वर्ग ने कभी स्वीकार ही नहीं किया है। इस कालोनी में जो लोग रहते हैं, उनसे वादा किया गया था कि मोदी राज में भारत यत्र-तत्र-सर्वत्र अपोलो अस्पतालों और सरिता विहारों जैसा ही हो जाएगा।

अपोलो अस्पताल देश के अभिजात्य निजी स्वास्थ्य संस्थानों में से एक है। लेकिन  कानून के मुताबिक उसे अपनी सुविधाओं का एक निश्चित हिस्सा गरीब तबकों से आने वाले लोगों को भी उपलब्ध कराना है। लेकिन निर्धन वर्ग से आने वाले मरीजों के लिए मुफ्त या सस्ता इलाज यहां सदा से मुहाल रहा है। या तो अस्पताल उनको ‘दुत्कार’ देता है या वे खुद ही उधर का रुख नहीं करते, इसलिए कि वे जानते हैं कि इन अस्पतालों में उन लोगों को दोयम दर्जे का इलाज मिलेगा। अब इन दोनों में से कोई भी बात हो, पर उस 62 वर्षीया महिला की मौत ने उनके परिजनों की नसों को तड़तड़ा दिया और मामला विस्फोटक स्थिति में पहुंच गया।

इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि हिंसा उस मरीज के परिजनों के समूह द्वारा की गई जो अपोलो अस्पताल में हंगामा बरपाने के इरादे से ही लौटा था। उन्होंने अस्पताल और उसके कर्मचारियों पर भी अपना गुस्सा निकाला। क्रोधित समूह का प्रहार दरअसल राजनीतिक नेतृत्व औऱ व्यवस्था के विरुद्ध था, जिसको वे परोक्ष रूप से नियंत्रित करते हैं। 

दहशत की कहानियां और एक गैरहाजिर राज्य, अपोलो अस्पताल के वाकये में एक जैसे हैं। हालांकि बेहतर देखभाल पाने वाले संपन्न मरीजों और उनके परिजनों ने भी अहिंसात्मक तरीके से अपना रोष औऱ क्षोभ व्यक्त किया। उदाहरण के लिए पत्रकार बरखा दत्त ने कोरोना से पीड़ित पिता के इलाज के दौरान अस्पताल से मिली सेवाओं और अपने अनुभवों को साझा किया था। हालांकि उनके पिता की इसी दौरान मृत्यु हो गई थी। 

बरखा ने उल्लेख किया कि किस तरह पूरी व्यवस्था ध्वस्त हो गई है; वह एम्बुलेंस जो उसके पिता को ले जाने वाला था, उसने यह कह दिया कि पहली सुविधा उसको दी जाती है, जिनकी इमरजेंसी होती है, शव को ढोने वाले वाहन कम थे और श्मशान में जगह न के बराबर थी। आखिरकार, एक जगह पर अंतिम संस्कार करने के लिए तीन-तीन परिवार आपस में झगड़ पड़े थे, तब उस संस्थान के अधिकारियों को बीच-बचाव करना पड़ा था। 

भयावह यादों की यह अकेली कहानी नहीं है, जो लोगों के दिलो-दिमाग पर स्थायी रूप से रहेगी। अगर यह महामारी और उससे फैली अफरातफरी से बचाव के लिए सरकार ने संजीदा प्रयास किये होते तो हो सकता था कि लोग निजाम की गलतियों को भूल जाते। इस बार लोग ज्यादा ही खौफ में हैं। वे केवल अपनी पीड़ा की कहानी ही याद नहीं रखेंगे, बल्कि सामूहिक वेदनाओं की कहानियों को भी याद करेंगे। लेकिन यहां एक सवाल है, क्या पीड़ा की ये कहानियां और उनकी यादें मोदी की सत्ता के खिलाफ नतीजे देंगी या नहीं? 

पिछले साल, जब सैकड़ों-हजारों प्रवासी मजदूर बेतहाशा अपने-अपने गांव और शहरों को लौट रहे थे तो बहुत सारे लोगों ने अनुमान लगाया कि इस परिघटना के चलते भाजपा को लंबे समय तक के लिए राजनीतिक नुकसान होगा। किंतु जैसा कि लगभग इसी दौरान हुए बिहार विधानसभा चुनाव में देखा गया कि इस बदइंतजामी का कलंक भाजपा के बजाय उसकी जोड़ीदार जनता दल यू और उसके नेता व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर लग गया। भाजपा अपने बूते राज्य में एनडीए में एक वरिष्ठ भागीदार बन गई। ऐसे में यह भरोसा करना मुश्किल नहीं होगा  कि यह वक्त भी गुजर जाएगा और इसकी यादें भी लोगों के जेहन से मिट जाएंगी, जैसा कि अपने घरों को बदहवास लौटते प्रवासी के मामले भी देखा गया था। या, फिर भाजपा इसकी सारी जवाबदेही राज्य सरकारों पर डाल देगी। 

