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मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के 10 साल: मुसलमानों को आ रही घर की याद और हिंदुओं को सस्ती मज़दूरी

हिंसा के डर से भागे मुस्लिम ग्रामीण आज भी ख़ौफ़ के कारण घर वापस लौटने से कतरा रहे हैं।
police
2013 में दंगा प्रभावित मुजफ्फरनगर की सड़क पर खड़े पुलिसकर्मी। तस्वीर साभार: PTI

मुजफ्फरनगर/शामली/नई दिल्ली: जले हुए घरों से निकलता धुआं, सिसकते चेहरे, राहत शिविरों में बेबस लोग, हर दिल में दहशत और हर आखों में ख़ौफ़। यह अगस्त-सितंबर 2013 में मुजफ्फरनगर और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आसपास के इलाकों में हुए सांप्रदायिक हिंसा का परिणाम था।

2002 के गुजरात दंगों के बाद सबसे खूनी सांप्रदायिक हिंसा में बासठ लोग (42 मुस्लिम और 20 हिंदू) मारे गए थे लगभग 93 घायल हुए और 50,000 से अधिक लोग बेघर हो गए थे।

मुज़फ़्फ़रनगर दंगों ने लोगों के बीच सदियों पुराने आपसी विश्वास और इलाके के सांप्रदायिक सौहार्द को तबाह कर दिया था।

हिंसा अपने-आप नहीं भड़की थी। 2012 में उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने बहुजन समाज पार्टी को सत्ता से बेदखल कर दिया था जिसके बाद मिश्रित आबादी वाले गन्ना बेल्ट में अक्सर छोटी और बड़ी घटनाओं के कारण सांप्रदायिक तनाव पैदा होता रहता था।

कवाल गांव में 27 अगस्त 2013 को हुई एक आपराधिक घटना ने इस तनाव को हवा दी थी। इलाके के प्रमुख जाट समुदाय के दो हिंदू युवकों, सचिन और गौरव ने कथित तौर पर शाहनवाज नाम के एक मुस्लिम युवक की हत्या कर दी थी।

गौरव

दोनों को घटनास्थल पर ही भीड़ ने पकड़ लिया और पीट-पीटकर मार डाला था। इस घटना को "दो हिन्दू भाइयों द्वारा अपनी हिंदू बहन की इज्जत को बचाने के लिए अपने जीवन का बलिदान देने" की कहानी बनाकर पेश किया गया। बाद में यह कहानी फर्जी निकली।

लोगों को उकसाने के लिए व्हाट्सएप और अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर दो युवकों की "लिंचिंग" के फर्जी और दहशत भरे वीडियो वायरल किए गए।

सचिन और गौरव की हत्या के बाद दर्ज की गई FIR में इस बात का उल्लेख किया गया है कि यह दर्दनाक घटना "साइकिल-मोटरबाइक की टक्कर के बाद विवाद" के कारण हुई थी। शाहनवाज की कथित हत्या के खिलाफ उसके परिवार के सदस्यों द्वारा दर्ज की गई FIR ने अल्पसंख्यक मुसलमानों के खिलाफ बहुसंख्यक जाटों के गुस्से को और बढ़ा दिया था।

जब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने स्थिति को संभालने में विफल रहने के लिए रातों-रात जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक का तबादला कर दिया तो जाट समुदाय ने इसे "एकतरफा कार्रवाई" के रूप में देखा।

जाट एकजुट होने लगे। कई पंचायतें हुईं। उत्तेजक बयानबाजी की गई और भड़काऊ नारे लगाए गए। धार्मिक उन्माद चरम पर था और माहौल तनावपूर्ण।

7 सितंबर को नगला मंदौर गांव में एक महापंचायत होने के बाद बड़े पैमाने पर हिंसा भड़क उठी और कई गांवों में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सीधा संघर्ष हुआ।

अफवाहों, अविश्वास और आक्रोश ने संघर्ष को एक बड़े सांप्रदायिक दंगे में बदल दिया। शाम होते-होते मुजफ्फरनगर जलने लगा था। हिंसा उन गांवों में फैल गई जहां सदियों से हिंदू और मुस्लिम एक साथ रह रहे थे।

स्थिति को नियंत्रित करने के लिए राज्य सरकार को केंद्र से सुरक्षा बलों की मांग करनी पड़ी। जब दंगों की आग शांत हुई तब तक कई हिंदू और मुस्लिम मारे गए - और भी लोग मारे गए थे लेकिन वह रिकॉर्ड का हिस्सा नहीं बन पाया।

