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ASER, AISHER : स्कूल और उच्च शिक्षा के संकट को उजागर करते दो अध्ययन

जून 2022 में एक आरटीआई क्वेरी का जवाब मिला कि उत्तर प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों में 2791 शिक्षक पद खाली हैं, जो कुल पदों का 28% है। अखिल भारतीय स्तर पर मेडिकल फैकल्टी की कमी 20-25% के बीच है और कुछ पिछड़े राज्यों में यह 33% तक है।
Aser

जनवरी 2023 में भारत के शैक्षिक परिदृश्य पर दो प्रमुख रिपोर्टें सामने आईं। एक एनजीओ प्रथम  द्वारा स्कूली शिक्षा पर शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट (ASER) 2022 है। दूसरी शिक्षा मंत्रालय के तहत उच्च शिक्षा विभाग द्वारा लाई गई अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण (AISHER) रिपोर्ट 2020-21 है। हालांकि दोनों वार्षिक सर्वेक्षण हैं, महामारी के कारण व्यवधान के चलते रिपोर्ट चार साल बाद सामने आयी है। जहाँ ASER रिपोर्ट महामारी के बाद स्कूलों के परिदृश्य से संबंधित है, वहीं AISHER रिपोर्ट 2020-21 चरम महामारी वर्ष में उच्च शिक्षा की स्थिति पर है। दोनों इस मायने में महत्वपूर्ण हैं कि वे जुलाई 2020 में केंद्र द्वारा नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) घोषित किए जाने के बाद की अवधि में स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा के परिदृश्य पर प्रकाश डालते हैं।

दोनों रिपोर्टें स्कूल और उच्च शिक्षा में बहुआयामी संकट को उजागर करती हैं

उच्च शिक्षा में संकट, जो सर्वविदित है, आंशिक रूप से AISHER रिपोर्ट 2020-21 में संख्याओं के माध्यम से प्रकट होता है। रिपोर्ट इस मामले में चूक जाती है कि वह जो कुछ उजागर करती है उससे कहीं अधिक छुपाती है। यह रिपोर्ट 1099 विश्वविद्यालयों, 41,000 कॉलेजों और 10,308 ‘स्टैंड अलोन’ संस्थानों से शिक्षा मंत्रालय द्वारा उन्हें भेजी गई प्रश्नावली के जवाब पर आधारित है। शिक्षा मंत्रालय के नौकरशाहों में सत्यनिष्ठा की नितांत कमी है, यानि कि वे एक प्रश्नावली के आधार पर सर्वेक्षण करने के लिए सार्वजनिक धन का उपयोग करते हैं, पर उसमें कर्मचारियों की कमी, अन्य बुनियादी ढांचे की कमी और शुल्क संरचना पर प्रश्न शामिल नहीं हैं। इसलिए यह आकलन करना बेकार की कसरत है कि सरकार से कितनी अधिक धनराशि की आवश्यकता होगी और एक ही पाठ्यक्रम के लिए निजी और सरकारी कॉलेजों में फीस की तुलना कैसे की जाएगी। शिक्षा क्षेत्र की नौकरशाही किसी भी जवाबदेही से बचना चाहती है। ऐसे में भारत में उच्च शिक्षा के भाग्य की कल्पना की जा सकती है जब ऐसे बेईमान नौकरशाह भारत में उच्च शिक्षा के प्रशासन की अध्यक्षता करते हैं। इसके अलावा, आइए हम इस रिपोर्ट के निष्कर्षों को संक्षेप में प्रस्तुत करें।

उच्च शिक्षा

उच्च शिक्षा में सामाजिक असमानता

• वर्ष 2020-21 में, 18-23 वर्ष आयु वर्ग के लिए उच्च शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात (GER) 27.3% पर बहुत कम होने का अनुमान है, जबकि OECD औसत 47% है। वहीं 2014-15 में ये 24.3% थी। इस दर पर, भारत 49 वर्षों के बाद OECD औसत के बराबर पहुंच सकता है। दूसरे शब्दों में भारत को उच्च शिक्षा में विकसित देश बनने के लिए एक नहीं दो अमृत काल की आवश्यकता है!

