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ख़बरों के आगे-पीछे: राहुल गांधी को पप्पू के बाद अचानक रावण बताने का सबब

यह बड़ी हैरानी की बात है कि पप्पू प्रचारित करने के जिस प्रोजेक्ट पर भाजपा ने अरबों रुपए खर्च किए उसे छोड़ कर अब राहुल के मामले में दूसरा प्रोजेक्ट शुरू कर दिया है।
Rahul

राहुल पहले पप्पू थे और अब रावण हो गए!

भाजपा ने बड़े व्यवस्थित तरीके से कांग्रेस नेता राहुल गांधी की एक छवि गढ़ी है। कम बुद्धि के अनिच्छुक राजनेता के तौर पर उन्हें पप्पू के नाम से प्रचारित किया गया है। लेकिन पिछले साल जब से राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा की है उसके बाद से उनके लिए इस विशेषण का इस्तेमाल लगभग बंद हो गया है। अब उनको कम बुद्धि वाले नेता की बजाय बहुत शातिर और देश विरोधी नेता बताया जाने लगा है। यह बड़ी हैरानी की बात है कि पप्पू प्रचारित करने के जिस प्रोजेक्ट पर भाजपा ने अरबों रुपए खर्च किए उसे छोड़ कर अब राहुल के मामले में दूसरा प्रोजेक्ट शुरू कर दिया है। दूसरा प्रोजेक्ट उनको रावण बताने का है। भाजपा ने सोशल मीडिया में एक पोस्टर जारी किया, जिसमें राहुल को कई सिर वाले रावण की तरह दिखाया गया। उन्हें अमेरिकी कारोबारी जॉर्ज सोरोस से भाजपा पहले से जोड़ती रही है लेकिन इस बार सोरोस के साथ जोड़ते हुए राहुल को रावण बता दिया गया। लेकिन यह तुलना बिल्कुल गलत है क्योंकि रावण तो महाविद्वान और इतना प्रतापी था कि इंद्र, लक्ष्मी और कुबेर उसके यहां चाकर थे। सोने की लंका मे रहता था और पुष्पक विमान से उड़ता था। यह सब तो राहुल के पास नहीं बल्कि उसके पास है जो सत्ता में है। राहुल तो अभी सड़कों की खाक छान रहे हैं। बहरहाल, सवाल है कि भाजपा ने अचानक पप्पू से रावण में राहुल का जो ट्रांसफॉर्मेशन किया है, उसका क्या कारण है? भाजपा राहुल को हिंदू मायथोलॉजी के सबसे बड़े खलनायक की तरह दिखा रही है। इसका मतलब है कि वह राहुल को गंभीर चुनौती मानने लगी है। अब मजाक उड़ाना बंद है और उसे लग रहा है कि राहुल को गंभीरता से निशाना बनाने की जरूरत है।

पांच विधानसभाओं का शर्मनाक रिपोर्ट कार्ड

चुनावों में हमेशा सरकारों के कामकाज की समीक्षा होती है और उस आधार पर वोट मांगे जाते हैं और उसी आधार पर विपक्ष की ओर से सरकार पर हमला किया जाता है। लेकिन ऐसा कभी नहीं होता है कि किसी चुनाव में विधानसभा के कामकाज की रिपोर्ट आई हो और उसकी समीक्षा कर उसके आधार किसी ने वोट मांगे हो। सवाल है कि क्या यह जानना जरूरी नहीं है कि जिस विधानसभा के लिए चुनाव हो रहे हैं, पांच साल में उसकापरफॉरमेंस कैसा रहा है? उसने कितना और क्या काम किया है?

एक रिपोर्ट के मुताबिक अभी जिन पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं, वहां की विधानसभाओं का कामकाज औसत से भी कम रहा है। आखिरी यानी चुनावी साल में हुए आकलन के मुताबिक इन पांचों विधानसभाओं की बैठक हर साल औसतन 30 दिन भी नहीं हुई है। सबसे ज्यादा राजस्थान विधानसभा की कार्यवाही हर साल औसतन 29 दिन चली है। तेलंगाना में तो सालाना औसत 15 दिन का है। मध्य प्रदेश में हर साल औसतन सिर्फ 21 दिन विधानसभा की कार्यवाही चली है। सिर्फ बैठकों का मामला नहीं है। विधानसभाओं में विधेयकों पर चर्चा भी कम होती जा रही है और विधेयकों को संबंधित विभागों की समितियों के पास भी कम ही भेजा जाता है।

