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आइएमएफ की मौजूदगी में श्रीलंका के सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र को ख़तरा 

जहाँ एक ओर मौजूदा आर्थिक संकट के कारण स्वास्थ्य क्षेत्र पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा है, वहीं दूसरी ओर संभावित आईएमएफ सौदे के हिस्से के तौर पर जिन शर्तों को लागू किया जायेगा उसके चलते दीर्घकालीन ढांचागत चुनौतियों से दो-चार होना पड़ सकता है।  
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चित्र साभार: न्यूज़फर्स्ट श्रीलंका 

श्रीलंका के आम नागरिकों और सरकार के बीच बने गतिरोध में, स्वास्थ्य क्षेत्र पूरी तरह से पतन की दहलीज पर खड़ा है क्योंकि देश के पास आवश्यक दवाओं का स्टॉक खत्म हो चुका है। 

अस्पतालों में दवाओं और चिकित्सा उपकरणों की भारी किल्लत के कारण अप्रैल में श्रीलंका में स्वास्थ्य संकट बेहद खतरनाक स्तर पर पहुँच गया था।  अस्पतालों, डॉक्टरों और श्रमिक संगठनों की ओर से सोशल मीडिया पर आवश्यक दवाओं के लिए मदद करने के अनुरोध का आह्वान किया जा रहा है, जिसके अभाव में कई स्वास्थ्य सेवाएं पहले ही पूरी तरह से ठप हो चुकी हैं।  

एनेस्थेटिक दवाओं की कमी के चलते, स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक, डॉ. असेला गुणावर्धने ने घोषणा की कि आपातकालीन सर्जरी को छोड़कर बाकी सभी सेवाओं को निरस्त कर दिया गया है। द सन्डे मॉर्निंग की रिपोर्ट के अनुसार, अप्रैल के मध्य तक, करीब 124 चिकित्सा सामग्रियां स्टॉक में खत्म हो चुकी थीं।  

दवाओं की कमी के चलते अस्पतालों को उपकरणों या वैकल्पिक दवाओं को पुनः उपयोग करने के लिए बाध्य होना पड़ा है। इससे संबंधित डाक्टरों, चिकित्सा अधिकारियों और यूनियनों के द्वारा सरकार से इस बारे में कार्यवाही करने की मांग को लेकर धरना प्रदर्शन आयोजित किये जा रहे हैं। 

वर्तमान में, विदेशी मुद्रा का भारी संकट होने के कारण श्रीलंका के अस्पतालों में आयातित आपातकालीन दवाओं और चिकित्सा उपकरणों तक पहुँच नहीं बन पा रही है। इस स्थिति ने स्वास्थ्य अधिकारियों को अस्पतालों में आपात स्थिति के साथ-साथ गंभीर रोगियों तक के लिए कार्य संचालन में कटौती करने के लिए बाध्य कर दिया है। 

अब तीन महीने से भी अधिक समय से श्रीलंका को चौतरफा गंभीर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा है, और हालात नियंत्रण से बाहर हो गये हैं, जिसके परिणामस्वरूप पूरे देश भर में ईंधन, खाद्य पदार्थों और दवाओं की भारी कमी हो गई है। जारी सामाजिक-आर्थिक संकट को नियंत्रित कर पाने में पूरी तरह से विफल रहने के कारण वर्तमान राष्ट्रपति गोटाबया राजपक्षे और उनकी सरकार के इस्तीफे की मांग को लेकर हताश नागरिक 9 अप्रैल से सड़कों पर उतर आये हैं।

ये विरोध प्रदर्शन कई हफ्तों से जारी हैं, जबकि सरकार की ओर से पद त्यागने की आम लोगों की मांग को किसी तरह चकमा दिया जा रहा है। 

स्वास्थ्य क्षेत्र में संकट पर अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान तब आकर्षित हुआ, जब गवर्नमेंट मेडिकल ऑफिसर्स एसोसिएशन (जीएमओए) के द्वारा 4 अप्रैल को “सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल” की घोषणा कर दी गई, जिसने अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के द्वारा दवाओं और उपकरणों को दान देने के अनुरोध करने के लिए प्रेरित किया। 

अभी तक देखने में आया है कि विश्व बैंक (डब्ल्यूबी) स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए कुल 1 करोड़ डॉलर की मदद प्रदान करने पर सहमत हो गया है। एशियाई विकास बैंक (एडीबी) की ओर से कुल 1.4 करोड़ डॉलर की सहायता प्राप्त होने की उम्मीद है। हालाँकि, अधिकारियों ने चेतावनी दी है कि इन मदों को प्राप्त करने में छह महीने तक का समय लग सकता है। सिंगापुर रेड क्रॉस (एसआरसी) ने भी समर्थन देने का वादा किया है और सार्वजनिक रूप से धन इकट्ठा के लिए अपील शुरू कर दी है।   

श्रीलंका को अगले तीन महीनों के लिए आवश्यक दवाओं के आयात के लिए लगभग 6 करोड़ डॉलर की तत्काल आवश्यकता है। इसके अलावा स्टेट फार्मास्यूटिकल कारपोरेशन (एसपीसी) को तत्काल 1.2 करोड़ डॉलर की आवश्यकता है।    

श्रीलंका मेडिकल एसोसिएशन (एसएलएमए) ने हाल ही में एक बयान जारी करते हुए दवा की मौजूदा स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि “इससे देश में एक अभूतपूर्व मानवीय संकट खड़ा हो सकता है।”

“निजी एवं सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के बीच में एक बड़ा अंतर पैदा कर दिया गया है”

