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तमिलनाडु में ज़बरदस्त बयानबाजी और हल्के प्रदर्शन के साथ बीजेपी का सत्ता संघर्ष

द्रविड़ पार्टियों के विकल्प बनने के अपने दावों के उलट,भाजपा अब भी क्षेत्रीय पार्टियों पर ही निर्भर है ताकि तमिलनाडु में कुछ सीटें जीतकर वह ख़ुद को बस बचाये रख सके।
तमिलनाडु में ज़बरदस्त बयानबाजी और हल्के प्रदर्शन के साथ बीजेपी का सत्ता संघर्ष

भारतीय जनता पार्टी (BJP) के लिए तमिलनाडु एक ऐसी समस्या बना हुआ है,जिससे पार पाना आसान नहीं है। अपने लम्बे-चौड़े दावों के बावजूद,भाजपा के पिछले चुनावी प्रदर्शन उसकी दयनीय स्थिति की गवाही देते हैं। इस तहर,भगवा पार्टी कुछ ही इलाक़ों तक सीमित अपने प्रभाव के साथ अब भी इस दक्षिणी राज्य में एक मामूली ताक़त ही बनी हुई है।

द्रविड़ पार्टियों के विकल्प बनने के अपने दावों के उलट,भाजपा कुछ सीटें जीतने के लिए अब भी क्षेत्रीय दलों पर निर्भर है। भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व ने द्रविड़ आंदोलन के दो बड़े नेताओं-एम.करुणानिधि और जे.जयललिता के निधन के बाद ही राज्य पर अपनी निगाहें जमा दी थीं।

इस बीच ऐसे छोटे-छोटे समूह,जो अलग-अलग नामों और संघ परिवार से समर्थित नेताओं की अगुवाई में राज्य भर में संचालित संगठन अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ अभियान चला रहे हैं और लंबे समय से बहुमत के आधार को मज़बूत करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन इसमें उन्हें सीमित कामयाबी ही मिल पायी है।

विधानसभा चुनावों में सीमित प्रभाव

भाजपा राज्य के इतिहास में अब तक महज़ दो बार ही अपने सदस्यों को विधानसभा में भेजने में कामयाब हो पायी है। पार्टी 1996 में अपने दम पर लड़ने के बाद विधानसभा में इकलौता सदस्य भेजने में कामयाब रही, और 2001 में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) के समर्थन से उसके चार सदस्य विधानसभा पहुंच पाये थे। बाक़ी चुनावों में भाजपा अपने दम पर या छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों के साथ लड़ती रही है और खाली हाथ लौटती रही है।

पार्टी 2004 के बाद जहां कई राज्यों में अपने वोट शेयर में सुधार करने में कामयाब रही,वहीं तमिलनाडु इस लिहाज़ से एक अपवाद बना हुआ है। यहां 2001 को छोड़कर भाजपा का वोट प्रतिशत कमोवेश स्थिर रहा है, जो 3% से भी कम रहा है।

फ़ोटो: प्रकाश आर.

कुछ ज़िलों,ख़ासकर कन्याकुमारी में पार्टी का बढ़ता प्रभाव चिंता की वजह ज़रूर है। इस जिल़े में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यकों की आबादी बराबर है। पार्टी एआईएडीएमके की क़ीमत पर इस ज़िले के कुछ विधानसभा क्षेत्रों में दूसरे स्थान पर आने में कामयाब रही है।

डीएमके और ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (AIADMK),दोनों ने अलग-अलग मौक़ों पर भाजपा को पैर जमाने में मदद की है। लेकिन,2001 के बाद से द्रमुक ने भाजपा से मुंह मोड़ लिया है,जबकि एआईएडीएमके इसे 2021 के विधानसभा चुनाव में जीवनदान देती हुई दिख रही है।

आम चुनावों में प्रदर्शन

तमिलनाडु में भाजपा का सितारा यहां भारतीय संसद के लिए हुए चुनावों में भी बेहतर नहीं है। हालांकि,पार्टी ने 1999 में डीएमके और 1998, 2004 और 2019 में एआईएडीएमके के साथ गठबंधन किया था,लेकिन 1999 में बीजेपी को सिर्फ़ चार सीटें मिली थीं। पार्टी 2014 में एक सीट के साथ लौटी थी,जबकि बाक़ी सभी चुनावों में उसे एक  भी सीट नहीं मिली थी। भाजपा ने 2009 और 2014 में अभिनेता,विजयकांत की देसिया मुरपोक्कु द्रविड़ कड़गम (DMDK) के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था।

फ़ोटो: प्रकाश आर.

