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अफ़ग़ानिस्तान: क़यामत का मंज़र बिल्कुल मुनासिब नहीं

हालांकि, भारत अफ़ग़ान शतरंज की बिसात पर शायद ही डटे रहने की स्थिति में है।
पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान के लगमन सूबे में स्थित अलिंगर ज़िले में तैनात एक उत्कृष सैन्यबल-तालिबान रेड यूनिट के बीच से गुज़रते हुए अफ़ग़ानी बच्चे (फ़ाइल फ़ोटो)
पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान के लगमन सूबे में स्थित अलिंगर ज़िले में तैनात एक उत्कृष सैन्यबल-तालिबान रेड यूनिट के बीच से गुज़रते हुए अफ़ग़ानी बच्चे (फ़ाइल फ़ोटो)

पाकिस्तानी विदेश मंत्री, शाह महमूद कुरैशी ने 13 मई को कहा था, "हम अपने क्षेत्र में सैन्य अभियान चलाने या सैन्य ठिकाने बनाने की इजाज़त नहीं देंगे।" दरअसल वह ऐसा बताते हुए इस इलाक़े में भविष्य के अमेरिकी सुरक्षा अभियानों का ज़िक्र कर रहे थे। सच तो यही है कि पेंटागन का घोषित रुख़ इस इलाक़े में कोई नया ठिकाना स्थापित करने को लेकर है भी नहीं, बल्कि इतना भर है कि "हम (पेंटागन) उन सभी अलग-अलग विकल्पों पर काम कर रहे हैं, जो विकल्प विभिन्न तरह के व्यवस्था को स्थापित करने वाले अपने विदेश विभाग के ख़ुफिया समुदाय के सहयोगियों के साथ मिलकर काम करते हुए हमारे पास हैं, जो विकल्प हमें आतंकवाद के ख़तरों से निपटने के लिए ज़रूरी बुनियादी सहूलियत और क्षेत्र विशेष में विमान की उड़ान के दाखिल होने की सुविधा मुहैया कराते हैं।"

इन्हीं मापदंडों के भीतर क़ुरैशी की हाल की अमेरिका यात्रा की अहमियत बढ़ जाती। वैसे तो क़ुरैशी का वह दौरा फ़िलिस्तीन पर होने वाली संयुक्त राष्ट्र की चर्चा में भाग लेने वाला दिखता है, लेकिन 18 मई को उसी समय वाशिंगटन में विदेश मामलों की अमेरिकी प्रतिनिधि सभा समिति में एक ग़ैर-मामूली सुनवाई भी हो रही थी, जिसका शीर्षक था- द यूएस-अफ़ग़ानिस्तान रिलेशनशिप फ़ॉलो द मिलिट्री विदड्रॉल, यानी सैन्य वापसी के बाद अमेरिका-अफ़ग़ानिस्तान सम्बन्ध।

यह सुनवाई अफ़ग़ानिस्तान सुलह पर अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि, ज़ाल्मय ख़लीलज़ाद की पहल पर हुई थी। बड़ी बात यह भी थी कि बतौर विशेष प्रतिनिधि ख़लीलज़ाद की यह सुनवाई बार कांग्रेस के सामने हो रही सुवनवाई थी !

साढ़े तीन घंटे तक चली कांग्रेस की उस सुनवाई को बारीक़ी से सुनना उनके लिए भी बेहद ज़रूरी है, जो अफ़ग़ानिस्तान मसले के राजनयिक सफ़र पर नज़र रखने में गंभीरता से दिलचस्पी रखते हैं। इसकी अहमियत अमेरिकी राजनीतिक अभिजात वर्ग की तरफ़ से आज नये सिरे से इस बात को स्वीकार किये जाने में निहित है कि तालिबान को शांतिपूर्ण मुख्यधारा में लाने और अफ़ग़ानिस्तान में शांति और स्थिरता सुनिश्चित करने के साथ-साथ आतंकवादी ख़तरों को रोकने के लिहाज़ से पाकिस्तान की भूमिका अहम रहेगी।

