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'चीलों' के रखवाले दो भाइयों पर बनी फ़िल्म ऑस्कर में इतिहास रचने को तैयार

गुज़रते वक़्त के साथ दोनों भाइयों को ये बात परेशान और उससे भी ज़्यादा सोचने पर मजबूर कर रही थी कि अगर चील एक मांस खाने वाला (Scavenger) परिंदा है तो क्या उसको यूं ही मरने के लिए छोड़ दिया जाए?
All That Breathes
फ़ोटो साभार: ट्विटर

95वें ऑस्कर अवॉर्ड के लिए नॉमिनेशंस हो चुके हैं, राजामौली की फ़िल्म RRR के गाने 'नाटू-नाटू' ने बेस्ट ओरिजिनल सॉन्ग कैटेगरी में जगह बना ली है। राजामौली की फ़िल्म के अलावा दो और डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में हैं जिनका ऑस्कर के नॉमिनेशंस में नाम है और इनमें से एक है ‘All That Breathes’। दिल्ली के दो भाइयों के जुनून की कहानी है ये फ़िल्म।

उत्तरी दिल्ली में वज़ीराबाद के क़िले से कटता एक तंग रास्ता आगे चलकर सड़क में तब्दील हो जाता है और उसके किनारे-किनारे यमुना का पानी गहरे नीले रंग का दिखाई देता है, हम कुछ हैरान हो गए कि दिल्ली में यमुना का पानी इतना साफ़ कैसे? और जब आसमान की तरफ़ नज़र उठाई तो चौड़े पंख फैलाए कानों में कुछ चुभने वाली आवाज़ के साथ बहुत सी चीलें मंडराती नज़र आई। दिल्ली के आसमान में उड़ती इन्हीं चीलों के लिए दो भाइयों के जुनून की कहानी अब अमेरिका के उस स्टेज पर पहुंच गई है जिसे हम और आप ऑस्कर के नाम से जानते हैं।

''ज़िंदगी ख़ुद एक तरह की रिश्तेदारी है। हम सब हवा की बिरादरी हैं।''

ज़ेहन में एक सनसनाहट पैदा करने वाली ये लाइन डायरेक्टर शौनक सेन की फ़िल्म ‘All That Breathes’ की है। कान्स समेत अब तक क़रीब 22 इंटरनेशनल अवॉर्ड अपने नाम कर चुकी ये फ़िल्म अब एकेडमी अवॉर्ड्स में नॉमिनेट  हुई है। ‘All That Breathes’ ऑस्कर में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री फीचर फ़िल्म कैटेगरी में नॉमिनेट हुई है। इसके अलावा ये फ़िल्म बाफ़्टा अवॉर्ड के लिए भी नॉमिनेट है। इससे पहले सनडांस फिल्म फेस्टिवल में भी धूम मचा चुकी है। साल 2022 में कान्स फ़िल्म फेस्टिवल में भी गोल्डन आई अवॉर्ड जीत चुकी है।

क्या कहानी है All That Breathes की ?

ये कहानी दिल्ली के दो भाइयों पर बेस्ड है जो Black kite ( चील) के लिए काम करते हैं। मोहम्मद सऊद और नदीम शहजाद बचपन से ही सड़कों पर मिले ज़ख़्मी जानवरों के लिए काम कर रहे थे, ये तब की बात है जब वे दिल्ली-6 की गलियों में रहा करते थे। एक दिन उन्हें ज़ख़्मी चील मिली जिसे वो दिल्ली-6 के फेमस परिंदों के अस्पताल ले गए लेकिन एक जैन मंदिर से जुड़े इस अस्पताल ने धार्मिक कारणों से मांस खाने वाले इस परिंदे ( चील) को लेने से मना कर दिया, ये उनकी मजबूरी थी। उस चील को लेकर इधर से उधर भटकते इन भाइयों को समझ नहीं आया कि आख़िर उस घायल चील का क्या करें तो उन्होंने उस चील को जहां से उठाया था वहीं छोड़ दिया लेकिन जब उन्होंने उसे दोबारा जाकर देखा तो वो चील वहां मौजूद नहीं थी। गुज़रते वक़्त के साथ दोनों भाइयों को ये बात परेशान और उससे भी ज़्यादा सोचने पर मजबूर कर रही थी कि अगर चील एक मांस खाने वाला (Scavenger) परिंदा है तो क्या उसको यूं ही मरने के लिए छोड़ दिया जाए? या फिर इसलिए वो इलाज से महरूम रहे? जिसके बाद दोनों भाइयों ने ज़ख़्मी चीलों को बचाने, उनका इलाज करने और एक बार फिर से उन्हें खुली हवा में आज़ाद करने को अपनी ज़िंदगी का मक़सद बना लिया। ये मक़सद कब पागलपन की हद वाले जुनून में तब्दील हो गया उन्हें पता ही नहीं चला। और इसी जुनून की कहानी है ‘All That Breathes’।

कहां रहते हैं ये दोनों भाई?