लोकसभा चुनावों में भी भाजपा का वोट शेयर विधानसभा चुनावों में जीती गयी सीटों के प्रदर्शन के ही समान है। राज्य के नेताओं को केंद्रीय मंत्रालय में जगह देने का भी कोई लाभ नहीं मिल पाया है। 2014-19 के दौरान एकमात्र सांसद और मंत्री रहे पी.राधाकृष्णन अपने चार सहयोगियों के साथ 2019 में धराशायी हो गये थे।

भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार की तरफ़ से अपनायी गयी नीतियों का असर पार्टी की भारी हार का एक अहम कारक रहा है। हिंदी को थोपे जाने की बार-बार कोशिश, NEET की शुरुआत,जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध, स्टरलाइट प्लांट का समर्थन- इन सभी का राज्य के मतदाताओं की मानसिकता पर उल्टा असर पड़ा है।

इसका नतीजा यह हुआ है कि भाजपा विरोधी लहर ने उसके नेताओं की तरफ़ से सामने रखी गयी तमाम अवधारणाओं को नामंज़ूर करते हुए पार्टी को किनारे कर दिया है।

नेतृत्व संकट से गुड़-गोबाड़ होती उम्मीद

भाजपा राज्य में अपने पांव पसारने को लेकर लम्बे-चौड़े दावे करती रही है,जबकि हक़ीक़त कुछ और है। एक भरोसेमंद और स्वीकार्य नेता की कमी इस पार्टी के लिए एक चुनौती बनी हुई है। पार्टी की सबसे मुखर नेताओं में से एक,डॉ.तमिलिसै सौंदरराजन,2019 में तूतुकुड़ी लोकसभा क्षेत्र से कनिमोझी से मात खाने के बाद तेलंगाना की राज्यपाल बनायी गयीं। उनकी जगह किसी दूसरे नेता को लाने की तलाश में महीनों लग गये,इससे पार्टी के भीतर का नेतृत्व संकट उजागर हो गया है। 

एच.राजा सहित कई अन्य नेता विवादास्पद रहे हैं,जो पार्टी के संकट को बढ़ाते रहते हैं। अभी हाल ही में भाजपा अपने पाले में ऐसे कई लोगों को शामिल करती रही है,जो विवादों में शामिल रहे हैं। कई 'हिस्ट्रीशीटर' ज़िला स्तरीय पदों पर नियुक्त होने में कामयाब रहे हैं, जिससे पार्टी के भीतर असंतोष की खदबदाहट पैदा हो गयी है।

फ़्रंटलाइन पत्रिका के संपादक,आर.विजय शंकर कहते हैं, "भाजपा बौद्धिक रूप से दिवालिया है। पार्टी के विभिन्न पदों पर कोई विश्वसनीय और सम्मानजनक नेतृत्व नहीं है।जब मैं टेलीविज़न बहसों में भाग लेता हूं,तो यह दिवालियापन उन भाजपा प्रतिनिधियों में एकदम साफ़ तौर पर दिखायी दे जाता है,जो व्यक्तिगत हमलों और छींटाकशी का सहारा लेते हैं, वे अपना और अपनी नीतियों का बचाव भी नहीं कर पाते हैं।"  