ख़लीलज़ाद ने मंडरा रहे अफ़ग़ान गृहयुद्ध और अराजकता की विध्वंसकारी भविष्यवाणियों की बात नहीं की। ख़लीलज़ाद ने ज़ोर देकर कहा कि "अफ़ग़ानिस्तान को छोड़ दिये जाने की कहानी" ग़ैर-मुनासिब है और जो कुछ हो रहा है, वह महज़ यही है कि सितंबर के बाद "अख़्तियार किये जाने वाले रुख़ का शक्ल-ओ-सूरत बदल जायेगी"। उनके शब्दों में, "लड़ने वाले सैन्य बल भविष्य की भागीदारी का हिस्सा नहीं होंगे, बल्कि पर्याप्त मात्रा में सहायता पहुंचायी जायेगी।" 

ख़लीलज़ाद के आकलन के हिसाब से जो बात हैरत में डाल सकती है, वह यह कि अगर वे अपनी बात पर क़ायम नहीं रहते हैं, तो तालिबान को "प्रोत्साहित" करने के साथ-साथ मुमकिन है कि "क़ीमत भी चुकानी" पड़े। ख़लीलज़ाद साफ़-साफ़ नहीं बोल रहे थे, लेकिन साफ़ तौर पर अफ़ग़ानिस्तान को भारी अमेरिकी सहायता इसे बहुत लाभ पहुंचाती है और न सिर्फ़ तालिबान के बीच, बल्कि राजनीतिक हल्कों और सरकारी-ग़ैर-सरकारी संस्थानों के बीच भी अमेरिका को एक "सॉफ़्ट पॉवर" बनाती है।

ख़लीलज़ाद का यह ख़ुलासा बेहद अहम है कि तालिबान ने उनके सामने यह स्वीकार किया कि 1996 में "अप्रत्याशित रूप से" सत्ता में आने के बाद वे "अच्छा शासन" नहीं दे पाये थे और उसके बाद पिछली ग़लतियों से उन्होंने "सबक सीख लिया" है। उन्होंने कहा कि 9/11 के हमलों, ख़ास तौर पर ग्वांतानामो बे डिटेंशन कैंप, संयुक्त राष्ट्र की ब्लैकलिस्टिंग, प्रतिबंधों और जंग के उन्नीस वर्षों के चलते तालिबान ने जो भारी "क़ीमत" चुकायी है, उसके प्रति वह सचेत है।

सदन की सुनवाई से जो तीन बातें सामने आयीं, वे ये हैं: पहली, ख़लीलज़ाद ने सितंबर के बाद के चरण को संचालित करने को लेकर यथोचित रूप से आश्वस्त किया; दूसरी बात, उन्होंने सांसदों को बिना युद्ध अभियान के अफ़ग़ानिस्तान में बाइडेन प्रशासन की नीति के रास्ते पर चलने के लिए राज़ी कर लिया; और, तीसरी बात, उन्होंने सांसदों को महसूस करा दिया कि पाकिस्तान के साथ मिलकर काम करना समय की ज़रूरत है।

हाल के सालों में हिल मामले पर पाकिस्तान की छवि को भारी धक्का लगा था। इसलिए, पाकिस्तान के साथ साझेदारी की अहमियत पर इस समय बेल्टवे में आम तौर पर इस बात को लेकर सहमति है कि यह साझेदारी अफ़ग़ानिस्तान में शांति के रास्ते पर पहुंचने के दरवाज़े की कुंजी होगी। इसका क्षेत्रीय सुरक्षा के लिहाज़ से गहरा निहितार्थ है। 