वज़ीराबाद की गली नंबर नौ पर पहुंचते ही एक तीख़ा ढलान दिखता है और यहीं से रास्ता जाता है 'वाइल्ड लाइफ़ रेस्क्यू' के ऑफ़िस की तरफ़। बाहर से कांच के दरवाजे़ से दिखाई दे रहा ऑफ़िस किसी दूसरे आम ऑफ़िस की तरह ही नज़र आता है लेकिन जैसे ही हम इस ऑफ़िस के अंदर दाख़िल हुए एक तेज़ गंध दिमाग़ में चढ़ने लगी, लगा एक सेकेंड ये गंध बर्दाशत नहीं हो पाएगी। ये गंध आ रही थी ऑफ़िस में रखे तमाम परिंदों और उनके इलाज़ के लिए रखी गई दवाइयों की। लेकिन कुछ देर बाद हमारे लिए भी ये गंध बेअसर हो गई। आस-पास देखकर लग रहा था ये छोटा-मोटा अस्पताल है। और यही आसरा है उन ज़ख़्मी परिंदों का जो हमारी और आपकी वजह से बीमार या फिर चोट लगने के बाद यहां पहुंचते हैं। घर के छोटे से बेसमेंट से लेकर छत तक घर का हर इंच इन परिंदों की ख़िदमत के लिए बिछा दिखता है।

दिल्ली के आसमान में चीलों या फिर परिंदों को किससे सबसे ज़्यादा ख़तरा है?

जिन दो भाइयों पर ये फ़िल्म बनी है उनमें से एक नदीम शहजाद बताते हैं कि, ''इन्हें सबसे ज़्यादा ख़तरा है पतंगबाज़ी से। मांझा इनको बहुत नुक़सान पहुंचाता है। हर साल दिल्ली में हज़ारों परिंदे पतंग की डोर से कटते हैं। और आम पतंग उड़ाने वालों को महसूस तक नहीं होता। साल दर साल हमारे पास जो जख़्मी परिंदे आते हैं, उनमें पतंगबाज़ी में जख़्मी हुए परिंदों की तादाद बढ़ती जा रही है।''

नदीम एक और बेहद डरा देने वाला कारण बताते हैं, ''लेकिन हमारे पास सबसे ज़्यादा केस आते हैं ( बीमार चीलों के) जब इनके बच्चों का सीज़न ( breeding season ) होता है। अप्रैल में, हर साल हमारे पास 600 से 700 बर्ड आते थे, लेकिन पिछले साल ( 2022) जब गर्मी पड़ी तो बहुत बुरा हाल था। इस दौरान जो छोटे बच्चे थे, घोंसले से निकल रहे थे, उन्हें नहीं पता था कि पानी कहां से पीना है। और अगर पानी के सोर्स तक पहुंच भी जाते थे तो पानी सूखा मिलता था, तो इस साल हमारे पास जो 600- 700 केस आते थे वो सीधे 1200 में बदल गए और जिनमें 99 प्रतिशत केस डिहाइड्रेशन के थे।“

तो जलवायु परिवर्तन की वजह से लगातार दिल्ली में पिछले कुछ सालों में जिस तरह से गर्मी में पारा 47-48 डिग्री को छू रहा है वो इंसानों के लिए ही नहीं जानवरों और परिंदों पर भी भारी पड़ रहा है। इंसान खु़द को गर्मी से बचाने के उपाय कर सकता है लेकिन ऐसे में दिल्ली के आसमान में उड़ने वाले परिंदों की अगर कोई परवाह कर रहा था तो वो ये दोनों भाई और उनकी टीम थी। और उनकी इसी कहानी को शौनक और अमन मान ने दुनिया के सामने पेश किया है।

अब तक कितने परिंदों का इलाज कर चुके हैं?