वेत्रिवल यात्रा की नाकामी

भगवान मुरुगन के सम्मान में एक पाठ-'स्कंद षष्ठी कवचम' पर हुए विवाद के बाद भाजपा ने 'हिंदू' वोटों को मज़बूत करने के लिए महामारी के दौरान एक यात्रा निकाली थी। लेकिन,जनता का समर्थन नहीं मिल पाने के चलते यह वेत्रिवल यात्रा बुरी तरह असफल रही। वोट बैंक की राजनीति को लेकर अपने इरादों का संकेत देते हुए पार्टी ने 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद विध्वंस की सालगिरह के दिन इस यात्रा के समापन की योजना बनायी।

दिल्ली में कोविड-19 के फ़ैलाये जाने को लेकर तबलीग़ी जमात पर आरोप लगाने वाली इसी पार्टी ने राज्य सरकार के लगाये प्रतिबंध को दरिकिनार कर दिया था और राजनीतिक फ़ायदा उठाने के लिए बेतरह परेशान इस पार्टी ने अपनी वेत्रिवल यात्रा को जारी रखा था।

पार्टी ने इस नाकामी के बाद डीएमके और एआईएडीएमके दोनों पर हमला किया था, लेकिन  इसके बाद आगामी विधानसभा चुनावों के लिए इसने एआईएडीएमके के साथ रहने का फ़ैसला किया। इसके अलावा,अभिनेता रजनीकांत ने राजनीति से दूर रहने का फ़ैसला कर लिया है, इस तरह पार्टी के पास अब बहुत कम विकल्प बच गये हैं।

छोटे-छोटे तत्वों का इस्तेमाल

पिछले एक दशक में ऐसे विभिन्न दक्षिणपंथी तत्वों का दबदबा समुचित रूप से बढ़ा है,जो राज्य के लिए ख़तरे का संकेत हैं। अलग-अलग नामों से ऐसे सैकड़ों दक्षिणपंथी दल और छोटे-छोटे समूह काम कर रहे हैं, हालांकि उन  सबका मक़सद मिल-जुलकर 'हिन्दू' वोटों को एकजुट करना है। लेकिन,उनके कामयाब होने की दर भाजपा की निराशा के लिहाज़ से बहुत दयनीय रही है।

विभिन्न दक्षिणपंथी ताक़तों की तरफ़ से लम्बे समय से इस बात की कोशिश होती रही है कि विनायक की मूर्ति विसर्जन को 'संवेदनशील घटना’ बना दी जाये। इसके लिए विसर्जन रैलियों को जानबूझकर अल्पसंख्यकों,ख़ासकर मुसलमानों की बस्तियों और पूजा स्थलों से होकर ले जाने की योजना बनायी जाती रही है। कन्याकुमारी,कोयम्बटूर,तिरुप्पूर,रामनाथपुरम्, तेनकासी और चेन्नई जैसे ज़िले,जहां अल्पसंख्यक आबादी काफ़ी है,वहां इस आयोजन के दौरान लोगों में डर बना रहता है।

राज्य भर में बहुत अधिक संख्या में धार्मिक आयोजन होते हैं, लेकिन कहीं भी सांप्रदायिक तनाव का ख़तरा नहीं होता। आलोचकों का कहना है कि भाजपा और संघ परिवार के दूसरे संगठनों द्वारा चुनावी फ़ायदे उठाने वाले निर्धारित एजेंडा सद्भाव और धार्मिक एकता की क़ीमत पर राजनीतिक लाभ के लिए तनाव पैदा कर रहा है।

एआईएडीएमके का भाजपा के साथ गठबंधन जारी रखने का फ़ैसला एआईएडीएमके के लिए एक झटका हो सकता है। भाजपा के पास तो खोने के लिए कुछ भी नहीं है,लेकिन एआईएडीएमके का भविष्य दांव पर ज़रूर लगा हुआ है, क्योंकि भगवा पार्टी कथित तौर पर राज्य में अपनी बढ़त के लिए इस पार्टी का पूरी तरह शिकार करने की कोशिश कर रही है।

वेत्रिवल यात्रा की फ़ोटो,सिर्फ़ प्रतीकात्मक इस्तेमाल के लिए| फ़ोटो:साभार: न्यूज़मिनट

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे

With High Rhetoric and Low Performance, BJP Grapples for Power in Tamil Nadu

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