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उपचुनाव नतीजों के बाद पैनिक मोड में आई मोदी सरकार क्या किसान-आंदोलन पर भी यू-टर्न लेगी? 

अगले 1-2 महीने बेहद निर्णायक हैं आंदोलन के भविष्य के लिए। इस दौरान एक ओर सरकार किसी न किसी तरह आंदोलन खत्म कराने के अधिकतम दबाव में रहेगी, दूसरी ओर आंदोलन के सामने न सिर्फ अपने को मजबूती से टिकाए रखने की चुनौती रहेगी, बल्कि उसके कंधों पर  'भाजपा हराओ ' मिशन UP को कामयाबी की मंजिल तक पहुंचाने का भी ऐतिहासिक कार्यभार रहेगा।
kisan diwali
फोटो किसान एकता मोर्च के ट्विटर हैंडल से साभार

उपचुनावों के नतीजे आने के बाद पैनिक मोड में आई भाजपा ने जिस तरह आनन-फानन में पेट्रोल-डीजल की कीमतों में कमी करने और उप्र में अनाज के साथ तेल, दाल, चीनी और नमक भी बांटने का ऐलान किया है, उसके बाद क्या अब सरकार किसान-आंदोलन पर भी U-turn लेगी? 

खास तौर से तब जब यह बात साफ तौर पर उभर कर आ गई है कि किसान आंदोलन के प्रभाव का जो मुख्य इलाका है, दिल्ली के आसपास का, हरियाणा-राजस्थान-हिमाचल वहां भाजपा का सूपड़ा पूरी तरह साफ हो गया है। हिमाचल में भले अभी अन्य इलाकों जैसा आंदोलन न हो, परन्तु हाल के दिनों में सेब उत्पादक किसानों में वहां अडानी के price manipulation के खिलाफ जबर्दस्त गुस्सा  है और अडानी के पूरे खेल को 3 कृषि कानूनों से जोड़ कर देखा जा रहा है। न सिर्फ मंडी की लोकसभा सीट और तीनों विधान सभा सीटों को भाजपा ने खो दिया है, बल्कि अग्रणी सेब उत्पादक शिमला की कोटखाई सीट पर तो भाजपा उम्मीदवार को महज 2644 वोट ( 4.61% ) मिले और उसकी जमानत जब्त हो गयी। 

इसी तरह  दक्षिण भारत में किसान आंदोलन के सर्वाधिक प्रभाव वाले राज्य कर्नाटक में मुख्यमंत्री के गृहक्षेत्र में भाजपा खेत रही, मध्यप्रदेश के यूपी से लगे रैगरपुरा सीट पर भी भाजपा हार गयी जहां किसान आंदोलन की हलचल है।

3 कृषि कानूनों के खिलाफ, अपनी फसल की उचित कीमत के लिए लड़ते किसानों तथा मेहनतकशों के भाजपा विरोधी आक्रोश में आसमान छूती महंगाई, चौपट कारोबार और बेकारी ने आग में घी का काम किया है, जिसका खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा है।

संयुक्त किसान मोर्चा ने कहा है कि " विधानसभा उपचुनाव में विशेषकर हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और राजस्थान में, जहां-जहां किसान आंदोलन ने अपनी ताकत लगाकर मतदाताओं से किसान विरोधी नीतियों के लिए भाजपा को दंडित करने का आग्रह किया था, वहां परिणाम भाजपा के खिलाफ गए। उपचुनाव के नतीजे भारतीय जनता पार्टी के लिए एक चेतावनी है, अगर वह सरकारी नीतियों को जनता के हितों के अनुरूप नहीं बनाती है तो उसे इसके परिणाम भुगतने पड़ेंगे। " 

जाहिर है इन नतीजों ने किसान-आंदोलन में नए उत्साह और आशा का संचार किया है।

वैसे तो दिल्ली के बॉर्डरों पर किसान अपने फौलादी इरादों के साथ डटे हुए हैं, पर पिछले 1 महीने से मोर्चे पर एक तनावपूर्ण शांति ( anxious peace ) है। सरकार और पुलिस की हरकतों से वहां एक अफरातफरी का माहौल रहा। इसके मूल में सुप्रीम कोर्ट की अचानक सक्रियता और उसके कुछ बेहद आपत्तिजनक judgemental observations हैं, जिनमें कुछ तो परस्पर विरोधी हैं।

यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि सुप्रीम कोर्ट एक साल बीत जाने के बाद भी कृषि कानूनों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका पर न तो सुनवाई शुरू कर सका है, न किसानों के दिल्ली में लोकतान्त्रिक ढंग से विरोध के अधिकार को सरकार से सुनिश्चित करा सका है। पर अब अचानक सक्रिय हुए सर्वोच्च न्यायालय की एक 2 सदस्यीय पीठ ने तो 4 अक्टूबर को यह कहते हुए किसानों के विरोध के संवैधानिक अधिकार पर ही प्रश्नचिह्न खड़ा कर दिया कि जब कृषि कानूनों की वैधता का मामला न्यायालय के विचाराधीन ( sub-judice ) है तब वे प्रदर्शन कैसे कर सकते हैं !

बहरहाल यह observation खुद सर्वोच्च न्यायालय के 17 दिसम्बर 20 के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बोबड़े की अध्यक्षता वाली 3 सदस्यीय पीठ के फैसले का ही निषेध करता है जिसमें किसानों के Right to protest को स्वीकार करते हुए कहा गया था कि हम किसानों को विरोध-स्थलों से हटाने का आदेश पारित नहीं कर सकते।

अब 21 अक्टूबर को एक अन्य पीठ ने यह तो माना है कि न्यायालय में लंबित होने के बावजूद किसानों को विरोध का अधिकार है, लेकिन उसने यह भी जोड़ दिया कि वे अनिश्चित काल के लिए सड़क अवरुद्ध नहीं कर सकते। वैसे तो किसानों का कहना है सड़क सरकार ने बंद करवाई है, रास्ते उनकी वजह से अवरुद्ध नहीं हैं। पर सर्वोच्च न्यायालय अगर यह मानता है कि सड़क किसानों के आंदोलन के कारण अवरुद्ध है, उन्हें वहां से हटना होगा तो वे राजधानी में आंदोलन कहां करें, इस पर न्यायालय मौन क्यों है?

सरकार ने अपने लगाए बैरिकेड टिकरी और गाजीपुर में हटाये हैं। इससे एक बहुत बड़ा झूठ जो पिछले 11 महीने से आंदोलन को बदनाम करने के लिए बोला जा रहा था कि किसानों ने रास्ते बंद कर रखे हैं, उसकी सच्चाई सामने आ गयी है कि रास्ते दरअसल सरकार ने बंद करवा रखे थे। किसान दिल्ली जाने से रोक दिए जाने पर वहाँ बैठे जरूर हैं पर इस तरह नहीं कि उससे आवागमन पूरी तरह अवरुद्ध हो जाय, रास्ते पूरी तरह बंद  basically सरकार ने पुलिस की बैरिकेडिंग द्वारा  करवाये थे, जिसके तहत कई लेयर बड़े बड़े बोल्डर, कंटीले तारों की फेंसिंग,यहां तक की कील-कांटे गाड़कर दिल्ली जाने के रास्ते रोक दिए गए थे, यह सरकार ने किसानों को दिल्ली जाने से रोकने के लिए किया था। इसीलिए किसान कह रहे हैं कि अब सरकार ने रास्ते खोल दिये हैं, हमे बॉर्डर से हटाया गया तो अब हम दिल्ली जाएँगे।

इस समय तरह तरह की अफवाहों का बाजार गर्म है, जिनमें से कई एक दूसरे की एकदम विरोधी हैं। एक ओर यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि सरकार द्वारा बैरिकेड हटाया जाना किसानों को बॉर्डरों से हटाने की पूर्वपीठिका है। दूसरी ओर यह चर्चा फ़िज़ा में है कि सरकार 3 कानूनों को वापस लेने जा रही है, कुछ अफवाहों में तो यहां तक कहा गया था कि दिवाली के पहले ही इस फैसले से सरकार किसानों को दिवाली तोहफा देने जा रही है। इसे भाजपा के नए दोस्त बने कैप्टन अमरिंदर सिंह और भाजपा के मुखर जाट-नेता, पूर्व समाजवादी सत्यपाल मलिक के बयानों से भी बल मिला।

ऐसे भी संकेत हैं कि विभिन्न किसान नेताओं से अलग अलग सूत्रों के माध्यम से सम्पर्क साधा जा रहा है और इस पूरे खेल में अजीत डोभाल की Entry की भी खबरें हवा में तैर रही हैं। क्या सरकार किसान नेताओं के बीच विभाजन पैदा कर, कुछ को manipulate कर, किसी forced आधे-अधूरे समझौते के नाम पर आंदोलन को खत्म करवाने के खेल में लगी है ?