हजारों मुसलमान अपना सब कुछ छोड़कर अपनी जान बचाने के लिए घरों से भाग गए। उनमें से अधिकांश कभी भी अपने गांव नहीं लौट पाए। मुस्लिम बहुल बस्तियों में रातों-रात 60 से अधिक राहत शिविर स्थापित किए गए। अगले कई महीनों तक लोग कंपकंपा देने वाली ठंड में तंबूओं में रहे। कैंपों में पैदा हुए बच्चों की मौतें सुर्खियां बनने लगीं थीं।

बेहद अमानवीय हालात में जीने को मजबूर लोगों की मौतें कभी भी सरकारी आंकड़ों का हिस्सा नहीं बनीं। अपनी एक रिपोर्ट में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस ने दावा किया था कि राहत शिविरों में रहने की खराब स्थिति के कारण बच्चों सहित कम से कम 100 लोगों की मौत हुई थी।

इलाकों की जनसांख्यिकी हमेशा के लिए बदल गई

पलड़ा गांव कुटबा-कुटबी के जुड़वां गांवों से सिर्फ पांच किमी दूर है। लेकिन शमशाद और उनके जैसे सैकड़ों लोगों के लिए यह दूरी तय करना मुश्किल है।

उनके पिता, दादा और उनसे पहले की कई पीढ़ियों का जन्म कुटबा में हुआ था और उन्हें वहीं दफनाया गया था। लेकिन शायद शमशाद और उनके जैसे अपना घर-बार छोड़ने वाले मुसलमानों को अब अपने पुश्तैनी गांव में कब्र नहीं मिलेगी।

शमशाद

केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान का घर कुटबा सबसे अधिक प्रभावित गांवों में से एक है। दंगों से पहले यहां करीब 2,500 मुसलमान रहते थे। यहां अब केवल एक वीरान मस्जिद और एक ईदगाह ही उन मुसलमानों के बचे शेष प्रतीक हैं जो कभी वहां रहते थे।

गांव की शुरुआत कब्रिस्तान से होती है जिसके बगल में ईदगाह है। लेकिन कब्रों को पहचानना आसान नहीं है क्योंकि कब्रिस्तान को लंबी घास और झाड़ियों ने घेर लिया है। ईदगाह में जगह-जगह गोबर के ढेर और कूड़े-कचरे के ढेर काई से ढकी दीवारें और झाड़ियां हैं।

कब्रिस्तान में प्रवेश करते ही शमशाद के दुखों का कोई ठिकाना नज़र नहीं आता है। वह झाड़ियों में छिपी कब्रों की ओर इशारा करते हुए कहते हैं, "मेरे पिता और दादा वहां दफन हैं।"

ईदगाह में कदम रखते ही आंखों से आंसू छलक पड़ते हैं। “मैंने यहां अपने प्रियजनों के साथ कई ईद की नमाज़ अदा की है। बड़ी ख़ुशी होती थी। वे अपनी यादों की गलियों को पार करते हुए कहते हैं कि अब यह सब यादें बनकर रह गया है।”

कुटबा में आठ लोग - सभी मुस्लिम - मारे गए और उनके घरों को आग लगा दी गई। दंगों के दौरान गांव से भागी पूरी अल्पसंख्यक आबादी कभी वापस नहीं लौटी पाई है। अधिकांश मुस्लिम ग्रामीणों ने अपने घर बेच दिए हैं। लेकिन मौसम जैसे कुछ लोग अपने घर को अपने पूर्वजों की निशानी के रूप में संरक्षित रखना चाहते हैं।

उदास मौसम अपने त्यागे गए घर में प्रवेश करता है। जब उनके पूर्व पड़ोसी जो उनकी यात्रा के दौरान एकत्र हुए थे ने उनकी बेहतरी के बारे में पूछा तो उन्होंने उदास होकर कहा, "सब कुछ ठीक है।"

हालांकि, अपने गांव से उजड़ने के बाद मौसम का जीवन कभी सामान्य नहीं रहा। “हमने कभी नहीं सोचा था कि हमारे घर पर हमला किया जाएगा। हम किसी तरह भागकर खुद को बचाने में कामयाब रहे।'' वे अपनी भीगी आखों से बताते हैं कि दीवारों पर गोलियों के निशान आज भी उस हिंसा की गवाही देते हैं जो हमने देखी थी।”

ख़ुशी के दिनों को याद करते हुए मौसम कहते हैं कि वे और उनके ज़्यादातर मुस्लिम साथी गांव में लोहार का काम करते थे और अच्छी आजीविका कमाते थे। "10 साल बाद भी हमारा काम पहले जैसा नहीं रहा है।"