• 2020-21 में नामांकित 4.13 करोड़ छात्रों में से 14.2% अनुसूचित जाति के थे, 5.8% अनुसूचित जनजाति के थे, और 35.8% अन्य पिछड़ा वर्ग के थे।

• अनुसूचित जाति के छात्रों के लिए सकल नामांकन अनुपात (GER) 23.1% है और अनुसूचित जनजाति के छात्रों के लिए यह 18.9% से भी कम है। 2014-15 में संबंधित आंकडें अनुसूचित जाति के लिए 19.1% और अनुसूचित जनजाति के लिए 13.7% थे। इसका मतलब है कि 2020-21 में भी, 18-23 आयु वर्ग के चार दलितों में से केवल एक ने कॉलेज में प्रवेश लिया और पाँच आदिवासियों में से केवल एक ने कॉलेज में प्रवेश लिया। इन वर्गों के बीच सकल नामांकन अनुपात में कोई भारी वृद्धि तभी संभव है जब इन वर्गों के लिए उच्च शिक्षा पूरी तरह से मुफ़्त कर दी जाए, उनकी छात्रवृत्ति राशि में भारी वृद्धि की जाए और दलित बस्तियों और आदिवासी बस्तियों के पास कॉलेजों की संख्या में भी भारी वृद्धि की जाए। इन सबके लिए केंद्र से अधिक धन की आवश्यकता है। देश में लगभग 80% कॉलेज निजी कॉलेज हैं और SC-ST छात्र वहां तभी दाखिला ले सकते हैं जब सरकार इन निजी कॉलेजों में उच्च शुल्क का भुगतान करने के लिए आगे आए, जो गरीब दलित और आदिवासी छात्र वहन नहीं कर सकते।

• कुल अनुमानित नामांकन में महिला नामांकन 2,01,42,803 (48.67%) और पुरुष नामांकन 2,12,37,910 (51.33%) है। हालाँकि, भारत में विश्वविद्यालयों के कुलपतियों में केवल 7% महिलाएँ हैं। महिलाओं में उत्कृष्ट वैज्ञानिकों की कोई कमी नहीं है लेकिन 2014 तक किसी भी महिला को IIT की प्रमुख के रूप में नियुक्त नहीं किया गया था, और केवल 2014 में दो महिलाएं निदेशक बनीं थीं।

इक्विटी संकट के अलावा गुणवत्ता संकट

• दुनिया के शीर्ष 100 शैक्षणिक संस्थानों में कोई भी भारतीय शैक्षणिक संस्थान शामिल नहीं है। केवल 3 संस्थान-IIT दिल्ली, IISc बैंगलोर और IIT बॉम्बे, 2022 में 100 शीर्ष संस्थानों में शामिल हुए थे।

• हालांकि विश्व स्तर पर उत्पादित शोध पत्रों का एक-तिहाई हिस्सा भारत से होता है, जुलाई 2019 में इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट से पता चला है कि भारत का केवल 15.8% शोध कार्य शीर्ष 10 वैश्विक पत्रिकाओं में प्रकाशित होता है।