पीआरएस लेजिस्लेटिव की रिपोर्ट के मुताबिक इन पांचों विधानसभाओं में 48 फीसदी विधेयक पेश होने के दिन या उसके अगले दिन पास हो गए। मिजोरम में यह औसत सौ फीसदी रहा। राज्य की मौजूदा सरकार ने इस कार्यकाल में 57 विधेयक पास कराए और सारे विधेयक जिस दिन पेश हुए उसी दिन या उसके अगले दिन पास हो गए।

जाति गणना चुनावी मुद्दा बना

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में जातियों की गिनती का मामला सबसे बड़ा मुद्दा बन गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही जातिगत जनगणना को देश को जात-पात पर बांटने की साजिश बताएं लेकिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव जाति गणना का मामला बडा मुद्दा बन गया है। बिहार में जाति गणना के आंकड़े सामने आने के बाद ओडिशा ने भी जाति गणना का आंकड़ा जारी किया है, जिसके मुताबिक ओडिशा में 39 फीसदी से थोड़ी ज्यादा पिछड़ी जातियों की आबादी है। कर्नाटक ने भी कहा है कि उसका भी आंकड़ा जल्दी ही जारी हो सकता है। ये चुनावी राज्य नहीं हैं लेकिन बिहार, ओडिशा और कर्नाटक की देखा-देखी मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी इसकी चर्चा तेज हो गई। मध्य प्रदेश के कांग्रेस के प्रभारी रणदीप सुरजेवाला ने प्रेस कॉन्फ्रेंस करके कहा कि कांग्रेस के लिए जाति गणना सबसे बड़ा मुद्दा है। उन्होंने ऐलान कर दिया है कि मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी तो जातियों की गिनती कराई जाएगी। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने तो 7 अक्टूबर को इसका आदेश भी जारी कर दिया। चुनाव की घोषणा से पहले गहलोत ने जाति गणना का आदेश जारी करके बड़ा दांव चला है। वे खुद पिछड़ी जाति से आते हैं और बिहार के आंकड़ों के बाद यह नैरेटिव बन रहा है कि पिछड़ी और अति पिछड़ी जातियों की आबादी सबसे ज्यादा है इसलिए राजनीतिक नेतृत्व भी उनके हाथ में रहना चाहिए। यह मुद्दा मतदाताओं के एक बड़े समूह को अपील कर सकता है।

चुनाव लड़ कर घाटे में रहेगी आम आदमी पार्टी

आम आदमी पार्टी पांच में से तीन राज्यों में विधानसभा चुनाव लड़ने जा रही है। पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल ने ऐलान किया है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में आम आदमी पार्टी पूरी ताकत से चुनाव लड़ेगी। पूरी ताकत से चुनाव लड़ने का मतलब सबको पता है। इन तीनों राज्यों में पार्टी का कोई आधार नहीं है। फिर भी पूरी ताकत से लड़ने का मतलब है कि पार्टी खूब पैसा खर्च करेगी, हर सीट पर उम्मीदवार उतारेगी और केजरीवाल व भगवंत मान प्रचार के लिए जाएंगे। नतीजा चाहे जो हो, लेकिन इस तरह से चुनाव लड़ने का हर हाल में नुकसान आम आदमी पार्टी को ही होगा। अगर उसके चुनाव लड़ने के बावजूद कांग्रेस तीनों राज्यों में या दो राज्यों में जीत जाती है तो आगे के लिए आम आदमी पार्टी का रास्ता बंद हो जाएगा। अगर कांग्रेस एक राज्य में जीतती है या नहीं भी जीत पाती है तब भी आम आदमी पार्टी से उसकी दूरी बढ़ेगी। कांग्रेस विपक्षी गठबंधन में आम आदमी पार्टी को किनारे करने का प्रयास करेगी। हालांकि आप के नेताओं का कहना है कि अगर उनकी पार्टी के लड़ने से कांग्रेस हारती है तो उसका दावा होगा कि वह लोकसभा चुनाव में भी विपक्ष का खेल बिगाड़ सकती है इसलिए उसको साथ रखा जाए। लेकिन ऐसा नहीं होगा क्योंकि तीनों में से किसी भी राज्य में आम आदमी पार्टी का ऐसा प्रभाव नहीं है कि वह नतीजों को प्रभावित कर सके। उसे अगर एक फीसदी या उससे भी कम वोट मिलता है तो वह किस मुंह से लोकसभा चुनाव में सीटों की मांग करेगी? हालांकि एक थीसिस यह भी है कि शहरी इलाकों में केजरीवाल भाजपा को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं। विपक्षी पार्टियां इस पर भी नजर रखेंगी।

चुनाव आयोग ऐसी कैसी तैयारी करता है?