क़ुरैशी ने कांग्रेस की उस विशेष सुनवाई की व्यवस्था करने वाले ख़लीलज़ाद की उस पहल से अनुकूल नतीजे निकालने का कोई समय नहीं गंवाया, जो पाकिस्तान के साथ भविष्य के सहयोग के लिहाज़ से सबके लिए उचित और बराबरी का अवसर पैदा करती है। अमेरिका के साथ उस "वैविध्यपूर्ण और व्यापक" साझेदारी को लेकर पाकिस्तान की इच्छा को साकार करना, जो अफ़ग़ानिस्तान पर सहयोग से परे होनी चाहिए, जिसके बारे में क़ुरैशी ने अमेरिकी विदेश मंत्री, एंटनी ब्लिंकन को हाल ही में एक फोन कॉल में अमेरिका की यात्रा शुरू करने से पहले बताया था, इसके बावजूद क़ुरैशी के लिए यह मिशन चुनौतीपूर्ण है।

काबुल शायद इन प्रवृत्तियों को पहले के अनुभवों से जोड़कर देखेगा। थोड़ी कड़वाहट तो रहेगी कि चीज़ें जितनी बदलेगीं, उससे कहीं ज़्यादा चीज़ें वैसी की वैसी रहेंगी। अमेरिका की मंशा को लेकर संशय लगातार बना हुआ है। यह कहने के बाद कि अमेरिका-पाकिस्तान के प्रयासों की ऐसी कोई भी साझेदीरी आख़िरकार मौजूदा क्षेत्रीय परिवेश में बेहद ताक़तवर साबित हो सकती है, जहां वैविध्यपूर्ण सत्ता साझाकरण व्यवस्था के हिस्से के रूप में तालिबान को मुख्यधारा में शामिल करने की सामान्य स्वीकृति है।

काबुल में एक कथित सुप्रीम स्टेट काउंसिल बनाने का मौजूदा प्रस्ताव (ऐसा प्रारूप, जो शांति के आसपास और उच्च स्तर पर शांति से जुड़े अन्य मामलों पर आम सहमति बनाने का काम करेगा), जिसे ख़लीलज़ाद का समर्थन हासिल है, उससे उम्मीद की जाती है कि वह काउंसिल सरदारों और प्रभावित होने वाले कारकों को एक साथ ले आयेगी और ताक़त का सहारा लिये बिना मतभेदों को निपटाने के लिए एक मंच का निर्माण करेगी। बेशक, प्रस्तावित परिषद के पास निर्णय लेने का अधिकार होगा या नहीं, इसका पता तो बाद में चलेगा।

इसी तरह, डूरंड लाइन के मसले पर समझौते से इन मामलों में काफ़ी मदद मिलेगी।हालांकि, जब स्पीगल के साथ एक साक्षात्कार में इसके बारे में पूछा गया था, तो पूर्व राष्ट्रपति-हामिद करज़ई ने सावधानी से जवाब देते हुए कहा था, 

“अगर हम यूरोपीय संघ के मॉडल के समान पाकिस्तान के साथ रिश्ता बना सकते हैं, तो शायद एक समाधान मिल सकता है। डूरंड लाइन तब एक निश्चित सीमा के बजाय एक क्षेत्र होगी, और औपचारिक रूप से वजूद में रहेगी। सीमा नियंत्रण के बिना हम दोनों पक्षों के लोगों के बीच आदान-प्रदान और आवाजाही की वही आज़ादी चाहते हैं, जिस तरह आज यूरोपीय देशों को जर्मनी और फ़्रांस के बीच हासिल है।”

स्पीगल के साथ करज़ई के उस साक्षात्कार की पूरी स्टोरी पढ़ें, जिसका शीर्षक है-वी अफ़ग़ान आर जस्ट बीइंग यूज्ड अगेंस्ट इच अदर(हम अफ़ग़ान बस एक दूसरे के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किये जा रहे हैं)। मुद्दा यह है कि अफ़ग़ान अभिजात वर्ग में इस बात की गहरी पीड़ा है कि एक बार फिर बाहरी शक्तियों द्वारा उनके राष्ट्र पर एक "समाधान" थोपा जा रहा है। 

बहरहाल, क़ुरैशी ने बेल्टवे के साथ अपने सम्बन्धों के पुनर्निर्माण को लेकर एक अच्छी शुरुआत की है। वॉयस ऑफ़ अमेरिका की एक टिप्पणी में कहा गया है, "ऐसा लगता है कि हाल के दिनों में आगे की योजनाओं को मज़बूती देने की अमेरिकी कोशिशों में नये सिरे से तेज़ी आ गयी है।