• AISHE रिपोर्ट 2020-21 के पृष्ठ 50 पर चार्ट बताता है कि जहां विज्ञान के पाठ्यक्रम में केवल 16.05% छात्र परीक्षा में उत्तीर्ण हुए, वहीं आईटी और कंप्यूटर पाठ्यक्रमों में केवल 3.05% छात्र उत्तीर्ण हुए और मेडिकल छात्रों के लिए उत्तीर्ण होने का यह आंकड़ा 3.63% प्रतिशत रहा। सामाजिक विज्ञान का अध्ययन करने वाले छात्रों के लिए उत्तीर्ण होने का प्रतिशत 3.21% और प्रबंधन पाठ्यक्रमों में छात्रों के लिए 2.61%। यह भारत में उच्च शिक्षा की अत्यंत निम्न गुणवत्ता के बारे में बहुत कुछ बताता है। इसके कई कारण हैं जिनमें गुणवत्तापूर्ण शिक्षकों की कमी और पर्याप्त बुनियादी ढांचा आदि शामिल हैं। उनमें से प्रत्येक को संबोधित करने के लिए केंद्र से अधिक धन की मांग होगी।

उच्च शिक्षा में फैकल्टी की कमी

• शिक्षा मंत्रालय के मुताबिक, दिसंबर 2022 में 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के 6549 पद खाली थे।

• शिक्षा मंत्रालय ने यह भी बताया कि भारत के सभी कॉलेजों में 10.35 लाख शिक्षक रिक्तियां हैं।

• जून 2022 में एक आरटीआई क्वेरी का जवाब मिला कि उत्तर प्रदेश के मेडिकल कॉलेजों में 2791 शिक्षक पद खाली हैं, जो कुल पदों का 28% है। अखिल भारतीय स्तर पर मेडिकल फैकल्टी की कमी 20-25% के बीच है और कुछ पिछड़े राज्यों में यह 33% तक है।

• इंजीनियरिंग कॉलेजों में यह 25-30% अधिक है। विशेष रूप से, भारत के 23 IIT में मार्च 2018 में 34% फैकल्टी की कमी थी। यदि शिक्षकों की इतनी भारी कमी है तो शिक्षा की गुणवत्ता क्या होगी?

विद्यालय शिक्षा

अब हम स्कूली शिक्षा की स्थिति पर ASER रिपोर्ट 2022 के निष्कर्षों को देखते हैं।

• सरकारी स्कूलों में नामांकित बच्चों (6 से 14 वर्ष की आयु) का अनुपात 2018 के बाद तेजी से बढ़ा- 2018 में 65.6% से 2022 मेंबढ़कर 72.9% हो गया। इसका मतलब है कि चार सालों में लगभग 50,000 छात्रों ने निजी स्कूलों को छोड़ दिया और सरकारी स्कूलों में शामिल हो गए। ये आंकडें मुख्य रूप से आर्थिक मंदी और महामारी के वर्षों के दौरान के हैं। इसका मतलब केवल यह हो सकता है कि निजी स्कूल शिक्षा गरीब परिवारों के दायरे से बाहर होती जा रही है।

• 15-16 आयु वर्ग की लड़कियों में, मध्य प्रदेश में 17%, उत्तर प्रदेश में 15% और छत्तीसगढ़ में 11.2% लड़कियों का किसी भी स्कूल में नामांकन नहीं था।

• साल 2020 में, भारत में स्कूल शिक्षकों के 17.1% पद खाली थे और बिहार व झारखंड में यह आंकड़ा लगभग 40% है।

• राष्ट्रीय स्तर पर, कक्षा 5-8 के बच्चों में, निजी ट्यूशन लेने वाले बच्चों की हिस्सेदारी 2018 में 26.4% से बढ़कर 2022 में 30.5% हो गई। दूसरे शब्दों में, लगभग एक-तिहाई भारतीय स्कूली बच्चे निजी कोचिंग रैकेट में फंस गए थे।

• 2020 में, भारत में स्कूल शिक्षकों के 17.1% पद खाली थे और बिहार और झारखंड में यह आंकड़ा लगभग 40% है।

• विद्यालयों से अनुपस्थिति तमिलनाडु में 11.4% से लेकर बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में लगभग 40% थी। किन्हीं कारणों से ये बच्चे आगे की पढ़ाई नहीं कर पा रहे हैं।

• यूनेस्को की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 1,20,000 एकल-शिक्षक स्कूल हैं।