जब मौसम से पूछा गया कि क्या वह अपना घर बेचेंगे तो उन्होंने लंबी चुप्पी के बाद जवाब दिया। “यह हमारे पूर्वजों की निशानी है। हम इसे नहीं बेचेंगे; यह ऐसे ही रहेगी।” जगह-जगह लोग छोटे-छोटे समूहों में ताश खेलते नजर आए। जब शमशाद और मौसम मस्जिद की ओर कदम बढ़ा रहे थे तो चौपाल में मौजूद एक छोटा से समूह ने उनसे उनका हालचाल पूछा।

फिर जब यह पूछा गया कि क्या उन्होंने कभी अपने गांव लौटने के बारे में सोचा है तो शमशाद ने कहा कि उनके लिए "उस डर को भूलना आसान नहीं है।"

उनका क्या जो वापस लौट आए हैं?

कुटबा से लगभग 25 किमी दूर लिसाढ़ गांव (शामली जिला) में दंगों से पहले लगभग 3,000 मुस्लिम रहते थे। वहां अब केवल एक मुस्लिम परिवार बचा है। इसरार सैफी, एक लोहार और एकमात्र बचे हुए मुस्लिम हैं, जो हर-दिन घर छोड़ने के बारे में सोचते हैं। उनका घर गांव के बीच में है। उनके रिश्तेदारों के घर सूने पड़े हैं।

सैफी अलग-थलग जीवन जीते हैं और गांव के मामलों में नहीं पड़ते हैं। उनके छोटे भाई और बहन, जो पढ़ाई कर रहे हैं, अपने पड़ोसियों से जरूरत पड़ने पर ही बातचीत करते हैं। उनका एक हिंदू पड़ोसी अपनी भैंसों को सैफी के चाचा के खाली घर में बांधता है।

सैफी का परिवार भी पलायन कर गया था लेकिन अब वापस लौट आया है। उनके पास कुछ कृषि भूमि भी है। “जिसने भी दंगों के बाद अपना घर और ज़मीन बेची, उसे बहुत कम कीमत मिली। सैफी कहते हैं कि हमने अपनी पुश्तैनी ज़मीन को सुरक्षित रखा हुआ है।”

उसे गांव में कैसा महसूस होता है? "मुझे कुछ भी महसूस नहीं होता है। अब कोई डर नहीं है। लेकिन हम अकेलापन महसूस करते हैं और अपने प्रियजनों की याद आती है। मेरा पूरा परिवार यहीं था।” क्या वह खुद भी यहां से भी जाने की योजना बना रहा है? उसने कहा कि, “एक दिन, मुझे गांव छोड़ना होगा, लेकिन दबाव या डर से नहीं। मैं जब भी जाऊंगा अपनी मर्जी से जाऊंगा'।

लिसाढ़ में तीन बड़ी मस्जिदें थीं। एक को बंद कर दिया गया है और दूसरे का दरवाज़ा टूटा हुआ है जिसे मिंबर (सीढ़ी के रूप में एक मंच जिस पर मौलाना धर्मोपदेश देने के लिए खड़े होते हैं) कहते हैं और पास में शराब की बोतलों से टूटी पड़ी हैं।

लिसाढ़ की वीरान मस्जिद

तीसरी मस्जिद उन हिंदुओं से घिरी हुई है जिन्होंने कभी अपने साथी मुस्लिम ग्रामीणों के स्वामित्व वाली जमीन और घर खरीदे थे। यह मस्जिद साफ़ है। मुस्लिम घर खरीदने वाला एक हिंदू परिवार नियमित रूप से मस्जिद की सफाई और रखरखाव करता है। “यह एक पवित्र स्थान है। गंदा रहेगा तो आपको बुरा लगेगा। इसे साफ़ करने वाली हिंदू महिला ने कहा कि मेरी बेटियां इसे साफ़ करती हैं।”

क्या विस्थापित लोग कभी वापस लौट पाएंगे?