“अमेरिकी अधिकारियों ने पहले ही इस बात को लेकर उम्मीद जता दी है कि जिनेवा में रविवार को अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार-जेक सुलिवन और उनके पाकिस्तानी समकक्ष-मोईद यूसुफ़ के बीच एक प्रारंभिक बैठक अच्छी रही।…

“इसी तरह, पेंटागन ने अमेरिकी रक्षा सचिव-लॉयड ऑस्टिन और पाकिस्तान के थल सेना प्रमुख-जनरल क़मर जावेद बाजवा के बीच सोमवार तड़के हुई फ़ोन पर बातचीत के बाद एक दूसरे से विश्वास जताया गया। पेंटागन की तरफ़ से कहा गया, "रक्षा सचिव ने अफ़ग़ानिस्तान शांति वार्ता को लेकर पाकिस्तान के समर्थन के लिए उनकी बार-बार तारीफ़ की है और संयुक्त राज्य अमेरिका-पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय सम्बन्धों बातचीत जारी रखने की इच्छा जतायी है।"

लेकिन, जैसे ही क़ुरैशी ने अपना दौरा पूरा कर लिया, वैसे ही विदेश मंत्री जे.जयशंकर अमेरिका पहुंच गये। इस तरह, भारत-पाकिस्तान के राजनयिक रिश्ते लगातार बिगड़ते जा रहे हैं। नई दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ती इस आम सहमति को लेकर गहरे संशय में है कि अफ़ग़ानिस्तान को लेकर पाकिस्तान की रणनीति में बदलाव का संकेत दिख रहा है और यह संकेत यह है कि इस्लामाबाद अब अपने पड़ोसी के रूप में तालिबान-प्रभुत्व वाले भविष्य के अफ़ग़ानिस्तान को नहीं चाहता। भारतीय इस बात पर ज़ोर देते हैं कि सब कुछ धुंधला-धुंधला है, कुछ भी स्पष्ट नहीं है। 

हालांकि, भारत अफ़ग़ान शतरंज की बिसात पर शायद ही डटे रहने की स्थिति में है। सरकार एक ऐसी महामारी की फांस में फंस गयी है, जिसका कोई अंत दिखायी नहीं देता है। जयशंकर के एजेंडे में टीकों को लेकर अमेरिकी पक्ष के साथ की जाने वाली चर्चा हावी है। एक बार फिर चीन के साथ भारत की सीमा पर तनावपूर्ण स्थिति है और भारत-चीन सम्बन्ध में लगाकार गिरावट इसलिए आ रही है, क्योंकि नई दिल्ली विश्व के उन गिने-चुने देशों के साथ अपने रिश्ते में तेज़ी ला रही है, जो चीन के उदय पर अपनी चिंतायें साझा करते हैं और इनकी विदेश नीति का मुख्य केन्द्र चीन को पीछे धकेलना है।इन देशों में हैं- यूएस, यूके, ईयू, क्वाड, आदि।

लब्बोलुआब यही है कि नई दिल्ली की तरफ़ से ऐसा कुछ भी करने की ज़्यादा संभावना नहीं है, जो अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी रणनीति को कमज़ोर कर सके, संयोगवश, इसका एक "हिंद-प्रशांत" आयाम भी है। वैसे पिछले हफ़्ते सदन की सुनवाई के दौरान जब सांसदों ने ख़लीलज़ाद को याद दिलाया कि चीन की सीमा पर बगराम ही "अमेरिका का एकमात्र आधार है", तो ख़लीलज़ाद ने पूर्ण विश्वास जताते हुए कहा कि अमेरिका के पास बगराम आधार पर "बहुत तेज़ी के साथ" लौटने की क्षमता है। उन्होंने सांसदों को पेंटागन से परामर्श करने की सलाह दी।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Afghanistan: Apocalyptic Scenario is Unwarranted

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