कई माता-पिता को भारी फीस देकर निजी ट्यूशन की व्यवस्था करने के लिए मजबूर होने का एक कारण यह है कि स्कूलों में शिक्षा की गुणवत्ता - चाहे निजी या सरकारी स्कूल हो - बहुत खराब है। बच्चों के माता-पिता निजी स्कूलों को दिए जाने वाले शुल्क के अतिरिक्त निजी कोचिंग शुल्क का भुगतान भी करते हैं। पर्याप्त संख्या में शिक्षकों की अनुपस्थिति शिक्षण की गुणवत्ता बदतर होने का एक प्रमुख कारण है। जबकि ग्रामीण भारत को हज़ारों और स्कूलों की बहुत ज़्यादा ज़रुरत है। नीति आयोग की रिपोर्ट सहित कुछ अन्य रिपोर्टें बताती हैं कि मध्य प्रदेश, झारखंड, ओडिशा और यूपी में हज़ारों स्कूल बंद कर दिए गए हैं। शायद, स्कूल बंद होने से आदिवासी बच्चे सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए हैं। प्रथम  की रिपोर्ट अपने सर्वेक्षण में इस आयाम की उपेक्षा करती है और केवल महामारी के दौरान स्कूल बंदी के आंकडें देती है।

स्कूली शिक्षा में कोई भी गुणात्मक सुधार तभी संभव है जब सर्व शिक्षा अभियान (SSA) के तहत केंद्र से राज्यों को अधिक धन मिले। लेकिन 2019-20 में SSA पर खर्च किए गए 38,750.50 करोड़ रुपये से 2021-22 में खर्च घटकर 37,383.36 करोड़ रुपये रह गया। जबकि स्कूलों और शिक्षकों की संख्या में वृद्धि हुई है, राष्ट्रीय स्तर पर 29% छात्र पांच साल की प्राथमिक शिक्षा पूरी करने से पहले स्कूल छोड़ देते हैं और 43% उच्च प्राथमिक शिक्षा पूरी करने से पहले छोड़ देते हैं। SSA इस समस्या का समाधान करने में पूरी तरह विफल रहा है।

द फंडिंग स्क्वीज़

2020 में NEP की शुरुआत के बाद से लगातार चार केंद्रीय बजट में स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा के लिए आवंटन इस प्रकार था।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) की शुरुआत के बाद से पिछले चार बजटों में स्कूली शिक्षा के लिए आवंटन में 33% की वृद्धि हुई है। इस वृद्धि का उपभोग बढ़ा हुआ नामांकन ही कर लेगा। इसी तरह कॉलेज शिक्षा में 2014-20 (मोदी शासन के बाद) से नामांकन में 20% की वृद्धि है। अगर दस लाख शिक्षकों की भर्ती की जानी है, तो अकेले इस पर 1,40,000 करोड़ रुपये खर्च होंगें क्योंकि एक कॉलेज शिक्षक के लिए यूजीसी वेतनमान लगभग 14 लाख रुपये प्रति वर्ष है। शिक्षकों की संख्या बढ़ाने या अनुसंधान के बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए बहुत कम राशि बचेगी। कुल मिलाकर स्कूली और उच्च शिक्षा के लिए आवंटन निहायत अपर्याप्त है।

कई भला सोचने वाले लोगों ने NEP को एक ‘मिक्स्ड बैग’ के रूप में वर्णित किया-कुछ भागों में अच्छा और अन्य भागों में बुरा। NEP तैयार होने के बाद से भारत चौथे शैक्षणिक वर्ष में प्रवेश कर रहा है। एक सरकारी रिपोर्ट और एक निजी एनजीओ की रिपोर्ट ने यह स्पष्ट कर दिया है कि ये नीति कितनी निष्प्रभावी रही और सरकार अपनी आधी-अधूरी नीति को लागू करने के बारे में कितनी लापरवाह थी।

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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