एक अनुमान से पता चलता है कि मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के दौरान लगभग 40,000 लोग अपने गांव छोड़कर भाग गए थे – ये सभी हिंदू बहुल गांवों में रहने वाले मुस्लिम थे। दंगों के दौरान कुछ हिंदू परिवार भी भाग गए थे लेकिन वे कुछ ही दिनों में अपने घर लौट आए थे।

विस्थापित मुस्लिम अभी भी जिले के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न बस्तियों में रहते हैं।

लिसाढ़ छोड़कर आए अब्दुल बासित कांधला की एक कॉलोनी में रहते हैं। दंगों के 10 साल बाद भी उनकी जिंदगी में कोई बदलाव नहीं आया है। बासित लिसाढ़ में मस्जिद के इमाम थे और उनकी अच्छी कमाई थी।

सरकार ने नुकसान झेलने वाले और पलायन करने वाले प्रत्येक परिवार को 5 लाख रुपये की सहायता प्रदान की थी। पलायन करने वाले ज्यादातर लोगों ने इस पैसे का इस्तेमाल नई जगहों पर जमीन खरीदने और घर बनाने के लिए किया था।

बासित ने जमीन का एक छोटा सा टुकड़ा भी खरीदा और एक आधा-अधूरा घर बनाया। बासित अपनी आपबीती सुनाते हुए कहते हैं, “मेरे पास एक कच्चा घर है। बारिश होने पर छत टपकती है। मैं अपने बच्चों को दिन में केवल एक बार खाना खिला सकता हूं और कभी-कभी खाने के लिए कुछ भी नहीं होता है। गांव छोड़ने वाले अधिकांश लोग उसी स्थिति में रहते हैं क्योंकि उनके पास नौकरी नहीं है।”

बासित के मुताबिक, पलायन करने वाले लोगों के लिए अपनी पहचान स्थापित करना और नई जगह बसना मुश्किल होता है। वे कहते हैं, ''न तो वे नई जगहें अपना पाते हैं और न ही उन्हे कोई पूरी तरह अपनाता है।'' “गांव में हर कोई हमें समझता था और हम उन्हें समझते थे। सबको पता था कि हमने क्या काम किया। उन्होंने आगे कहा कि यहां के लोग हमें कुछ नहीं समझते हैं। उनके लिए हम सिर्फ प्रवासी हैं।”

इन लोगों के दिल से न तो गांव की याद गई है और न ही दंगों का डर। बासित कहते हैं कि, “मुझे गांव की बहुत याद आती है। मुझे सब कुछ याद आता है- मदरसा और मस्जिद। लेकिन मैं वापस नहीं लौटना चाहता हूं। जब भी मैं उस इलाके से गुजरता हूं, मुझे दंगों के दौरान देखे गए आतंक की यादें ताजा हो जाती हैं।''

कुटबा और लिसाढ़ के हिंदू निवासी हिंसा में मारे गए लोगों और जान बचाकर भागे लोगों के बारे में बात करने से कतराते हैं। बहुतों को मुस्लिम ग्रामीणों जैसे खेतिहर मजदूर न मिलने का अफसोस है।

लिसाढ़ के एक बड़े-बुजुर्ग कहते हैं, ''मुझे उन लोगों से सहानुभूति है जो भाग गए थे। वे हमारे मवेशियों को चराते थे, बुग्गियां बनाते थे और खेतों में काम करते थे। उनके पलायन से गांव को भारी नुकसान हुआ है क्योंकि अब हमें मजदूर नहीं मिलते हैं।”

दंगों के बाद भागे लोगों को वापस लाने के लिए कई पंचायतें भी हुईं हैं। लेकिन उनमें वापस लौटने की हिम्मत नहीं है। कुटबा से ताल्लुक रखने वाले बालियान ने न्यूज़क्लिक को बताया कि वे चाहते हैं कि जो लोग गांव छोड़कर चले गए हैं वो वापस लौट आएं।

“शुरुआत में हमने यह सुनिश्चित करने की कोशिश की थी कि कोई भी उन लोगों के घर न खरीदे जो डर के कारण गांव से भाग गए थे। लेकिन यह कारगर नहीं हुआ क्योंकि यह केवल सामाजिक रूप से किया जा सकता था कानूनी तौर पर नहीं।'' वह दावा करते हुए कहते हैं कि वह हर पिछले पांच से छह महीने में उन लोगों से मिलते रहते हैं जो उनका गांव छोड़ चुके हैं।

“मैं उनसे वापस लौटने के लिए भी कहता हूं। मेरा उनके साथ भावनात्मक रिश्ता है।'’ जब मैं बच्चा था तो इनमें से कई लोगों ने मेरे पालन-पोषण में मदद की थी। और दावा किया कि मैं इन संबंधों को धार्मिक या राजनीतिक चश्मे से नहीं देखता हूं।

हालांकि बालियान का दावा है कि वह इन लोगों को वापस लाना चाहते हैं लेकिन हक़ीक़त यह भी है कि अधिकतर मुसलमान परिवार दहशत के कारण वापस नहीं लौटना चाहते हैं।

अंग्रेजी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीेचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:

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