सऊद बताते हैं कि अब तक वो क़रीब 26 हज़ार से ज़्यादा परिंदों का इलाज कर उन्हें ख़ुले आसमान में छोड़ चुके हैं। वे बताते हैं कि किस तरह समाज में चीलों को लेकर कुछ झिझक है, उन्हें अच्छा नहीं माना जाता। इसका ख़ामियाजा इस परिंदे को उठाना पड़ता है। इन परिंदों के साथ लंबे समय तक काम करते-करते उनसे लगाव हो जाना स्वाभाविक है, ऐसी ही एक चील के बारे में उन्होंने बताया, ''शुरुआती दौर में हमारे पास एक चील आई थी जो चोट की वजह से कभी उड़ नहीं सकती थी। हमने उसका नाम 'चींटी' रखा था'' वो हमारे साथ क़रीब 11 साल रही और फिर मर गई''।

इस काम को करके कैसा लगता है?

मोहम्मद सऊद कहते हैं ''इस काम को करके उस वक़्त बहुत सुकून, तसल्ली और ख़ुशी महसूस होती है जब हम इनका इलाज कर इन्हें खुले आसमान में आज़ादी से उड़ता देखते हैं''।

बातचीत के दौरान सऊद की पत्नी भी दिखीं उन्होंने मज़ाक़िया अंदाज़ में बताया ''जब मैं शादी करके आई थी तो हमारे कमरे में भी चीलें रहती थीं।'

सऊद इस मौक़े पर अपनी अम्मी को याद करते हुए बताते हैं कि ''कहीं ना कहीं हमारे अंदर ये जज़्बा अम्मी की ही देन है। वो ख़ुद भी अक्सर सड़क पर मिलने वाले बीमार लोगों को इलाज़ के लिए अस्पताल ले जाया करती थीं।“

क्या परेशानियां पेश आईं?

जब हमने जानना चाहा कि इन परिंदों को रेस्क्यू कर इलाज के दौरान किन परेशानियों का सामना करना पड़ा तो नदीम शहजाद ने बताया कि शुरुआती दिनों में मैन पावर एक बड़ी समस्या थी उस वक़्त सिर्फ़ वो और उनके भाई सऊद दो लोग ही सारा काम देख रहे थे, काम बढ़ता जा रहा था और काम करने वाले सिर्फ़ वो दो ही थे, इसके अलावा इस काम को करते रहने के लिए उन्हें पैसों की ज़रूरत थी। वो बताते हैं, ''शुरुआती दौर में हम ख़ुद अपनी ही जेब से ख़र्च करते थे, हमारा एक बिजनेस है उससे जो हम कमाते थे उसकी बचत से इनपर ख़र्च करते थे।“

लेकिन आज की तारीख़ में उन्हें जो डोनेशन मिलता है उससे वो इन परिंदों की देखभाल और इलाज करते हैं।

नदीम शहजाद और मोहम्मद सऊद ने भले ही इस काम को बेज़बान परिंदों का दर्द महसूस करके शुरू किया था लेकिन आज वो इस काम को बहुत ही प्रोफेशनल तरीक़े से करते हैं। https://www.raptorrescue.org/ ये वो पता है जहां उनके काम के बारे में और जानकारी ली जा सकती है। इसके अलावा इन लोगों ने दिल्ली की उन तमाम जगहों से ख़ुद को लिंक कर रखा है जहां चीलों को ले जाया जाता हो।

सऊद बताते हैं कि ''हमने इन सभी को बोल रखा है कि उनके पास आने वाली किसी भी ज़ख़्मी या बीमार चीलों को वो लौटाएं नहीं बल्कि ले लें और हमारे यहां भेजवा दें ताक़ि उनका इलाज कर एक बार फिर से उन्हें आज़ाद आसमान में छोड़ा जा सके।'' आज पुरानी दिल्ली का वो जैन मंदिर का अस्पताल (जिसने इन दोनों भाइयों को मिली पहली चील को लौटा दिया था) भी चीलों को लेने लगा है और उन्हें लेकर इन दोनों भाइयों के पास भेज देता है।

जिस दौरान हम इन भाइयों के काम करने के तरीक़े को समझ रहे थे तभी उस शक्ल पर नज़र पड़ी जो इस फ़िल्म के पोस्टर पर दिखते हैं ये थे सालिक रहमान। सालिक बहुत यंग हैं और बहुत ही गर्मजोशी के साथ इस काम में लगे रहते हैं, बेहद हंसमुख सालिक बताते हैं कि अब वो सोशल मीडिया पर ख़ासे फेमस हो गए हैं। साथ ही उनके इंस्टाग्राम फॉलोअर्स भी बढ़ गए हैं, कुल मिलाकर वो एक लोकल सेलिब्रिटी तो बन ही गए हैं। जिसपर सालिक मुस्कुराते हुए कहते हैं कि ''सोचा नहीं था बर्ड्स को बचाते-बचाते हम इतना आगे जाएंगे, हमारी कहानी ऑस्कर में दिखाई जाएगी।''