हर चुनाव से पहले खबरें आती हैं कि चुनाव आयोग तैयारी में जुटा हुआ है या चुनाव आयोग की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं। लेकिन सवाल है कि जब वह हर बार पूरी तैयारी करके चुनावों की घोषणा करता है तो उसके घोषित किए गए कार्यक्रम में कुछ न कुछ कमी कैसे रह जाती है। जैसे अभी उसे राजस्थान में चुनाव की तारीख बदलनी पड़ी है। सवाल है कि क्या आयोग को देवउठनी एकादशी के बारे में पता नहीं था या उसे किसी ने बताया नहीं था? राजस्थान सहित पूरे उत्तर-पश्चिम भारत में देवउठनी एकादशी को बडा हिंदू पर्व माना जाता है। धार्मिक मान्यता है कि उस दिन चार महीने के शयन के बाद देव जागते हैं और शुभ कार्यों की शुरुआत होती है। लेकिन चुनाव आयोग ने उसी दिन राजस्थान में मतदान तय कर दिया। विवाद हुआ तो उसे दो दिन आगे बढ़ाया गया है। इसी तरह मिजोरम में इस बात का विरोध हो रहा है कि तीन दिसंबर यानी रविवार के दिन मतगणना क्यों रखी गई? मिजोरम ईसाई बहुल प्रदेश है, वहां लोग रविवार को चर्च जाते हैं, लेकिन उस दिन वोटों की गिनती होगी। ईसाई बहुल पूर्वोत्तर के राज्यों में रविवार को मतदान कराने को लेकर भी पहले विवाद हुआ है। ऐसी ही एक गलती साल के शुरू में मेघालय और त्रिपुरा के चुनाव को लेकर हुई थी। दोनों की चुनाव की तारीखों की अदला-बदली हो गई थी। त्रिपुरा में 16 फरवरी को चुनाव होना था तो उसे 27 फरवरी बताया गया था और मेघालय में 27 को मतदान होना था तो उसे 16 फरवरी बताया गया था। उससे पहले भी कई राज्यों में चुनाव आयोग को इसी तरह चुनाव कार्यक्रम संशोधित करना पड़ा है।

सिंधिया परिवार के साथ शह-मात का खेल

ऐसा लग रहा है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व सिंधिया परिवार के साथ शह-मात का खेल खेल रहा है। कहीं उनको आगे बढ़ाया जा रहा है तो कही पीछे खींचा जा रहा है। इस वजह से पिछले कुछ दिनों से इस बात की चर्चा शुरू हो गई है कि क्या राजनीति में सिंधिया परिवार का दखल खत्म हो जाएगा। असल में प्रधानमंत्री मोदी परिवारवाद के खिलाफ जब भी हमला करते हैं तो कांग्रेस नेताओं और कांग्रेस समर्थक यूट्यूबर्स की ओर से सिंधिया परिवार को निशाना बनाया जाता है। इसलिए भाजपा के लिए यह परिवार गले की हड्डी की तरह है। उसे निगलना और उगलना दोनों मुश्किल हो रहा है। इसीलिए मध्य प्रदेश से राजस्थान तक शह-मात का खेल चल रहा है। मध्य प्रदेश में पहले शिवपुरी की विधायक यशोधरा राजे को रिटायर कराया गया। उन्होंने कहा कि वे चुनाव नहीं लड़ना चाहती हैं। इस तरह अब मध्य प्रदेश में सिंधिया परिवार से अकेले ज्योतिरादित्य सिंधिया भाजपा में सक्रिय हैं। हालांकि अभी उनका टिकट घोषित नहीं हुआ है लेकिन उनके करीबी लोगों को टिकट मिल रहे हैं। दूसरी तरफ राजस्थान में वसुंधरा राजे को किनारे रखने के उपाय भी हो रहे हैं। वहां न तो पार्टी उनके चेहरे पर चुनाव लड़ रही है और न ही प्रत्याशी चयन में उनके समर्थकों को तरजीह दी जा रही है। प्रत्याशियों पहली सूची में भी उनके दो बेहद करीबी नेताओं के टिकट कट गए हैं। भैरोसिंह शेखावत के दामाद नरपत सिंह राजवी का टिकट काट कर सांसद दीया कुमारी को और राजपाल सिंह का काट कर राज्यवर्धन राठौड़ को टिकट दिया गया है।