हालांकि पिछली और अब की परिस्थितियों में एक मौलिक अंतर है। गत वर्ष तो दिहाड़ी मजदूरों तथा असंगठित क्षेत्र के कामगारों को ही तमाम कष्टों का सामना करना पड़ा था। लेकिन इस वक्त, वायरस ने कोई वर्ग नहीं जाना है और सबसे ताकतवर लोगों तक को अपनी चपेट में ले लिया है। यहां तक कि धनाढ्य तबकों के भी एम्बुलेंस के लिए हलकान-परेशान होने, अस्पतालों में बेड पाने की जद्दोजहद करने, दवा एवं ऑक्सीजन के सिलेंडर दौड़-भाग करने और इतना सब कुछ करने के बावजूद अगर अपनों की मौत हो गई तो उनके अंतिम संस्कार के लिए स्थान पाने के लिए लंबा इंतजार और मनुहार करना पड़ रहा है। इन खबरों के साथ भाजपा के लिए राजनीतिक चुनौतियां वृहदकाय हो गई हैं।  

यह समाज का वही हिस्सा है, जो 2014 के आम चुनाव में नरेन्द्र मोदी का जबर्दस्त समर्थक बन कर उभरा था और तभी से खुद उनका एवं हिन्दुत्व और बाजार उदारीकरण की उनकी खोजों का भी तगड़ा अनुयायी रहा है। तथाकथित आकांक्षी भारत, इस समय पूर्व में रचे गये इस एक मिथक का दुष्परिणाम झेल रहा है कि मोदी के ‘गतिशील’ नेतृत्व में भारत ने कोरोना वायरस पर विजय पा ली है, अब उसकी दूसरी मारक लहर आने के बाद उनका क्रोध और हताशा जाहिर है कि चरम पर होगा। 

अब 2022 के पहली तिमाही तक देश में अब कोई भी चुनाव नहीं होने जा रहा है। इसके बाद ही, उत्तर प्रदेश का चुनाव होना है। ऐसे में कोरोना जैसी महामारी से कारगर तरीके से नीतियां बनाने के लिए प्रदेश की मौजूदा सरकार और मोदी के पास भी निजी रूप से काफी समय होगा। इसके लिए, इस सरकार केंद्रीकरण, अक्खड़पन, प्रतिशोध लेने की भावना, अक्षमता, सामाजिक पूर्वग्रह, उग्र-राष्ट्रवाद और अयोग्य नौकरशाही से तौबा करनी होगी। हर कोई जानता है कि झूठ पर टिकी किसी सत्ता के लिए यह काफी लंबा-चौड़ा काम है। 

डर है कि यह सरकार और सत्ताधारी पार्टी अपनी मुसबतों को दूर करने के लिए अपने उसी आजमाए हुए एकमात्र तुरूप के पत्ते को फिर से चलेगी। 

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के चिर विरोधी ने कुछ साल पहले, एक बेहद ईमानदार पल में यह स्वीकार किया  था कि “ भाजपा ने देश की आबादी के एक व्यापक हिस्से के लोगों को मना लिया है कि मोदी सरकार हालांकि अनेक लिहाज से विफल हो गई है और उसने अपने किये हुए वादे को पूरा नहीं किया है पर हमने लोगों के जेहन में यह बात बैठा दी है कि हमने ‘मुसलमानों का इंतजाम’ कर दिया है। और यही वह वजह है, जो एक के बाद एक चुनाव में भाजपा को जीत दिलाएगी।” 

कोई व्यक्ति इससे रजामंद नहीं हो सकता है और यह आपत्ति भी जता सकता है कि अभी बहुमत ने बहुसंख्यक भारत के विचार को नहीं माना है। लेकिन, इस क्षण भी, बीते हालिया हफ्तों और आने वाले दिनों को भावी इतिहासकार मोदी के लिए संकट का एक बिंदु मानेंगे। इसका डर अधिक है कि एक बार फिर साम्प्रदायिक दंगे भड़का कर और धार्मिक पहचान के आधार पर लोगों का ध्रुवीकरण कर पलड़े को अपने पक्ष में झुकाया जाएगा। 

इस चिंता के साथ लोगों को जिंदा रहना होगा कि हालांकि पछतावे के हालात से गुजरते हुए मुसीबत के ये दिन भी दूर हो जाएंगे। 
 
(लेखक एनसीआर में रहते हैं और पत्रकार हैं। उनकी किताबों में,“दि आरएसएस: आइकॉन ऑफ दि इंडियन राइट एंड नरेन्द्र मोदी :  दि मैन, दि टाइम्स” भी शामिल है। उन्हें @NilanjanUdwin पर ट्वीट किया जा सकता है। )
 
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।

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