श्रीलंका पिछले 80 वर्षों से सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का पालन करता आ रहा है, जो निवारक, उपचारात्मक एवं पूर्व स्वास्थ्यकर स्थिति में लाने वाली स्वास्थ्य देखभाल में विभक्त थी, जो कि अभी तक वितरण के बिंदु तक पूरी तरह से निःशुल्क है। यह सामुदायिक चिकित्सा की एक अनूठी संस्था से निर्मित की गई है: एक “स्वास्थ्य ईकाई” के तौर पर। एक ऐसी स्वास्थ्य ईकाई जिसका सारा जोर सामुदायिक स्तर पर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के प्रावधान पर बना हुआ है, जिसे एक चिकित्सा अधिकारी और क्षेत्रीय स्वास्थ्य कर्मियों की टीम के जरिये प्रदान किया जाता है। 

पीपुल्स डिस्पैच ने श्रीलंका की स्वास्थ्य सेवा की मौजूदा स्थिति के बारे में जानने के लिए कोलंबो विश्विद्यालय में सामुदायिक चिकित्सा विभाग के प्रोफेसर डॉ. मनुज सी. वीरासिंघे से बातचीत की। 

उन्होंने बताया, “यदि किसी नागरिक के कुल स्वास्थ्य खर्च के साथ निजी स्वास्थ्य पर व्यय की तुलना की जाए, तो हमने इस दौरान लगातार अपनी जेब से खर्च पर होने वाली उत्तरोतर वृद्धि के प्रक्षेपवक्र को देखा है। श्रीलंका में स्वास्थ्य क्षेत्र लगभग पूरी तरह से सार्वजनिक वित्तपोषण पर निर्भर रहा है। नागरिकों के सभी खर्चों को साधारण बीमा योजना के तहत कवर किया जाता रहा है। वर्तमान में, निजी स्वास्थ्य सेवा बीमा तंत्र की कमी के चलते, निजी स्वास्थ्य सेवा और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के बीच में एक बड़ा अंतर पैदा हो गया है, जिसे नागरिकों की जेब से वित्तपोषित किया जा रहा है।”

पिछले पांच से दस वर्षों के दौरान, स्वास्थ्य क्षेत्र में तेजी से निजीकरण हुआ है। कोलंबो, कैंडी और जाफना जैसे शहरी केन्द्रों में कई निजी स्वास्थ्य प्रैक्टिस खूब फली-फूली हैं। 

1970 के दशक से, श्रीलंका में स्वास्थ्य क्षेत्र के चिकित्सा अधिकारियों को क़ानूनी तौर पर सामान्य काम के स्घ्घंटों के बाद निजी तौर पर चलने वाले स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के पास सलाहकार के तौर पर काम करने की इजाजत दे दी गई थी। इसके चलते सरकारी अस्पतालों पर दबाव बढ़ता चला गया और दवाओं की किल्लत लगातार होने लगी है। 

वीरासिंघे ने आगे कहा, “श्रीलंका में सरकारी अस्पतालों में कार्यरत करीब 80 प्रतिशत कर्मचारियों ने अपने नियमित काम के घंटों के बाद या सेवानिवृत्त होने के बाद सलाहकार के तौर पर काम करना शुरू कर दिया था। इस प्रकार अपनी सरकारी नौकरियों को बरकरार रखते हुए उन्होंने लगातार बढ़ रहे निजी क्षेत्र को मानव संसाधन ढांचा प्रदान करने का काम किया है।” उनका तर्क था कि संभव है कि निजी अस्पतालों के लिए अभी भी राजकीय अस्पतालों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में मुश्किलें आ रही हों। लेकिन कब तक? 

आईएमएफ के आगमन के साथ, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा निजीकरण के खतरे के तहत 

अधिकतम ऋण सीमा एवं मौद्रिक अदला-बदली समझौते स्थायी वित्त पोषण तंत्र प्रदान कर पाने में विफल साबित हो जाने, और पिछले महीने विरोध प्रदर्शनों में तेजी आ जाने के बाद, राजपक्षे की सरकार ने अंततः आईएमएफ से संपर्क साधा है। खबर है कि आईएमएफ और विश्व बैंक स्प्रिंग मीटिंग के दौरान 23 अप्रैल को हुई वार्ता में मैनेजिंग डायरेक्टर क्रिस्टालिना जोर्जिवा और श्रीलंकाई वित्त मंत्री अली साबरी के बीच संपन्न हुई बैठक में आईएमएफ-सहायता कार्यक्रम के लिए श्रीलंका के मंत्री के अनुरोध पर “सफल तकनीकी चर्चा” हुई है। 

आइएमएफ के पुनर्गठन के खतरे का अर्थ श्रीलंका के स्वास्थ्य क्षेत्र में दो चीजें होने जा रही हैं: राज्य के स्वामित्व वाली पहलकदमियों से पीछे हटने और स्वास्थ्य ईकाई प्रणाली के निजीकरण को जोरदार तरीके से आगे बढ़ाया जायेगा। वीरासिंघे ने कहा, आईएमएफ के दिशानिर्देशों के मुताबिक मितव्ययिता उपायों को लागू करने से इस दौर में जब श्रमिक वर्ग के नागरिकों के लिए भोजन और ईंधन की भारी कमी का नतीजा “राज्य-नागरिक संबंधों के लिए एक विनाशकारी स्थिति” साबित हो सकती है, क्योंकि “स्वास्थ्य एवं शिक्षा ही वो दो क्षेत्र हैं जिनमें सबसे अधिक सरकारी खर्च किया जाता है।” 

साभार : पीपल्स डिस्पैच

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