सपा के मुस्लिम नेताओं की मुश्किल

समाजवादी पार्टी के मुस्लिम नेताओं की मुश्किलें खत्म नहीं हो रही है। उत्तर प्रदेश में आजम खां और उनके परिवार के बाद अब मुंबई में अबू आजमी की बारी है। उनके यहां आयकर विभाग ने छापा मारा है और बताया जा रहा है कि 50 करोड़ रुपए की संपत्ति जब्त की है। अबू आजमी महाराष्ट्र में समाजवादी पार्टी की राजनीति का चेहरा रहे हैं। वे बड़े कारोबारी हैं और उनके दम पर महाराष्ट्र विधानसभा मे हमेशा सपा का प्रतिनिधित्व रहा है। उनके यहां आयकर विभाग की कार्रवाई के कई आयाम बताए जा रहे हैं। अगर उनको नियंत्रण में रखा जाता है तो समाजवादी पार्टी के फंड का इंतजाम करने से लेकर प्रचार तक का काम प्रभावित हो सकता है। अबू आजमी मुंबई में प्रवासियों का भी एक चेहरा हैं और पिछले कुछ समय से कृपाशंकर सिंह, संजय निरूपम जैसे प्रवासी नेताओं के कमजोर होने का फायदा उनको था। लेकिन अब वे आयकर की कार्रवाई में फंसे हैं और हैरानी नहीं होगी कि इसके बाद ईडी का भी दखल इस मामले में हो। उन पर कार्रवाई से उत्तर प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र तक के अपने कोर मतदाताओं को भाजपा ने एक मैसेज दिया है। अबू आजमी से पहले एजेंसियों का कहर उत्तर प्रदेश की मुस्लिम राजनीति का चेहरा रहे आजम खान पर था। उनके और उनके परिवार के खिलाफ उत्तर प्रदेश पुलिस ने दर्जनों मुकदमे किए, जिसकी वजह से उन्हें अपनी लोकसभा और विधानसभा की सदस्यता गंवानी पड़ी और बाद में उनके बेटे की विधानसभा सदस्यता भी समाप्त हुई। अभी पिछले दिनों उनके यहां भी आयकर विभाग ने छापा मारा था।

तेलंगाना में वाईएस शर्मिला अकेले लड़ेंगी!

कुछ दिनों पहले तक तेलंगाना में कांग्रेस से वाईएसआर तेलंगाना पार्टी का गठबंधन या कांग्रेस में उसके विलय की जो संभावना जताई जा रही थी, वह अब बहुत क्षीण हो गई है। पिछले दिनों जब वाईएस शर्मिला दिल्ली आई थीं तब सोनिया गांधी से उनकी बेहद आत्मीय मुलाकात हुई थी। सोनिया ने उनको गले लगाया था, लेकिन दोनों के बीच गठबंधन या विलय पर बात नहीं बन पाई। एक समय गांधी परिवार और वाईएसआर रेड्डी का परिवार बहुत करीब रहा था। लेकिन वाईएसआर रेड्डी के आकस्मिक निधन के बाद सब कुछ बदल गया। बहरहाल, बताया जा रहा है कि वाईएसआर शर्मिला अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस में करने को राजी नहीं हुईं। इसका कारण यह माना जा रहा है कि कांग्रेस ने उनको मुख्यमंत्री की उम्मीदवार के तौर पर पेश करके चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया है। दूसरे, कांग्रेस नेताओं को यह भी भरोसा है कि रेड्डी समुदाय पूरी तरह उसके साथ है। गौरतलब है कि तेलंगाना की 17 लोकसभा सीटों में से पिछली बार कांग्रेस तीन सीटों पर जीती थी और जीतने वाले तीनों रेड्डी समुदाय के थे। पार्टी ने रेवंत रेड्डी को इसी वोट की वजह से प्रदेश अध्यक्ष बनाया। सो, कई नेता यह भी मान रहे थे कि शर्मिला कोई नया वोट नहीं जोड़ पाएंगी। लेकिन इसका दूसरा पहलू भी है। अगर वे कुछ नहीं जोड़ सकती है तो पार्टी के रेड्डी वोटों में सेंध तो लगा ही सकती हैं। चूंकि तेलंगाना में 30 नवंबर को मतदान होना है, इसलिए गठबंधन पर बातचीत की संभावना अभी भी बनी हुई है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
 

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