जिस दौरान हम सालिक से बात कर रहे थे कि तभी हमने देखा कि हमारे सामने ही लाई गई एक ज़ख़्मी चील को देखने के लिए सालिक सारे काम छोड़कर लग गए, बहुत ही सिस्टेमैटिक तरीक़े से वो एक तरफ़ जहां मांझे से ज़ख़्मी हुई चील को देख रहे थे वहीं दूसरी तरफ़ उसकी सारी डिटेल जैसे चील का वज़न करना, चोट के बारे में पेपर वर्क भी करते जा रहे थे, उनके इस काम में साथ दे रहे थे टीम के एक और सदस्य उमर। इन दोनों को काम करता देखकर एक बात तो समझ आ गई कि इन लोगों के लिए ये काम, और दूसरे काम से बढ़कर है।

क्या है इस फ़िल्म का मैसेज ?

नदीम शहजाद कहते हैं कि इस फ़िल्म का मैसेज है ''Life is a Kingship। ये डायलॉग भी है हमारी फ़िल्म का, हम जो ज़िंदगी जीते हैं हमारे आस-पास के जो जानवर हैं हम ये उनके साथ शेयर करके जीते हैं हम सब शेयरहोल्डर हैं, तो हम उनके साथ किस तरह से अपने रिलेशनशिप को बेहतर कर सकते हैं वो मैटर करता है, उसमें कुछ भी हो सकता है जैसे किसी परिंदे का घोंसला मत तोड़िए, किसी जानवर को पानी पिला दिया। आप जिस तरह से जीते आ रहे हैं उसमें अगर दिखे की किसी जानवर या परिंदे को आपकी ज़रूरत है, भले ही कुछ वक़्त के लिए तो वो वक़्त वो मदद उन्हें ज़रूर दें, उनके लिए ये दुनिया बेहतर बनाएं, अगर उनके लिए ये दुनिया बेहतर होगी तो आपके लिए भी ख़ूबसूरत हो जाएगी।''

नदीम शहजाद की बात भले ही उस वक़्त हमें फलसफे में डूबी महसूस हो रही थी लेकिन जब हमने उस जगह को देखा जहां चीलों को रखा जाता है तो फलसफे की ज़िंदगी से मुलाक़ात होती दिखी। दरअसल इन दोनों भाइयों ने चीलों को रखने के लिए अलग-अलग जगह बना रखी थीं और जिस जगह पर सबसे ज़्यादा चीलों को रखा गया था उसका शेड एक तरफ़ आसमान की तरफ़ खुला छोड़ा गया था जिसका मक़सद ये था कि जो चीलें ठीक हो जाती हैं और उड़ सकती हैं उनके लिए सामने खुला आसमान है। वो इलाज के बाद जब चाहे खुले आसमान में गोता लगा सकती हैं।

दिल्ली में बढ़ती इंसानी तादाद के बीच हमने इन परिंदों के लिए क्या स्पेस छोड़ा या फिर बनाया है ये ज़रूर ख़ुद से सवाल करना चाहिए। दिल्ली का इकोसिस्टम इनके लिए कितना फ्रेंडली है और इसमें हमारी कितनी दिलचस्पी है, ये भी बहुत ही अहम सवाल हैं? साथ ही इंसान की आज़ादी हो सकता है कई बातों पर निर्भर हो लेकिन जिनकी आज़ादी इंसान पर निर्भर है उनके लिए एक खुला महफूज़ आसमान तो बनाया ही जा सकता है।

फ़िल्म की पूरी टीम को ऑस्कर से पहले बाफ़्टा (British Academy Film Awards ) से उम्मीदें है जिसका ऐलान अगले महीने होने वाला है। जबकि HBO 7 फरवरी को इस फ़िल्म को पूरी दुनिया में रिलीज करने जा रही है। जिसके बाद उम्मीद है कि और ज़्यादा लोगों तक दिल्ली के इन दो भाइयों की जुनून से भरी ईमानदार कोशिश की कहानी पहुंचे और फ़िल्म को देखने के बाद हम और आप एक बार फिर आसमान की तरफ़ देखें और फ़िल्म की इस लाइन को ज़रूर दोहराएं।

''जो जो चीजें सांस लेती हैं उनमें फ़र्क़ नहीं दिखना चाहिए''

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