क्या यह सब सरकार के किसी larger गेम प्लान का हिस्सा है? क्या सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले/observations की आड़ लेते हुए बॉर्डर पर crackdown की तैयारी में है ? क्या सरकार किसानों को हताशा और desperation में दिल्ली में प्रवेश के लिए उकसा रही है, ताकि हिंसा-अराजकता के नाम पर उन्हें बदनाम किया जा सके और कुचला जा सके?

लखीमपुर के भारी नुकसान से सरकार अभी उबर नहीं पाई है, उपचुनावों में उसकी crushing defeat हुई है, ऐसी स्थिति में क्या  विधानसभा चुनावों के ऐन पहले  सरकार उससे भी बड़े मुसीबत को invite करना चाहेगी, क्या वह इसे afford कर सकती है? 

क्या सरकार सचमुच आंदोलन की किसी happy ending के dramatic effect से 24 के पहले के सबसे निर्णायक विधानसभा चुनाव में हारी बाजी पलटने की कोशिश करेगी ? BJP की Political necessity का logic तो यही है!

बहरहाल, इन सारे सवालों का जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है। पर इतना तय है कि अगले 1-2 महीने बेहद निर्णायक हैं आंदोलन के भविष्य के लिए। इस दौरान  एक ओर सरकार किसी न किसी तरह आंदोलन खत्म कराने के अधिकतम दबाव में रहेगी, दूसरी ओर आंदोलन के सामने न सिर्फ अपने को मजबूती से टिकाए रखने की चुनौती रहेगी, बल्कि उसके कंधों पर  ' भाजपा हराओ ' मिशन UP को कामयाबी की मंजिल तक पहुंचाने का भी ऐतिहासिक कार्यभार रहेगा, जिसका अगला पड़ाव 22 नवम्बर को संयुक्त किसान मोर्चा द्वारा आहूत लखनऊ महापंचायत है।

इस बीच किसानों के कंधे से कंधा मिलाते हुए ट्रेड यूनियनों ने 11 नवम्बर को एक राष्ट्रीय सम्मेलन बुलाया है और 26 नवंबर, किसान-आंदोलन की पहली वर्षगांठ पर ट्रेड यूनियनों की राष्ट्रीय आम हड़ताल और राष्ट्रव्यापी विरोध दिवस के रूप में मनाने का  निर्णय लिया है।

आंदोलन को एक साल होने को आया और सफलता तथा समापन अभी दूर दूर तक नहीं दिख रहा, ऊपर से लखीमपुर, सिंघु हत्याकांड, टिकरी  'दुर्घटना' और 750 से ऊपर मौतों की उदासी की छाया भी आंदोलन पर है। इसमें एक तरह की थकान, शारीरिक और मानसिक दोनों, और आगे के रास्ते को लेकर मतांतर बहुत स्वाभाविक है।

 लेकिन इस समय जो बात आंदोलन के लिए सबसे अधिक नुकसानदेह और खतरनाक साबित हो सकती है, वह है नेतृत्व में खींचतान और बिखराव। व्यक्तिवादी, गुटीय सोच,  महत्वाकांक्षा, संकीर्णता से पैदा होने वाले तमाम भटकावों से लड़ते हुए आंदोलन जिस लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली और लौह अनुशासन के साथ पिछले एक साल से अविचल आगे बढ़ता रहा है, उसे आंदोलन की अग्रगति के उन्नत vision के साथ इस महान यात्रा को जारी रखना होगा।  

 यह कठिन समय नेतृत्व की परीक्षा की घड़ी है, न सिर्फ देश के करोड़ों किसानों की, वरन पूरे समाज की उम्मीद उनके ऊपर टिकी हुई है। उन्हें इस पर खरा उतरना होगा। इतिहास ने देश के लोकतंत्र, रोटी और आज़ादी को बचाने का दायित्व आज उनके कंधों पर डाल दिया है।

(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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